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उद्दाम पूँजीवाद के सामने धर्मभीरू नेताओं का ता-ता थैया

खरी-खरी            Apr 15, 2016


shriram-tiwariश्रीराम तिवारी। भारत के कुछ धर्मभीरु नेता उद्दाम पूँजीवाद के सामने ता—ता थैया किये जा रहे हैं। पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का संचालन करने वाली राजनीति के एक प्रमुख सिद्धांतकार और भाष्यकार - 'निकोलो मैकियावेली'की मशहूर स्थापना है कि ''पूँजीवादी राजनीति का नैतिकता से कोई संबंध नहीं ''! अर्थात जो कोई व्यक्ति अथवा संगठन पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र की राजनीति का खिलाड़ी है -उसे भृष्ट ,बेईमान और चरित्रहीन होना ही होगा। ज्यादा सरल शब्दों में कहा जाए तो मेकियावेली का कथन यह है कि पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र का न्याय' ,समानता और उदात्त चरित्र जैसे मानवीय मूल्यों से कोई लेना -देना नहीं है। इस सिद्धांत की अवहेलना करते हुए यदि कोई शख्स दावा करता है कि ''मैं न तो खाता हूँ और न किसी को खाने दे रहा हूँ'' तो समझो वह सफ़ेद झूठ बोल रहा है। चूँकि मेकियावेली पूंजीवाद के सिद्धांतकार -समर्थक थे अतएव वे उसके आदर्श भी रहे हैं। अब यदि कोई कहे कि मेकियावेली झूठा था, तब उसे मार्क्सवादियों की तरफ खड़ा होना पडेगा। लेकिन मार्क्सवाद की डोर थामने का जिगरा उसी में होगा जो मेकियावेली को नकार दे। पूँजीवाद के 63 से उसे दव्न्दात्मक भौतिकवाद का 36 होना पड़ेगा, क्योंकि यही तो मार्क्स और एंगेल्स तथा लेनिन ने भी कहा है कि पूँजीवाद तो सर्वहारा के श्रम शोषण की कीमत पर उसके उतपादन के साधनों पर कब्जे की कीमत पर ही निर्भर है। अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की तो अब जरूरत ही नहीं है ,क्योंकि वह तो कब का कालातीत हो चुका है। चूँकि मेकियावेली के अनुसार पूँजीवाद नैतिकता की परवाह नहीं करता, उसके लिए राजनीति अनैतिक अड्डा है। भारत के हिन्दुत्ववादी धर्मभीरु नेता सत्ता में हैं, उन्हें गीता-उपनिषद और वेद का अनुसरण करना चाहिए कि मेकियावेली का? यदि वे हिन्दुत्ववादी मर्यादाओं के आग्रही हैं तो उद्दाम नग्न पूँजीवाद के सामने था-था थैया किये जा रहे हैं? रामराज बैठे त्रिलोका ,,,,,' का अनुसरण क्यों नहीं करते ? यदि रामराज के सिद्धांतों का अनुसरण सम्भव नहीं तो मार्क्सवाद ही क्या बुरा है ? कम से कम गरीबों-दलितों के उद्धार और आर्थिक सामाजिक समानता का वैज्ञानिक सिद्धांत तो वामपंथ के पास है।


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