Breaking News
Mon, 19 May 2025

जीना मुहाल जंगलवासियों का:बेखौफ वन विभाग और बेबस आदिवासी

खरी-खरी            Aug 12, 2015


sandip-naik-article संदीप नाईक आजाद भारत में क़ानून किस तरह से आम लोगों को परेशान करते हैं, इसका एक ज्वलंत उदाहरण मप्र के पन्ना में नजर आ रहा है जहां वन विभाग एकदम छुट्टा होकर गरीब आदिवासियों पर आक्रामक हो चुका है। पत्थर खदान मजदूर संघ के युसूफ बेग ने बताया कि पन्ना के ग्राम बहेरा ग्राम पंचायत के निवासियों को वन विभाग के अधिकारियों ने जबरन बाहर निकालने के लिए महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के साथ अनधिकृत रूप से मारपीट की। इस गाँव में ये आदिवासी सन 1965 से काबिज है। इन लोगों ने 28 अगस्त 2008 को वन अधिकार अधिनियम के तहत पट्टे के लिए 13 दावे किये थे जिनका निराकरण आज तक नहीं हुआ। यह हालत मप्र के अधिकाँश जिलों की है और लाखों प्रकरण प्रदेश की लालफीताशाही में उलझे पड़े है। बहेरा में बाद में 24 अन्य आदिवासियों ने दावे प्रस्तुत किये परन्तु कोई कार्यवाही नहीं हुई। ये आदिवासी गत 40 बरसों से यहाँ काबिज है और इन्हें तत्कालीन कलेक्टर ने मौखिक आश्वासन दिया था कि चूँकि वे लम्बे समय से वहाँ का​बिज है तो रह सकते है परन्तु वन विभाग के अमले द्वारा समय समय पर इन गरीब आदिवासियों को परेशान किया जाता रहा है। गत 7 अगस्त को तो हद हो गयी जब बीट प्रभारी जगदीश शर्मा और डिप्टी रेंजर वाजपेयी और रेंजर ने गाँव में हमला बोला और झोपड़ियां गिराने लगे, सामान उड़नदस्ते द्वारा लाई गयी गाडी में भरने लगे और जब लोगों ने विरोध किया तो भद्दी गालियाँ दी और महिलाओं के साथ अभद्रता की, मारपीट की। गाँव से इन आदिवासियों का सारा सामान उठाकर पन्ना बस स्टेंड पर लाकर फेंक दिया। इसके बाद सारे लोग कलेक्टर से मिले कलेक्टर ने 10 अगस्त को मिलने को कहा और जब ये पुनः मिले तो कलेक्टर, पन्ना ने कहा कि जमीन खाली करना होगी। यह हालात प्रदेश ही नहीं वरन पूरे देश में पिछले दिनों में बहुत तेजी से बढे हैं, जब सदियों से जंगलों में रह रहे आदिवासियों के लिए विस्थापन का रास्ता सरकारों ने खोला है। सारे नॅशनल पार्क अब स्थाई समस्या बन गए है। कान्हा का नॅशनल पार्क हो, गढ़ी बालाघाट का रिजर्व पार्क हो या माधव नेशनल पार्क, शिवपुरी का पार्क या छग में या कही और- सब जगह स्थाई रूप से रहने वाले आदिवासियों को गत पचास वर्षों से निष्कासित कर हकाला जा रहा है। आखिर इसका स्थाई हल क्या है। उमरिया, अनूपपुर और बांधवगढ़ के स्थाई बाशिंदे भी इन राष्ट्रीय महत्त्व के पार्कों को एक अभिशाप मानते हैं। इसका दूसरा असर भी जबरजस्त पडा है। नए वन कानूनों ने यद्यपि आदिवासियों को जंगल का हिस्सा मानते हुए लघु वनोपज लाने की छूट दी है परन्तु वास्तव में आदिवासियों को अब जंगल में जाना तो दूर उस ओर ताकना भी भारी पड़ सकता है। इस वजह से वे लघु वनोपज को अपनी थाली से गायब पाते हैं फलस्वरूप कुपोषण बहुत ज्यादा बढ़ा है। यदि उनकी गाय या भैंस जंगल में घास चरते पाई गयी तो उन पर पांच हजार रुपयों का जुर्माना लगाया जा रहा है। पन्ना जिले के ग्राम मनोरा में शुन्नू और कमलेश को जंगल के तालाब से 100 ग्राम की खडिया मछली पकड़ने पर छः माह तक जेल में बंद कर दिया गया। बालाघाट के ग्राम राम्हेपुर के सरपंच गत सात बरसों से कोर्ट में मुकदमा लड़ रहे हैं । क्योंकि उनकी भैंस जंगल में घुस गयी थी मानो भैंस पढी लिखी हो, एक सरपंच को सात दिन तक इस अपराध के लिए जेल में बंद कर दिया गया था अब बताईये कि वन क़ानून लोगों के फायदे के लिए बने है या लोग क़ानून के लिए। वन विभाग के अधिकारियों के दिमाग में यह भ्रम है कि आदिवासी लकड़ी काटते हैं और जानवर मारते हैं। वे शायद यह भूल जाते है कि जितना जंगल आज बचा है वह सिर्फ और सिर्फ आदिवासियों के कारण ही बचा हुआ है वरना लकड़ी चोरी और शेरों की खाल या हाथी दांत के व्यापारी कौन है, यह अलग से बताने की जरुरत नहीं है। बहरहाल, पन्ना का यह उदाहरण बताता है कि किस तरह से लोकतंत्र में आम आदमी को परेशान किया जा रहा है और अडानी, जिंदल, अम्बानी या बड़े उद्योगपतियों को छत्तीसगढ़ या मप्र में ही बड़े जंगल दिये जा रहे हैं।अभी दो दिन पहले इन आदिवासियों ने एसपी, पन्ना को वन विभाग के अमले के खिलाफ एफ आई आर दर्ज करने का आवेदन दिया है। आजादी के इतने बरसों बाद और आजादी की साल गिरह के एक हफ्ते पहले मिला यह तोहफा निश्चित ही हमारी तरक्की की कहानी बयान करता है। संदीप नाईक के फेसबुक वॉल से


इस खबर को शेयर करें


Comments