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जूता भले गिर गया,सवाल हवा में टंगा है,जवाब उधार है

खरी-खरी            Apr 13, 2016


Kumar-Prashantकुमार प्रशांत। फिर एक जूता सवाल बन कर हवा में उछला ! निशाने पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल थे। जूता लगा या नहीं यह बड़ा सवाल नहीं है। जूता चला यह बड़ा सवाल है। हवा में उछाला गया हर जूता एक सवाल है जिसका जवाब न तो मार-कुटाई है, न पुलिस-मुकदमा है और न विपक्ष के षड्यंत्र का फतवा ! उसका जवाब जूता फेंकने वाले को अपनी पार्टी का टिकट देना भी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हवा में उछाले गये किसी एक जूते का भी जवाब समाज को बताया जाए। ऐसा एक जवाब भी आ जाए तो अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से ले कर अरविंद केजरीवाल तक की तरफ उछाला गया जूता धरती पर आ लगेगा। जूता उछाले वालों को मेरा पहला जवाब यह है कि अरविंद केजरीवाल से हमारे चाहे जितने मतभेद हों, वे आज देश के सबसे अच्छे मुख्यमंत्री हैं जो देश की सबसे अच्छी सरकार चला रहे हैं। उनकी तरफ जूता उछालना जूते बराबर भी अक्ल न रखने जैसा है। देश में कैसे-कैसे मुख्यमंत्री हैं और वे कैसी-कैसी सरकारें चला रहे हैं इसे यदि हम देख सकेंगे तो अरविंद केजरीवाल के बारे में मेरे कथन का मतलब समझना आसान हो जाएगा और फिर यह भी ध्यान में रखने जैसी बात है कि अरविंद जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं और वे जो सरकार चला रहे हैं, वह देश की सबसे लंगड़ी या विकलांग ( दिव्यांग ?? ) सरकार है। इस कसौटी पर जब मैं आम आदमी पार्टी की इस इकलौती सरकार को कसता हूं तो इसे देश की सबसे अव्वल सरकार कहने से हिचकता नहीं हूं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि जो जूता उनकी तरफ उछला उसका जवाब देने की जरूरत नहीं है। वह जूता भले गिर गया, उसने जो पूछा वह सवाल हवा में टंगा है। उसका जवाब ‘आप’पर ठीक वैसे ही उधार है जैसे चिदंबरम साहब पर उछले जूते का या शरद पवार पर चले तमाचे का जवाब उधार है। कई लोग उधार चुकाते नहीं हैं लेकिन उससे उधार सध नहीं जाता है, नये जूते के रूप में उभर आता है। सम-विषम का दिल्ली सरकार का प्रयोग कितना सफल-असफल रहा, इससे बड़ी बात यह है कि प्रदूषण, ट्रेफिक जाम, तेल खर्चने की अंधाधुंध आपाधापी पर और इन सबका हम पर और हमारे बच्चों पर जैसा जहरीला असर हो रहा है, उस दिशा में यह ऐसी पहल है जैसी पहल देश की दूसरी किसी सरकार ने की ही नहीं। सरकारें किसी प्राणहीन मशीनरी की तरह कानून बना देती हैं और उसकी सफलता-विफलता उससे भी प्राणहीन नौकरशाही के भरोसे छोड़ देती हैं। लेकिन सम-विषम की घोषणा के साथ ही इस सरकार ने जिस तरह इसे अपने नागरिकों का आंदोलन बनाने की कोशिश की, मंत्रियों आदि ने खुद भी इस समीकरण का पालन किया, सड़कों पर स्कूल-कॉलेज के बच्चों को नागरिक की भूमिका में आने दिया, दिल्ली के बड़े-छोटे सबने इसकी सफलता में अपना योगदान दिया, यह सब नया अनुभव था। होना तो यह चाहिए था कि इस पहले प्रयोग का पूरा अनुभव, उसका परिणाम, उस बारे में विशेषज्ञों की राय आदि सबका पूरा अहवाल दिल्ली व देश के सामने रखा जाता। ऐसा होता तो अच्छा होता लेकिन पता नहीं क्यों और किस योजना से इसे एक पोशीदा प्रयोग में बदल दिया गया। यहां से इस पूरे परिदृश्य में जूते का प्रवेश होता है। यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि यह सारा तंत्र भ्रष्टाचार के ईंधन पर चलता-रेंगता है। सन् 74 में जयप्रकाश नारायण ने यह रहस्य आम कर दिया था कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री ऊपर से नीचे उतरती है ! उसे थामना हो तो झाड़ू ऊपर चलानी होगी. दिल्ली सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है। पहली