क्यों चुप हैं केजरीवाल
खरी-खरी
Mar 08, 2015
आकार पटेल,बीबीसी
आम आदमी पार्टी ने इस हफ़्ते दूसरे राजनीतिक दलों की तरह ही क्षुद्र और धोखा देने का काम कर अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं को काफी निराश किया है.
पार्टी ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में चली मुहिम के बाद अपने दो सबसे सम्मानित सदस्यों को सबसे अहम संस्था राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाल दिया.
बहुत ही सौम्यता और आदर के साथ पार्टी से सत्ता के विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को मानने की मांग कर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने केजरीवाल को नाराज़ कर दिया था.
केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक भी.
यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दो पदों पर नहीं हैं और सोनिया गांधी ने तो ऐसा कभी नहीं किया.
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यादव और भूषण के मुताबिक़, केजरीवाल के मुख्यमंत्री रहते हुए संयोजक बने रहने से 'एक व्यक्ति, एक पद' के सिद्धांत का उल्लंघन होता है.
मीडिया को भी आम आदमी पार्टी पर हमला करने का मौका इस विवाद में मिल गया. यह मुद्दा किसी न किसी रूप से साफ़ तौर पर पार्टी में छाया हुआ था. पार्टी पर कोई क़दम उठाने का दवाब भी काफ़ी दिनों से बना हुआ था.
केजरीवाल ने इस समस्या को हल करने के लिए दो मार्च को दो ट्वीट किए.
उन्होंने लिखा, “पार्टी में जो कुछ हो रहा है उससे मैं भीतर से दुखी हूँ. दिल्ली ने हम पर जो विश्वास जताया है, यह उससे धोखा है. मैं इस भद्दी लड़ाई में शामिल नहीं होउंगा और दिल्ली के प्रशासन पर ध्यान दूंगा. मैं जनता के भरोसे को किसी भी हालत में टूटने नहीं दूंगा.”
‘मैं’ और ‘हम’ को यहां मिलाना प्रतीकात्मक है. इस भरोसे को किसने तोड़ा? केजरीवाल के अनुसार, “जो मांग कर रहे हैं, उनसे मैं बड़ी विनम्रता और नरमी से फिर कहता हूं कि ‘आप’ निरंकुश नहीं होने जा रही है.”
केजरीवाल इस मामले से ख़ुद को अलग रखने का दावा करते रहे, पर उन्होंने अपने लोगों को यादव और भूषण पर हमला करने के लिए खुली छूट दे दी थी.
इसमें पूर्व पत्रकार आशुतोष और आशीष खेतान जैसे लोग भी शामिल थे.
खेतान तो इतना बह गए कि बाद में ट्विटर पर लिखे अपने शब्दों के लिए उन्हें माफ़ी भी मांगनी पड़ी.
जब स्थितियां एकदम विकट हो गई, केजरीवाल दस दिन की छुट्टी लेकर इससे दूर भाग गए.
‘अनुशासनहीनता’ के इस मुद्दे के सुलझने तक उनसे दिल्ली में ही रुके रहने को कहा गया था, लेकिन उन्होंने भूषण और यादव से निपटने की ज़िम्मेदारी अपने सेना नायकों पर छोड़ने का विकल्प चुना.
एक रिपोर्ट के अनुसार, केजरीवाल ख़ुद को पार्टी से ऊपर रखने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि यह सबके सामने हो रहा था.
समझौते की कोशिश
इसके बाद, यादव और भूषण के साथ हुई नाइंसाफ़ी से नाख़ुश 'आप' के एक सदस्य ने तमाम घटनाओं का खुलासा अपने ब्लॉग पर कर दिया.
यादव और भूषण ने उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को नीतिगत निकाय को पुनर्गठित करने का प्रस्ताव दिया जिसमें उनकी जगह दो अन्य लोगों को शामिल किया जाए.
एक और विकल्प था कि निकाय जस का तस रहे और ये दोनों लोग इसकी बैठकों में शामिल न हों और निष्क्रिय हो जाएं. ये दोनों ही किसी तार्किक समझौते की उम्मीद करते थे.
