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नई नवेली सरकार को सर्वे की जरूरत क्यों पड़ गई?

खरी-खरी            Jan 28, 2016


ममता यादव सरकार बने दो साल भी नहीं हुये और सर्वे होने लगे। सवाल लाख टके का ये कि अभी सर्वे की जरूरत क्यों पड़ गई? ये अपना अंदाजा है किसी को बुरा भी लग सकता है क्या खुद सरकार को यह समझ आ रहा है उसकी छवि बहुत ज्यादा अच्छी नहीं बन रही जनता के दिमाग में। आप लाख भरमा लें मन की बातों से जनता को? लाख मीडिया को खरीदकर इमेज बिल्डिंग वाले संपादकों को अपना मैनेजर बनाकर उन्हें जैसे चाहे नचायें लेकिन जनता मूर्ख नहीं ​है। जब उसके सब्र का पैमाना छलकने लगता है तो सारे सर्वे धरे रह जाते हैं। आप पूर्ण डिजीटलाईजेशन की बात करते हैं आपके पास अपने सर्वर तक नहीं हैं। किस भारतीय का डाटा आज की तारीख में सुरक्षित है यह सवाल उठे तो जवाब ढूढ़ना मुश्किल हो जायेगा। राशन की दुकानों को कंप्यूटराईज्ड करने की कवायद शुरू हो गई है कहा जा रहा है कि अब घर के मुखिया के पाम इंप्रेशन मैच करेगा तभी राशन मिलेगा। जनता का पैसा लेकर उसे ही वापस भेजा जा रहा है सब्सिडी के रूप में वह भी कईयों के खाते में जा ही नहीं रहा। जरा सोचिये दूरदराज के गांवों में जहां नेटवर्क तक नहीं मिल पाता वहां के मजदूर टाईप रोज कमाने—खाने वाले लोग क्या करेंगे? जरूरी तो नहीं हर राशनकार्ड का मुखिया ही राशन लेने जायें। और भी कई ऐसी कवायदें हो रही हैं जो जमीनी व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर अंजाम नहीं दी जा रहीं। विदेशों में कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही हैं और हमारे यहां हर महीने पेट्रोल—डीजल के दाम बढ़ रहे हैं। महंगाई इतनी कि दाल—रोटी चल रही है कहना अब गुजरे जमाने की बात लगने लगी है। रूपये की हालत भी किसी से छुपी नहीें है। अगर एसी कमरों से बाहर आकर और चार पहिया से नीचे उतर कर उस इंसान से बात करें जिसे आम आदमी कहा जाता है तो पता चलेगा कि असल में जनता परेशान कितनी हो रही है? और उसमें कितना गुस्सा अंदर ही अंदर पनप रहा है? coruption-cartoon योजनायें बन रही हैं मगर जमीनी व्यवहारिकता का ध्यान नहीं रखा जा रहा उनमें। शुद्ध बुंदेलखंडी में बोलें तो अब आम महिलायें जिन्हें नहीं समझ आता कि क्या भाजपा क्या कांग्रेस जिन्हें सिर्फ ये पता है कि उन्होंने वोट दिया है इसलिये मोदी पीएम बने तो वे अब सरकार को गरियाने और ठठियारने लगी हैं। बिहार चुनाव के बाद बिहार की जनता को भी गालियां दी गई हैं फिर अपन तो हमेशा जनता यानी आम आदमी की ही बात करते हैं। अब आम आदमी की बात करने वाले को बेवकूफ कहा जाता है। स्मार्ट बनने जा रहे शहरों में शायद जगह भी स्मार्ट यानी अमीर कारपोरेट को ही मिलेगी। क्योंकि एक अघोषित नीति चल रही है कारपोरेट से प्यार जनता की जेब पर वार। और आम आदमी से जब तक आप जमीनी स्तर पर नहीं जुडेंगे उसकी समस्याओं को महसूस नहीं करेंगे पत्रकारिता भी नहीं हो सकती। दुर्भाग्य से अब यह भी एसी कल्चर की आदी और भाटचारणी हो गई है। सो स्मार्ट सिटी के बीच में आम आदमी कहां है और क्या जगह मिलेगी उसको? या फिर उसे आदत डालनी होगी यूं ही कसमसाते हुये मन में सिस्टम और सरकारों को गरियाते हुये जीने की? या फिर यही निष्कर्ष निकाला जाये कि अपनी नकारात्क छवि को सकारात्मक बनाकर पेश करने के लिये महज डेढ़ साल पुरानी सरकार को अधबीच से भी कम समय में सर्वे कराने की जरूरत पड़ गई। वैसे भी पिछले कुछ दशकों का इतिहास गवाह रहा है कि सरकारें जिसकी भी रही हों सर्वे उसकी के पक्ष में होते हैं पर असल परिणाम तो जनता ही दिखाती है।


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