मनोज कुमार
हाल ही में एक गांव में जाना हुआ। कोई 2-3 हजार लोगों की आबादी। तकलीफें भी कोई अलग नहीं थी। पीने के पानी की समस्या, अस्पताल नहीं, स्कूलों में मास्टर नदारद और सड़क के नाम पर एक पतली सी पगडंडी। सब कुछ भारत के दूसरे गांवों की तरह इस गांव का रहन-सहन और बर्ताव था। बर्ताव से मेरा मतलब वही परम्परागत रूढ़ियां। जैसे छोटी जाति का आदमी पानी नहीं पिला सकता और न ही वह बराबरी से बैठ सकता है। विकास के इस युग में यह परम्परा मन को आहत करती है।
मेरे लिए किसी समाज का अवगुण था लेकिन इससे इतर भी मैं कुछ और तलाश कर रहा था। जो मैंने देखा वह हैरान करने वाला था। यह हैरान करने वाला सबब मेरे लिए ही नहीं बल्कि उन सबके लिए था जो मानते हैं कि नशा समाज को नुकसान पहुंचाता है। नशा समाज को नुकसान पहुंचाता है, इस बात से कोई असहमत नहीं होगा लेकिन नशे का समाजवाद हो सकता है, यह आपको सोच में डाल सकता है। यह एक ऐसा सवाल खड़ा करता है कि क्या ऐसा भी होता है?
जी हां, जिस गांव में छोटी जाति के आदमी को बराबरी में बैठने का हक न हो और जिस आदमी के हाथों का पानी पीना तथाकथित उच्च जाति के लोगों का धर्म नष्ट करता हो, उस गांव में नशा कैसे समाजवाद का सबब बनेगा? लेकिन आपकी धारणा के विपरीत ऐसा हो रहा है क्योंकि नशे का समाजवाद अपनी तरह की अवधारणा है। इस समाजवाद में छोटा-बड़ा, धनिक-गरीब, जात-पात कोई मायने नहीं रखता है। किसी के हाथ से बनायी गई खैनी, कोई भी खा सकता है। ज्यादतर समय तो इसमें कोई भुगतान करना भी नहीं पड़ता है। देने वाला भी खुश और खाने वाला भी।
कुछ इसी तरह का मसला नशे के दूसरे पदार्थों को लेकर है जैसे एक के मंुह पर लगा सिगरेट पीने या अपनी सिगरेट जलाने से दूसरे को किसी किसी तरह की आपत्ति नहीं। सबसे मजे की बात नशे के इस समाजवाद में कोई किसी को धन्यवाद नहीं कहता है और न ही शुक्रिया कहने की औपचारिकता पूरी करता है।

नशे के समाजवाद का यह अजब रिवाज समाज के लिए कोई शुचिता का कोई कारण नहीं और न ही इस समाजवाद को विस्तार दिया जाना चाहिए। नशा हमारे समाज को ही नहीं, खासतौर पर युवा पीढ़ी के लिए खतरनाक है। नशे में डूबा युवावर्ग दीन-दुनियां से कट जाता है। वह गैर-जिम्मेदार हो जाता है और उसकी यही गैर-जिम्मेदारी आगे चलकर कुंठा में बदल जाती है। एक कुंठित युवा देश की तो छोड़िए, खुद के बारे में भी ठीक से नहीं सोच पाता है। ऐसेे में नशे की इस घातक प्रवृत्ति से मुक्त कराने का समय आ गया है।
जो लोग नशे के कथित समाजवाद के पक्षधर हैं, उन्हें इस बात से चेत जाना चाहिए कि यही नशा एक दिन उनके घर के लिए भी होगा जानलेवा। तंत्र का नशे के खिलाफ खड़े होना, बड़ी बात है लेकिन वह भी सवालों से घिरी है। शराब, सिगरेट और ऐसे ही पदार्थों से सरकार को इफराद राजस्व मिलता है। ऐसे में भी सरकार कदाचित सामाजिक जवाबदारी को लेकर समय-समय पर सक्रिय होती रही है।
हाल ही में दिल्ली सरकार की बात मानकर सनी लियोनी ने पान मसाला का विज्ञापन न करने के लिए अपनी सहमति जाहिर की है तो बच्चों और किषोरों को नषे से दूर रखने के लिए मध्यप्रदेष सरकार खुली सिगरेट बेचने के खिलाफ एक्षन की तैयारी में है। नषे खिलाफ यह सरकारी कदम उम्मीद तो जगाती है लेकिन पुराना अनुभव रहा है कि सरकारी प्रयास हमेषा से विफल रहे हैं।
लाख कोशिशों के बाद भी आज तक बालश्रम खत्म नहीं किया जा सका है, बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रहे हैं। इस तरह की एक नहीं कई-कई समस्याएं हैं जिनका हल सरकारी प्रयासों से नहीं हो सकता है और ना ही हुआ है। समाज की सूरत समाज की कोशिशों से बदलती है और नशमुक्त समाज के निर्माण के लिए सरकारी पहल जितनी जरूरी है, उससे कहीं अधिक जरूरी है समाज का इस दिशा में सक्रिय हो जाना। नशा मुक्ति केन्द्रों की हालत किसी से छिपी नहीं है।
आर्थिक लाभ के लिए नशमुक्ति केन्द्रों का संचालन करते हैं, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है। हालांकि यह कहना भी अनुचित होगा कि सारे के हाल ऐसे ही हैं लेकिन सच यही है कि ज्यादतर इस लोभ के शिकार हैं। इसके साथ ही कागजों का पेट भरे जाने का बंधन भी कई बार सार्थक कामों के रास्ते में बाधक बनता है। बावजूद इसके कि हमें यह मानना होगा कि नशे के खिलाफ एकजुटता ही समाज को, युवापीढ़ी को बर्बादी के रास्ते पर जाने से रोक सकती है।
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