पुण्य प्रसून बाजपेयी
राहुल गांधी का लालू प्रसाद यादव की तरफ हाथ बढ़ाना ,राहुल गांधी का शपथग्रहण के बीच झटके में खड़ा होना और अपने ही विरोधियों से लेकर भिन्न विचारधारा के नेताओं से भी हाथ मिलाना। चाहे वह अकाली दल के नेता हों या शिवसेना के। या फिर केजरीवाल हों, यानी ना वक्त ना मौका हाथ से जाने देना। तो क्या कांग्रेस अब बीजेपी की स्थिति में है और बीजेपी कांग्रेस की स्थिति में? यानी बीजेपी के खिलाफ देश भर के राजनीतिक दलों को एकजुट कर अपने आस्त्तिव की लड़ाई कुछ इसी तरह कांग्रेस को लड़नी पड़ रही है।
जैसे एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ खड़ी हुई वीपी सिंह सरकार को समर्थन देने के लिये बीजेपी और वामपंथी एक साथ आ गये थे। यानी पटना के गांधी मैदान ने यह साफ संकेत दे दिये कि बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता अपने—अपने राज्य में सामाजिक दायरे को बढ़ाकर बीजेपी को चुनावी जीत से रोक सकती है और केन्द्र में कांग्रेस हर राजनीतिक दल को एक साथ लाकर संसद से सड़क तक मोदी सरकार और बीजेपी के लिये मुश्किल हालात पैदा कर सकती है।

पटना के गांधी मैदान का मंच वाकई उपर से देखने पर हर किसी को लग सकता है कि मोदी के राजनीतिक विकल्प के लिये बिहार ने जमीन तैयार कर दी है। लेकिन गांधी मैदान के जुटान के भीतर की उलझी गुत्थियों को समझने के बाद यह लग सकता है कि शपथ ग्रहण के बहाने समूचे देश के नेताओं का यह जुटान इतना पोपला है कि कि जो विरोध यह सभी अपने—अपने स्तर पर करते सभी ने मिलकर उसी की हवा निकाल दी। क्योंकि इस जुटान में ना सिर्फ इनके अपने अंतरविरोध हैं बल्कि अपनी ही जमीन को भी इन नेताओं ने सरका लिया है।

मसलन, केजरीवाल और लालू की गले मिलने की तस्वीर इतिहास में दर्ज हो गई। यानी आंदोलन से लेकर दिल्ली की सत्ता पाने तक के दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जो कहानियां केजरीवाल दिल्ली और देश की जनता को सुनाते रहे उन्हें ना सिर्फ लालू के साथ गलबहियों ने खारिज कर दिया बल्कि मंच पर शीला दीक्षित, शरद पवार और हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की मौजूदगी ने तार—तार भी कर दिया । यानी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ केजरीवाल के तेवर अगर कडे दिखायी दे रहे थे तो उसके पीछे अभी तक केजरीवाल की वह ताकत थी जो उन्हें भ्रष्ट नेताओं से अलग खड़ा करती थी। लेकिन अपनी राजनीति को विचारधारा में लपेट कर अगर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे तो गांधी मैदान के मंच ने उसी विचारधारा को धो दिया जिस विचारधारा को वाकई राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था, लेकिन उसकी सियासी गूंज वैसी ही थी।

दूसरी तस्वीर ममता और वामपंथियों की एक साथ एक मंच पर मौजूदगी ने एक तरफ शारदा घोटाले की आवाज को गठजोड़ की नयी सियासत तले मान्यता दे दी। तो दूसरी तरफ यह सवाल भी खड़ा कर दिय़ा कि वामपंथी बंगाल देखें या मोदी को? ममता को संभालें या बड़े गठजोड़ के लिये सबकुछ भूल जायें? यानी अपने अस्तित्व का संघर्ष और मोदी सरकार से टकराव दोनों अगर आपस में टकरा रहे हैं तो फिर रास्ता दिल्ली की तरफ कैसे जायेगा?
वहीं असम में कांग्रेस और डेमोक्रेटिक फ्रंट के बदरुद्दीन अजमल मंच पर एक साथ थे तो असम की राजनीति में दोनों एक साथ कैसे आ सकते हैं? यानी असम में अपने आस्त्तिव को मिटाकर कांग्रेस के साथ मोदी को ठिकाने लगाने के लिये बदरुद्दीन अजमल क्यों आयेंगे यह भी दूर की गोटी है? फिर शिवसेना और अकाली के नेताओं की मौजूदगी मोदी सरकार को हड़का तो सकती है लेकिन शिवसेना कांग्रेस के साथ कभी आ नहीं आ सकती और अकाली दल बीजेपी का साथ छोड़ नहीं सकता क्योंकि 1984 के दंगे बार—बार कांग्रेस के खिलाफ सियासी हवा को तीखा बनाते हैं। तो फिर मोदी के खिलाफ दोनों कांग्रेस या नये गठबंधन में कैसी और किस तरह की भूमिका निभायेगें यह भी दूर की गोटी है? और आखरी सवाल जो इस मंच पर नहीं दिखा वह है मुलायम मायावती का मंच से दूर रहना । जबकि बिहार के बाद आने वाले वक्त में सारी राजनीति यूपी में ही खेली जायेगी और जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ दोनो हैं या दोनों ही सत्तानुकूल होकर एक दूसरे के खिलाफ रहते हैं उसमें ना तो काग्रेस का साथ फिट बैठता है और ना ही मोदी का विरोध ।
और यहीं से यह सवाल बड़ा होता है कि 2014 के लोकसभा के जनादेश के बाद जब दिल्ली विधानसभा में बीजेपी तीन सीट पर सिमट गई तब राजनीतिक व्यवस्था के विकल्प की सोच लोगों की भावनाओं के साथ जुड़ी थी और बिहार के जनादेश ने चुनावी जीत के रथ को रोक कर अजेय होते मोदी को घूल चटा दी। लेकिन भारतीय राजनीति का असल जबाब फिर उसी सिरे को पकड़ कर ठहाका लगाने लगा जहां एक तरफ दुनियां की नजर बिहार पर थी और सरकार बनने पर जो निकला वह सिर्फ लालू के वंश की सियासत ही नहीं बल्कि वह फेहरिस्त निकली जहां देश को चुनावी जीत के रास्ते जाना किधर है यह भी घने अंधेरे में समाने लगा। क्योंकि उपमुख्यमंत्री - नौवीं फेल तो स्वास्थ्य, सियाई और पर्यावरण मंत्री 12 पास है। वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री,ग्रामीण विकास मंत्री भी बारहवीं पास हैं। तो पंचायती राज मंत्री मैट्रिक पास भी नहीं कृषि मंत्री मैट्रिक पास है। और इन सभी के पास एसयूवी गाडियां जरुर हैं।
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