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किसानों की ओर सधे कदम बढ़ाते 'युवराज'

खरी-खरी            May 03, 2015


सिद्धार्थ शंकर गौतम संसद के बीच सत्र से रहस्यमयी छुट्टियां मनाने गए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने वतन वापसी के बाद मोदी सरकार के महत्वाकांक्षी भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ पंजाब, विदर्भ जैसे किसान की बहुतायत वाले क्षेत्रों में मोर्चा खोल दिया है। इससे पहले संसद में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नसीहत का पाठ भी पढ़ा डाला था। इस बार राहुल के बदले तेवर में उनके पिता स्व. राजीव गांधी की झलक दिख रही है जब बोफोर्स कांड के बाद उन्होंने आम जनता से सीधे जुड़ाव को महत्ता दी थी। पंजाब तक राहुल ट्रेन की जनरल बोगी में गए तो महाराष्ट्र जाने के लिए उन्होंने हवाई जहाज की इकॉनमी क्लास को चुना। ज़ाहिर है, राहुल यह सब मोदी की आम आदमी की छवि के बनिस्बत खुद को खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं और इस बार उनका यह रूप राजनीतिक पंडितों को चौंका भी रहा है। दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पार्टी 2 अंकों में सिमट कर रह गई थी और उसे किसी चमत्कारिक नेतृत्व की ज़रूरत थी। बिखरी कांग्रेस को एक करने का पहला प्रयास पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी; पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के घर पैदल मार्च करके शुरू कर चुकी थीं किन्तु इसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकल रहा था। राहुल की वापसी ने सोनिया की इस मुहिम को धार दी है। जिन्होंने भी टीवी पर संसद की कार्रवाई में राहुल को बोलते सुना या देखा, वह सहज ही अनुमान लगा सकता है कि उनके आस-पास युवा कांग्रेसियों का जो जमघट लगा है उसके अपने निहितार्थ हैं। राहुल को जल्द ही पार्टी की कमान मिल सकती है और यही वह वक़्त है जब अपने सर्वमान्य नेता के लिए पूरी कांग्रेस एकजुट दिखेगी। राहुल इसी मौके को भुनाने चाहते हैं। उन्हें पता है कि खुद को 'युवराज' से 'आम आदमी' का नेता साबित करने के लिए उस वर्ग का चहेता बनना होगा जो देश की अर्थव्यवस्था से लेकर रोजी-रोटी पर एकछत्र राज करता है और उसके लिए उन्हें उसकी तकलीफों, दुःख-दर्द और सरकारी नाफरमानी को उनके बीच जाकर महसूस करना होगा। राहुल ने इस बार बड़े सधे क़दमों से किसानों की ओर 'हाथ' का 'साथ' होने का एहसास दिलाने की कोशिश की है। हालांकि किसानों की सर्वाधिक दुर्दशा कांग्रेस शासनकाल में ही हुई है किन्तु राहुल यदि सच्चे मन से उनके हालातों का समझ पाए तो यह किसानों से लेकर उनकी पार्टी के लिए भी संजीवनी का काम कर सकता है। देखा जाए तो किसान राजनीति के जरिए अपनी असफलता से पार पाने की जद्दोजहद में जुटे राहुल २००९ में पार्टी को मिली सफलता दोहराना चाहते हैं। उस समय किसानों के कर्ज माफ कर कांग्रेस सत्ता में लौटी थी। राहुल भूमि अधिग्रहण को भी एक मौके की तरह देख रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार के मुकाबले में उतरने को तैयार राहुल का नागपुर और विदर्भ का दौरा भी पार्टी की रणनीति का हिस्सा है। हालांकि राहुल गांधी के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं रहने वाला। बहुमत की सरकार के अलावा अन्य क्षेत्रीय दल भी उनकी राह में कांटें बिछाने को तैयार हैं। यही राजनीति है और जो इस राजनीति की काट ढूंढ लेता है, वही सिकंदर होता है। राहुल के पास यूं तो वापसी का और नेहरू-गांधी परिवार की प्रासंगिकता बचाने का बेजोड़ मौका है मगर वे इसे कितना भुना पाते हैं, इसमें संशय है। राहुल को नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि वे शुरुआत को बड़ी क्रांतिकारी करते हैं किन्तु वक़्त के साथ क्रांति की लौ मद्धम पड़ने लगी है और देर-सवेर वो बुझ जाती है। राहुल के तथाकथित सलाहकार उन्हें असली भारत से रूबरू होने का मौका ही नहीं देते। वे जिस चश्मे से देश के हालात दिखाते हैं, राहुल वही देखकर निर्णय ले लेते हैं। २०१२ में ब्रिटेन की द इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने राहुल की काबिलियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें एक समस्या तक करार दे दिया था। द राहुल प्रॉब्लम शीर्षक से लिखे लेख में संसद में उनकी भागीदारी और बोलने से बचने का जिक्र करते हुए उन्हें भ्रमित व्यक्ति भी बताया गया। पत्रिका ने मनमोहन सरकार में कोई बड़ी जिम्मेदारी लेने में दिलचस्पी नहीं दिखाने की राहुल की आदत को उनकी योग्यता से जोड़ दिया था। पत्रिका का दावा था कि एक नेता के तौर पर राहुल अपनी योग्यता साबित करने में नाकाम रहे हैं। वह शर्मीले हैं और पत्रकारों व राजनीतिक विरोधियों से बात करते हुए झिझकते हैं। संसद में आवाज बुलंद करने में भी राहुल पीछे हैं। कोई नहीं जानता कि राहुल गांधी के पास क्या क्षमता है? हालांकि राहुल की योग्यता को लेकर अब भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं कि उन्होंने अभी तक यूथ विंग और विधानसभा चुनावों में ही पार्टी का नेतृत्व किया है। यही नहीं, दोनों ही मोर्चो पर उन्हें खास सफलता भी नहीं मिली है। ऐसे में अब राहुल क्या कर पाएंगे जबकि मोदी का करिश्मा और उनका जादू देश की सरहदों से पार वैश्विक स्तर तक जा पहुंचा है। अपने इर्द-गिर्द ठाकुर लाबी को रखना और उनपर हद से ज्यादा आश्रित होना ही राहुल को राजनैतिक सच्चाई से विमुख करता रहा है और राहुल को जब यह बात समझ आई तो उन्होंने समाजवादी बनने के चक्कर में पार्टी का नुकसान कर दिया। राहुल की नाकामयाबियों की फेरहिस्त में कांग्रेसियों के अनुचित बयानों से लेकर बुरे समय का योगदान अधिक रहा है लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का वारिस होने के नाते उनसे इतनी तो उम्मीद थी ही कि वे राजनीतिक समझबूझ का परिचय देते हुए परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढाते, मगर यहां वे असफल ही हुए। राहुल के साथ सबसे बड़ी दिक्कत उनकी वह सोच है जो भारत की अधिसंख्य जनसंख्या की सोच से मेल नहीं खाती और राहुल शायद उसी सोच को बदलने की राह पर चलने को इच्छुक हैं। किसानों के मुद्दे पर सरकार और मोदी पर हमलावर राहुल यदि लंबे समय तक यही तेवर बरक़रार रख पाते हैं तो राजनीति में बदलाव देखने को मिल सकता है वरना तो फिलहाल मोदी के मुकाबले राहुल को खड़ा होने में और अधिक समय लगेगा जो कांग्रेस के लिए और बुरा हो सकता है।


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