संवाददाताओं के अनुसार, इसी बीच मीटिंग स्थगित हुई और फ़ोन पर केजरीवाल से सलाह-मशविरा किया गया. इसके बाद मतदान हुआ और कुछ मतों के अंतर से दोनों को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाल दिया गया.
भारतीय अंदाज़ में केजरीवाल कैंप ने मान लिया कि यह अपमान पर्याप्त था, लेकिन वे ग़लत थे.
दोनों ही लोग बहुत ही सम्मानित तरीक़े से पेश आए और मीडिया के सामने अपनी शिकायतों को सार्वजनिक नहीं किया.
इस कारण पार्टी कार्यकर्ताओं की पूरी सहानुभूति उनकी तरफ़ चली गई, लेकिन केजरीवाल की असली समस्या कहीं और ही थी.
इस भोंड़ेपन और कड़वाहट ने पार्टी की सबसे क़ीमती पूंजी यानी स्वयंसेवकों के आधार को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया. ये वे लोग थे, जो दूसरे राजनीतिक दल से अाम आदमी पार्टी में शामिल हुए थे.
ये स्वयंसेवक मध्यवर्ग के हैं और अपने सामने हो रही बातों को लेकर संवेदनहीन नहीं हैं.
उनमें ग़ुस्सा था और उन्होंने इसे ज़ाहिर भी किया. इस तरह की चीजों के लिए ट्विटर और फ़ेसबुक बहुत मुफ़ीद है.
जब केजरीवाल कैंप को अपनी ग़लती का एहसास हुआ तो आख़िरकार उन्होंने चुप्पी साध ली.
जिस तरह के आक्रामक ट्वीट किए जा रहे थे, आशुतोष और खेतान ने इसमें शामिल होना बंद कर दिया. इसमें कोई शक नहीं कि यह केजरीवाल के निर्देश पर ही हुआ.
इसके साथ ही मुख्यमंत्री केजरीवाल भी चुप रहे. लेकिन जब वो वापस दिल्ली लौटेंगे तो उन्हें अपने शब्द वापस लेने पड़ेंगे और इस मुद्दे पर मुंह खोलना होगा.
मुझे ‘आप’ के लंबी चौड़ी हांकने वाले और ख़ुद में मगन रहने वाले तत्वों से हमेशा ही दिक़्क़त रही है.
इस बात पर उनका ज़ोर है कि बाक़ी पार्टियां भ्रष्ट और अवसरवादी हैं और केवल वे ही आदर्शवादी हैं. इस हफ़्ते उनकी यह साख भी तार-तार हो गई.
इस दौरान एक और बात हुई. अाम आदमी पार्टी का ‘स्वराज’ का वह सिद्धांत भी तार-तार हो गया, जिसको मुद्दा बनाकर पार्टी ने पहली बार दिल्ली चुनाव लड़ा था. इस बार तो उनका दबदबा पहले से भी ज़्यादा था.
इस विचार के मुताबिक़, सत्ता को मोहल्ला सभाओं के हवाले कर दिया जाना चाहिए और सामान्य लोगों तथा मतदाताओं पर छोड़ देना चाहिए कि सरकारी धन कहां और कैसे ख़र्च करना है.
अब मुझे ताज्जुब लगता है कि ‘आप’ के स्वराज में ‘स्व’ कौन है, क्योंकि लगता है कि केजरीवाल और उनका स्वशासन ही ‘स्व’ है, जिसके बारे में वे बहुत चिंतित हैं.
केजरीवाल को यादव से ख़तरा महसूस होना ही चाहिए था क्योंकि वह उन्हें पार्टी की समस्याओों से अवगत कराते रहते हैं. .
इस घटना से साफ़ लगता है कि मेरी दोस्त शाज़िया इल्मी जैसी अवसरवादी नेता भी पूरी तरह सही थी.
पार्टी छोड़ते हुए और भाजपा में शामिल होते समय उन्होंने कहा था कि कई मायनों में आम आदमी पार्टी में निरंकुशता का राज है.
तब हम लोगों ने उनकी हंसी उड़ाई थी, लेकिन आज कौन कह सकता है कि वो ग़लत थीं?
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