योजनायें बन रही हैं मगर जमीनी व्यवहारिकता का ध्यान नहीं रखा जा रहा उनमें। शुद्ध बुंदेलखंडी में बोलें तो अब आम महिलायें जिन्हें नहीं समझ आता कि क्या भाजपा क्या कांग्रेस जिन्हें सिर्फ ये पता है कि उन्होंने वोट दिया है इसलिये मोदी पीएम बने तो वे अब सरकार को गरियाने और ठठियारने लगी हैं।
बिहार चुनाव के बाद बिहार की जनता को भी गालियां दी गई हैं फिर अपन तो हमेशा जनता यानी आम आदमी की ही बात करते हैं। अब आम आदमी की बात करने वाले को बेवकूफ कहा जाता है। स्मार्ट बनने जा रहे शहरों में शायद जगह भी स्मार्ट यानी अमीर कारपोरेट को ही मिलेगी। क्योंकि एक अघोषित नीति चल रही है कारपोरेट से प्यार जनता की जेब पर वार।
और आम आदमी से जब तक आप जमीनी स्तर पर नहीं जुडेंगे उसकी समस्याओं को महसूस नहीं करेंगे पत्रकारिता भी नहीं हो सकती। दुर्भाग्य से अब यह भी एसी कल्चर की आदी और भाटचारणी हो गई है। सो स्मार्ट सिटी के बीच में आम आदमी कहां है और क्या जगह मिलेगी उसको? या फिर उसे आदत डालनी होगी यूं ही कसमसाते हुये मन में सिस्टम और सरकारों को गरियाते हुये जीने की?
या फिर यही निष्कर्ष निकाला जाये कि अपनी नकारात्क छवि को सकारात्मक बनाकर पेश करने के लिये महज डेढ़ साल पुरानी सरकार को अधबीच से भी कम समय में सर्वे कराने की जरूरत पड़ गई। वैसे भी पिछले कुछ दशकों का इतिहास गवाह रहा है कि सरकारें जिसकी भी रही हों सर्वे उसकी के पक्ष में होते हैं पर असल परिणाम तो जनता ही दिखाती है।
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