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ना फंसें इसमें कि नेहरु-पटेल हैं किसके?

खरी-खरी            Nov 15, 2015


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून वाजपेयी दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में आज कांग्रेस नेहरु की 125 वी जयंती के अपने सालाना जलसे का पर्दा गिरायेगी जो उसने साल भर पहले 14 नवंबर को ही नेहरु की 125 जयंती की शुरुआत यह कहकर की थी कि धर्मनिरपेक्षता और नेहरुवाद का जश्न साल भर मनाया जायेगा । याद किजिये तो साल भर पहले नेहरु की 125 वीं जयंती की शुरुआत करते वक्त कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी को ही यह कहकर निमंत्रण नहीं दिया था कि समारोह में सिर्फ सेक्यूलर लोगों को बुलाया जाता है। यूं आज नेहरु जंयती का समापन दिल्ली के नेहरु पार्क में संगीत के साथ होगा, लेकिन साल भर पहले 125 वी जयंती के साथ ही जो सियासी संगीत नेहरु के पक्ष-विपक्ष को लेकर शुरु हुआ उसने बरस भर में इतनी कटुता नेहरु के नाम पर ही कांग्रेस और मोदी सरकार के रवैये से भर दी कि यह सवाल समाज के भीतर भी उठने लगे कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी नेहरु के खिलाफ क्यों हैं? या फिर कांग्रेस ने नेहरु को अपनी संपत्ति क्यों बना लिया है? इतिहास को अपने पक्ष में समेटने की होड़ इससे पहले कभी दिखायी नहीं दी । असर इसी का हुआ कि बरस भर के भीतर प्रधानमंत्री मोदी ने इसके संकेत दे दिये कि नेहरु से बेहतर तो सरदार पटेल होते अगर वह देश के पहले पीएम बना दिये जाते। तो क्या नेहरु कांग्रेस के है और पटेल बीजेपी के हो गये। यानी यह सच हाशिये पर चला गया कि नेहरु हों या पटेल दोनो भारत के हैं। दोनों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। दोनों ने महात्मा गांधी को ही गुरु माना। लेकिन सियासी धार ही मौजूदा वक्त में इतनी पैनी हो चुकी है कि इतिहास को भी अपने अनुकूल करने या खारिज कर अपने अनुकुल करने वाले हालात लगातार पैदा हो चले हैं और इस कड़ी में नेहरु म्यूजियम में भी बदलाव है। तीन मूर्ति लाइब्रेरी तक को नये तरीके से चमकाने की जरुरत लगने लगी है। स्टांप पेपर से नेहरु गायब हो चले हैं। झटके में श्यामाप्रासद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय उसी राष्ट्रीय फलक पर छाने लगे हैं जिस फलक पर नेहरु-पटेल का जिक्र कभी साथ साथ होता रहा। पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा गुजरात में बनाना प्रधानमंत्री मोदी के मिशन से जा जुड़ा। तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या इतिहास को भी आईना दिखा कर व्यवस्था को अपने अनुकुल बनाने वाले हालात देश में बन रहे हैं? nehru-gandhi-sardar या फिर आजादी के 68 बरस बाद पुनर्विचार की जरुरत आन पड़ी है कि आजादी और अब के हालात का मूल्यांकन होना चाहिये? लेकिन मूल्यांकन न तो कांग्रेस बीजेपी के राजनीतिक टकराव को लेकर हो सकता है ना ही संघ परिवार या हिन्दुत्व के दायरे में। मूल्यांकन महात्मा गांधी के सपनों के जरीये हो सकता है। संविधान के निर्माताओं की भावनाओं की कसौटी पर हो सकता है। संघीय ढांचे पर हो सकता है । राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श पर विकास की प्रगति को आंका जा सकता है । लेकिन इतिहास के पन्नों को खंगालने में मुश्किल तो कांग्रेस के सामने भी आयेगी और बीजेपी के सामने भी क्योंकि दोनों अपने अपने दायरे में कटघरे में तो नजर आयेंगे ही । आजादी और विभाजन के वक्त राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की भूमिका और आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस की महात्मा गांधी को लेकर भूमिका कुछ ऐसे सवालों को जन्म तो देती ही है जिससे मौजूदा राजनीतिक हालात में दोनो बचना चाहेंगे। याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे । उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में बुलाया भी नहीं गया। जबकि उसी कार्यसमिति में कांग्रेस ने देश विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस ने स्वीकार किया था। महात्मा गांधी मर्माहत हुये थे, वे मौन रहे, उनका मौन अधिक मुखर था। उससे संदेश निकला जिसे पूरे देश ने समझा कि कांग्रेस के लिये अब महात्मा गांधी अनजाने बन गए हैं। कांग्रेस सत्ता की राजनीति में लिप्त हो गई थी। उसने अपनी वैधता के लिये महात्मा गांधी का सहारा लिया। लेकिन महात्मा गांधी के रास्ते को भुला दिया, इससे सरदार पटेल भी आहत हुये । उन्होंने कई मौकों पर महात्मा गांधी से मुलाकात कर अपना दुख भी बताया और नेहरु मंत्रिमंडल छोड़ने की भी बात कही और 