हेमंत पाल।
गर्मी का मौसम करीब—करीब विदा हो गया। मध्यप्रदेश के बाकी हिस्से में बरसात का इंतजार किया जा रहा है। लेकिन, बुंदेलखंड इलाका आज भी सूरज की आग से झुलस रहा है। खेत सूखकर बंजर हो गए। लोग पीने के पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं। मवेशी प्यास से मर रहे हैं। दूर-दूर तक राहत की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही। अकाल जैसे हालात हैं। काम के अभाव में मजदूरी करने वाले पलायन कर गए। इतना सब होते हुए भी सरकार कहीं नजर नहीं आ रही। जिस इलाके से मंत्रिमंडल में 4 या 5 मंत्री हों, वहां की हालत पर गौर तक नहीं किया जा रहा। कहीं कोई चिंता या सुगबुगाहट नहीं। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के सूखे पर देशभर में आंसू बहाए गए, पर बुंदेलखंड को लेकर कोई गंभीर नजर नहीं दिख रहा। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की बेरुखी सवाल खड़े कर रही है। यही हालत उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड में भी है। पर, जो इलाका मध्यप्रदेश के हिस्से में है, उसकी जिम्मेदारी तो इसी सरकार की बनती है।
बुंदेलखंड कि नियति है कि यहाँ लगातार सूखे की स्थिति खतरनाक स्तर पर है। 1999 के बाद से यहाँ बारिश के दिनों की संख्या 52 से घटकर 23 पर आ गई। भूजल स्तर साल दर साल गहराई में उतरता जा रहा है। यहाँ औसतन 95 सेंमी बारिश होती है। इस कारण यहाँ सालभर जलसंकट बना रहता है। यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों को दोहन ने बर्बाद कर दिया! इसी कारण खेती भी सूख गई! पिछले एक दशक में बुंदेलखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 55% और उत्पादकता में 21% कमी आंकी गई। इसके बाद भी सरकार ने किसानों और खेती को संरक्षण देने के लिए कोई उपाय नहीं किए। बेहतर होता कि यहाँ कम बरसात में उपजने वाली फसलों को प्रोत्साहन दिया जाता। लेकिन, करीब दो दशक में आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए नकदी फसलों को बढावा दिया।
इस कारण जमीन की नमी गायब हो गई। समृद्ध किसानों ने गहरी खुदाई करके जमीन का सारा पानी खींच लिया और भूजल को सुखा डाला। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के मुताबिक बुंदेलखंड के सभी जिलों में पानी का स्तर लगातार घट रहा है। भूजल स्तर तो 2 से 4 मीटर प्रतिवर्ष के हिसाब से गिर रहा है! ऐसे में औसत से ज्यादा भी बरसात हो जाए, तो भी पानी जमीन में नहीं उतरेगा। बारिश के पानी को उजड़े खेतों की मेढ़े रोक नहीं सकती। तब भू-जल स्तर तो बढ़ नहीं पाएगा?
इस इलाके की मूल समस्या जल, जंगल और जमीन से जुडी है। कभी ये बुंदेलखंड की ताकत थी। लगातार सूखे की वजह से यहाँ की जमीन अपना उपजाऊपन खो चुकी है। इस तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। बल्कि, सूखे से पडत बनी भूमि को खदानों और सीमेंट कंपनियों में बदला जा रहा है। ये जानते हुए कि सीमेंट कंपनियों के आसपास का बड़ा इलाका बंजर बनते देर नहीं लगती। दालों के उत्पादन को भी सरकार ने बढावा नहीं दिया, जो बुंदेलखंड के लिए सबसे अच्छा विकल्प हो सकता था! धान की तुलना में दालों में बहुत कम पानी लगता है।