बार, जब कुछ दिनों की सत्ता मिली थी और इस बार जब बड़े बहुमत से सत्ता मिली है, अरविंद के विधायक दूसरे विधायकों से अलग साबित नहीं हुए हैं। भ्रष्टाचार, पदलोलुपता, पद-मद आदि किसी भी क्षेत्र में वे किसी से कम नहीं। उनका कोई कहता है कि भ्रष्टाचार का प्रमाण मिलने पर अरविंदजी ने अपने मंत्री को हटाया है। अगर यह कसौटी है तो इस देश के सबसे निपुण प्रधानमंत्री का नाम मनमोहन सिंह बताना होगा क्योंकि उन्होंने तो अपने खास मंत्रियों को जेल तक जाने दिया और खुद भी कोयला खदानों तक पहुंचे। इसलिए हम समझें कि भ्रष्टाचार का जैसा घटाटोप है, भ्रष्ट्राचारियों की जैसी मजबूत सांठगांठ है और सत्ता व पैसा ही जिस तरह भगवान बना दिया गया है, उसमें लोगों में सरकार की मंशा, कानूनी के पीछे की ईमानदारी, नौकरशाही की संवेदना आदि पर गहरे अविश्वास, शंका के पर्याप्त आधार हैं और उसे हर जगह अपशकुन दिखाई देता है – फिर वह आईपीएल हो या रक्षा सौदा ! शिकायत पहले प्रयोग के वक्त ही आई थी कि सीएनजी स्टिकरों की कालाबाजारी हो रही है. कई अखबारों-चैनलों ने बाजाप्ता प्रमाण दिए थे। नंबर प्लेटें आसानी से बिक रही थीं और बदली जा रही थीं। ऐसे व्यापक प्रयोग में, जिसका अनुभव सरकार को भी नहीं था, यह सब होना अनहोनी तो नहीं था। सबने इसे सरकार के सीखने का अवसर मान कर चला लिया। लेकिन पहला दौर समाप्त होते ही जैसे सारे मामले पर्दे के पीछे चले गये और कहीं से कोई सफाई नहीं आई तो शंका बनी। बताना था सरकार को सीएनजी के स्टिकर कितने बंटे, दिल्ली में कितनी गाड़ियों के पास सीएनजी का लाइसेंस है, क्या सम-विषम के पहले प्रयोग के दौर में ऐसी गाड़ियों की संख्या अचानक बढ़ गई, झूठे नंबर प्लेट बेचते और लगाते कितने लोग पकड़े गये, उन पर क्या कार्रवाई हुई आदि। प्रदूषण के स्तर पर क्या प्रभाव पड़ा, तेल की खपत में कितनी बचत हुई इसके साफ आंकड़े आते। हमें यह देखने को क्यों नहीं मिला कि सम-विषम की यह नीति ही यदि भविष्य का ढांचा है, तो अरविंद-सरकार अपने स्तर पर तो उसका पालन लगातार कर रही है ? सरकार को सम-विषम का लगातार पालन करते लोग देखते तो सरकार की हालत इतनी विषम नहीं होती। लेकिन दिखा यह कि आस्था नहीं, सत्ता बनाए रखने की रणनीति के स्तर पर ही यह काम हुआ। यह बात कई हलकों से आई कि आम आदमी पार्टी इस रास्ते फंड जमा कर रही है। कौन अविश्वास करेगा इस पर ? लाइसेंस-कोटा बेचने से ले कर अपनी पार्टी का टिकट बेचने तक, विदेश की नामालूम कंपनियों से दान की फर्जी स्वीकृति तक जो दलीय लोकतंत्र पहुंचा है, वह यहां भी वही खेल खेल रहा हो तो कैसे करे कोई अविश्वास ? पहले प्रयोग में ही यह सब गंदगी सतह पर आ चुकी थी। सरकार को अपने सारे पत्ते खोल देने थे कि वह पिछले अनुभव से क्या सीखी है और नया क्या-क्या करने जा रही है कि पिछली कमजोरियां दूर हों, उसने ऐसा कुछ नहीं किया। किया हो किसी को बताया नहीं। अपने मतदाताओं से अपनी परेशानियां बांटने से सत्ता कमजोर नहीं होती है, विश्वसनीय बनती है, यह बुनियादी पाठ भी सत्ता ने न पढ़ा है, न स्वीकार किया है। वह स्टिंग, जिसकी सीडी उस रोज जूते से पहले उछली थी, और काफी पहले से यहां-वहां घूम रही थी, उसमें क्या था ? वह जाली थी ? तो जेएनयू के देशविरोधी नारों की नकली सीडी की तरह उसे जाली प्रमाणित किया जा सकता था और अरविंदजी की उस प्रेस-कांफ्रेंस में वही खुलासा हो सकता था। आम सभाओं और प्रेस-कांफ्रेसों में ऐसे खुलासे कर-कर के ही आम आदमी पार्टी ने अपना चेहरा संवारा था ! ऐसा क्यों होता है कि सत्ता में आने के लिए आप जिस चेहरे का इस्तेमाल करते हैं, सत्ता में पहुंचते ही वह मुखौटा ( जुमला ! ) साबित होने लगता है ? लेखक प्रख्यात स्तंभकार व गांधीवादी कार्यकर्ता हैं। हस्तक्षेप


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