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से पहले सरदार पटेल के साथ गांधी जी की बातचीत का वह सिरा जनसंघ से लेकर मौजूदा बीजेपी और आरएसएस बार—बार पकड़ते ही महात्मा गांधी कांग्रेस को ही डिजाल्व कराने के पक्ष में थे। ध्यान दीजिये तो बीजेपी इसी नब्ज को पकड़कर नेहरु के विरोध के पटेल के स्वर को इस हद तक ले जाने से नहीं कतराती जहां पटेल उसके हो जायें और नेहरु कांग्रेस के कहलायें। लेकिन इस सियासी संघर्ष में राज्यसत्ता ही भारत की उन तीन मान्यताओं को भूलने लगी है जो धर्मनिरपेक्षता,राष्ट्रीय एकता और समानता पर टिकी है। आलम यह हो चला है कि आजादी की लड़ाई के मूल्य ओझल हो चुके हैं। सामाजिक मान्यताएं विकृत हो रही हैं,उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार तेज हो रहा है और ईमानदार पहल की जगह सियासी बहस देश को ही उलझा रही है । याद किजिये जब जनंसघ के लोग जनता पार्टी में थे,वह नयी दिशा पकडना चाह रहे थे। लेकिन उन्हे पुराने रास्तों पर लौटाने के लिये उस वक्त मजबूर किया गया और तब भी यह सवाल उठा था । याद कीजिये संसद में दिये गये चन्द्रशेखर के इस बयान पर खासा बवाल हुआ था जब अयोध्या का सवाल उठ रहा था तब चन्द्रशेखर ने ही कहा था कि बीजेपी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन है । सत्ता में आने के बाद बीजेपी की मान्यताओं का कोई अर्थ नहीं रहेगा । राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ की मान्यताएं प्रभुत्व प्राप्त करेंगी। लेकिन नया सवाल तो यह है कि क्या संघ, कांग्रेस या बीजेपी के जरीये नेहरु-पटेल और गांधी को अपने—अपने कब्जे में करने की होड़ देश की जरुरत है या फिर सरकारों की विफलता में अब नयी सोच की जरुरत है? क्योंकि सवाल सिर्फ शिक्षा – स्वास्थ्य में विफलता भर का नहीं है। सवाल है कि मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता हमने छोड़ दिया है। अर्थव्यवस्था फिर गुलाम मानसिकता की दिशा में बढ़कर भ्रम पैदा कर रही है। भ्रम इस बात का कि विदेशी कंपनियां हमारा विकास करने के लिये पूंजी लगायेंगी। सच तो यह है कि विदेशी कंपनियां मुनाफा कमाने ही आयेंगी। सारी दुनिया में यही हुआ है, तो फिर आर्थिक गुलामी की तरफ एकबार फिर कदम बढ़ रहे हैं तो सवाल किसी षड़यत्र का नहीं बल्कि नासमझी का है। एफडीआई से कितना रोजगार पैदा हुआ? कितने उद्योग विदेशी हाथों में चले गये? खनिज संपदा की लूट किसने की? खेती क्यों चौपट होती जा रही है? किसान-मजदूरों की तादाद कम क्यों नहीं हो पा रही है? बीज, खाद, खुदरा व्यापार सबकुछ विदेशी कंपनियो के हाथ में क्यों जा रहा है? क्या कोई सरकार इसपर श्वेत पत्र ला सकती है? या ईमानदारी से बता सकती है कि जो रास्ता वह पकड़ रही है वह तत्काल की राहत या भटकाने वाले हालात से ज्यादा कुछ नहीं है? देश की अपार जनशक्ति को ही जब सरकारें बोझ मानने लगें तो फिर रास्ता क्या है? जनशक्ति का उपयोग कैसे हो इसे महात्मा गांधी ने समझा । मौजूदा नेताओं ने लोगों को निजी लाभ—हानि के घरौंदे में कैद कर लिया । समाज का आत्मबल नेताओ की चुनावी जीत हार पर जा टिका। सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढ़ा दी गई। ऐसे में जो सरकारी तंत्र से जुड़े वे मन से गांव या गरीबी से नहीं जुड़े। आपसी सहयोग से समाज की ताकत का सार्थक उपयोग तभी संभव है जब सरकारी तंत्र नयी चुनौतियों के लिये दीक्षित हो और सत्ताधारी राजनेता जनशक्ति को वोट बैंक से बढ़कर देखें मगर हुआ उल्टा। जाति –मजहब के आधार पर समाज की चेतना भड़काई गई तो परिणाम भी खतरनाक निकलने लगे। विवाद-तनाव सियासी जरुरत बन गये । असहिष्णुता समाज से ज्यादा राजनेताओं का भाने लगी और उस पूंजी के मुनाफे के भी अनुकुल हो गइग् जो एकतरफा विकास के जरीये उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिक बने। यानी रास्ता तो राष्ट्रीय अस्मिता जगा कर ही पैदा हो सकता है लेकिन यह रास्ता मजहब,जाति क्षेत्रियता सरीखे संकीर्ण मानसिकता को उभारने वाले बनाने लगे । ग्रामीण भारत बेबसी और निरिह राष्ट्र की मानसिकता में जीने लगा तो शहरी और उपभोक्ताओं को गौरवमयी भारत दिकायी देने लगा। लेकिन दोनों मानसिकतायें राष्ट्रीय अस्मिता का गौरव पाने से दूर हैं, इसलिये रास्ता नेहरु-पटेल हैं किसके और महात्मा गांधी के सपनों का भारत होना कैसे चाहिये उस झगड़े से हटकर अगर समाज का आत्मबल अपनी ही खनिज संपदा और अपनी ही श्रेष्ठ मान्यताओं के आसरे नहीं खोजे गये तो हमारी कमजोरियों का लाभ उठाकर देश को बिखराव की तरफ ले जाने की कोशिश तेज होगी इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।


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