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घाटी में भाजपा की मुसीबत बना पीडीपी गठबंधन

खरी-खरी            Mar 10, 2015


सिद्धार्थ शंकर गौतम जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार जिस कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत बनी थी, अब उसमें बहुत से झोल नज़र आ रहे हैं। पहले मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का पाकिस्तान समर्थित आतंकियों, अलगाववादियों के पक्ष में विवादित बयान, फिर मंत्रालय के बंटवारे को लेकर भाजपा-पीडीपी में रार, उसके बाद पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन की स्वयं के मंत्रालय को लेकर नाराजगी और अब अलगाववादी नेता मसरत आलम की रिहाई ने भाजपा के लिए मुसीबतों का अंबार लगा दिया। अलगाववादी नेता मसरत आलम की रिहाई को लेकर मुफ़्ती सरकार की बेचैनी और जल्दबाजी को ऐसे समझा जा सकता है कि मंत्रालय में छुट्टी के दिन भी इस मामले से जुड़े अधिकारी काम करते आए। दरअसल घाटी में २०१० के हिंसक प्रदर्शनों के सूत्रधार रहे मसर्रत आलम को कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी का ख़ास समर्थक माना जाता है। अलगाववादी नेता आलम पर २०१० में संगीन आरोप लगे थे जिसमें देश के खिलाफ युद्ध छेड़ना और साजिश रचने जैसे धाराएं लगी थीं। आलम पर धाराएं १२०, १२१, १२०बी और ३०७ लगाई गईं थीं। उमर सरकार ने आलम को उस दौर के कठिन हालात के मद्देनज़र गिरफ्तार किया था। घाटी में २०१० में हुए हिंसक प्रदर्शनों में तकरीबन १२० लोग मारे गए थे और यह हिंसक प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा था। आलम की रिहाई ने मुफ़्ती को भले ही अलगाववादियों की नज़र में उठा दिया हो किन्तु भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ज़रूर इस कदम से असहज हो गया है। देखा जाए तो मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने आलम की रिहाई से एक तीर से दो निशाने साधे हैं। अव्वल तो भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में जाने के फैसले से जो कश्मीरी उनसे नाराज़ थे, उनकी नाराजगी कम हुई है, दूसरे मुफ़्ती ने आलम की राजनीतिक रिहाई करवाकर कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी की ओर बातचीत का हाथ बढ़ाया है। आलम की रिहाई को आप किसी भी रूप में सामान्य नहीं कह सकते हैं। यह मुफ़्ती का दिमाग ही था कि उन्होंने हर पहलु को देखते हुए उसकी रिहाई करवाई वरना यदि यही रिहाई अदालत के आदेश होती तो कश्मीर पुलिस के लिए मुस्लिम कांफ्रेंस के चेयरमैन आलम को दोबारा गिरफ्तार करना कोई बड़ी बात नहीं थी। घाटी के कई थानों में दर्ज मामलों में आलम वांछित है और उसका बाहर रहना घाटी में विधि व्यवस्था का संकट पैदा कर सकता है किन्तु मुफ़्ती ने इस राजनीतिक रिहाई से यह साबित कर दिया है कि वे न तो फैसलों के लिए भाजपा की ओर ताकेंगे और न ही भाजपा से डरेंगे। मसर्रत आलम की रिहाई से हुर्रियत के उदारवादी खेमे पर भी नई दिल्ली से बातचीत की कवायद जल्द से जल्द शुरू करने का दबाव बनेगा। हालांकि मुफ़्ती की इस कवायद ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को झकझोर दिया है। वह किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से कतरा रहा है। उधर संघ परिवार का भी मानना है कि आलम ही रिहाई ने भाजपा को जम्मू-कश्मीर सरकार में अपनी स्थिति पर सोचने और सख्त कदम उठाने पर मजबूर किया है। संघ के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइजर' में प्रकाशित एक लेख के जरिए भाजपा से कहा है कि वह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद से पूछे कि वह भारतीय हैं या नहीं? संघ ने कहा कि मुफ्ती दोहरे मानदंड के साथ नहीं रह सकते। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह ने भाजपा को विस्थापित हिंदुओं और सिखों की याद दिलाते हुए उससे कई जवाब मांगे हैं। वहीं भाजपा की अहम सहयोगी शिव सेना ने तो बाकायदा मुफ़्ती को गीदड़ की औलाद कहते हुए भाजपा को कटघरे में लिया है। सेना ने अनुच्छेद ३७० पर भी भाजपा के पीछे हटने का आरोप लगाया है। कुल मिलाकर मुफ़्ती के कारण भाजपा बैकफुट पर है और अमित शाह, राम माधव जैसे दिग्गजों की कश्मीर के विषय में नीति फेल होती दिख रही है। हालांकि इस मुद्दे पर अभी प्रधानमंत्री मोदी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है लिहाजा अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, पर हां जिस तरह से संघ परिवार इस मुद्दे पर आगे आया है उससे लगता है कि जम्मू-कश्मीर के विषय में कोई न कोई कठोर निर्णय ले ही लिया जाएगा।


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