दो साल पहले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना और कम ब्याज पर कृषि ऋण देकर किसानों की हालत सुधारने का वादा किया था। सिंचाई संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए नदियों को जोड़ने की बात कही थी। पर अभी तक मामला शून्य है। राज्य सरकार की चिंता भी बुंदेलखंड लेकर उतनी नहीं है, जितनी होना चाहिए। मध्यप्रदेश सरकार में 4 या 5 मंत्री बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर कोई भी सूखे, जलसंकट, बेरोजगारी और पलायन को लेकर कभी बात नहीं करता। बुंदेलखंड में इस साल सूखे और कर्जे कारण कई किसानों ने आत्महत्या की। कई की मौत कारण सदमा रहा।
आंकड़ों के अनुसार, बुंदेलखंड में पिछले 10 सालों में तीन हजार से ज्यादा किसानों की मौत हुई। लेकिन, ये आंकड़ा भी सरकार को चिंतित नहीं करता। क्योंकि, सरकार की नजर में बुंदेलखंड इस सबके लिए अभ्यस्त हो चुका है! एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे तो दूसरी तरफ काम की तलाश मजदूर वर्ग दिल्ली और अन्य बड़े शहरों की तरफ भाग रहा है। सरकार कुछ भी दावे करे, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि बुंदेलखंड से हर साल लाखों लोग काम तलाश में अपना घर, जानवर, जंगल, जमीन छोड़ते हैं। पहले इन्हें सरकारी राहत कार्य तहत काम मिल जाता था। लेकिन, अब तो उन्होंने 'मनरेगा' भी उन्होंने उम्मीद छोड़ दी।
लगातार पड़ते सूखे, सरकारी बेरुखी, गरीबी, अभाव, बेरोजगारी और पलायन की त्रासदी भोगते हुए बुंदेलखंड के लोग विपरीत परिस्थितियों में जीने के लिए अभ्यस्त हो चुके हैं। राजनीतिक जागरूकता होते हुए भी जीने की मज़बूरी ने बुंदेलखंड के लोगों को नेताओं के आगे पीछे घूमने लिए मजबूर कर दिया! इसका नतीजा ये हुआ कि श्रृंखलाबद्ध सूखे की त्रासदी झेलने के बाद भी कहीं से सरकार से राहत मांगने आवाज नहीं उठती। चुनाव के वक़्त भरमाने के लिए बुंदेलखंड के लिए अलग 'विकास प्राधिकरण' के वादे किए जाते हैं। पर, उस वादे पर 5 साल तक फिर बात भी नहीं की जाती! कुर्सियों की बंदरबांट के लिए कई निगम, मंडल और बोर्ड बना दिए गए, क्या बुंदेलखंड लिए 'विकास प्राधिकरण' मांग को पूरा नहीं किया जाना चाहिए?
दरअसल, बुंदेलखंड को विकास के जिस क्रांतिकारी नज़रिए की जरूरत है वो अभी तक आकार नहीं ले सका! यदि बुंदेलखंड को खुद अपने बारे में सोचने, समझने और विकास की दिशा गढ़ने की आजादी मिल जाए तो यहाँ का सूखा भी हरियाली में बदल सकता है। सदियों से बुंदेलखंड हालात और प्रकृति के प्रकोपों से संघर्ष करता रहा है। इसी संघर्ष कोख से सूखा और जलसंकट भी पनपा है! यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां बारिश का पानी सहेजने लिए मुफीद नहीं हैं। कहीं पत्थर हैं तो कहीं सपाट जमीन।
बुंदेलखंड के राजाओं ने यहाँ सैकड़ों तालाब बनवाए और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें कम पानी लगता है। लेकिन, वोट की राजनीति और सरकारों बुंदेलखंड को विकास की मूल धारा से उतारकर हाशिये पर रख दिया। जबकि, ये सार्वभौमिक सत्य है कि हर मानव सभ्यता जलस्रोतों के आसपास ही पनपी हैं! यहीं से जीवन भी विकसित हुआ। जिस सभ्यता में जल प्रबंध अच्छा हुआ वहां विकास भी गतिशील रहा और उसे सार्थक माना गया। अब, यदि सरकार वास्तव में बुंदेलखंड के प्रति गंभीर है, तो उसे इस इलाके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था (प्राधिकरण) निर्मित करना होगी। बुंदेलखंड के विकास की जिम्मेदारी उसकी तासीर को समझने वालों को सौंपना ही बेहतर विकल्प होगा। यदि सरकार ये प्रयोग करना नहीं चाहती तो सबसे अच्छा यही होगा कि छत्तीसगढ़ की तरह बुंदेलखंड से भी सरकार मोह छोड़े और एक नए राज्य की नींव रख दे।
लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं।
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