डॉ.वेद प्रताप वैदिक।
आरक्षण के सवाल पर इधर दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं। एक गुजरात में और दूसरी मध्यप्रदेश में। गुजरात सरकार ने घोषणा की है कि जो भी परिवार 50 हजार रु. महिने से कम कमा रहा है, उसे आरक्षण दिया जाएगा, उसकी जाति चाहे जो भी हों। उधर मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि सरकारी कर्मचारियों को जो पदोन्नति दी जाती है, उसमें चलने वाले आरक्षण को खत्म किया जाता है याने सरकार की भर्ती-परीक्षा में तो आरक्षण चलता रहेगा लेकिन हर कर्मचारी की पदोन्नति सिर्फ योग्यता या गुणवत्ता के आधार पर होगी।
ये दोनों फैसले, मेरी राय में, स्वागत योग्य हैं। जाहिर है कि गुजरात सरकार ने 10 प्रतिशत का सामान्य आरक्षण इसीलिए घोषित किया है कि पटेलों के आंदोलन का समाधान निकल आए। शायद पटेल लोग मान जाएं। लेकिन इसमें दो दिक्कते हैं। पहली यह है कि 50 हजार रु. प्रतिमास कमाने वाले परिवार को आप गरीब कैसे कह सकते हैं? सरकार की गरीबी रेखा तो 30 रु. रोज है याने 900 रु. प्रति महिना। एक परिवार में यदि कमाने वाले तीन लोग हों तो वे भी 3000 रु. प्रति माह ही कमाएंगे। कहां 50 हजार कमानेवाला परिवार और कहां 3 हजार कमानेवाला?
दूसरा, इस फैसले से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बांधी गई 50 प्रतिशत की सीमा का भी उल्लंघन होगा। अनुसूचित जातियों और जनजातियों और पिछड़ों को मिलाकर सभी राज्यों में जो आरक्षण दिया जा रहा है, वह 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा ही है। अदालतें इसे गैर-कानूनी घोषित किए बिना नहीं रहेंगी।
पदोन्नति में आरक्षण रद्द हुआ, यह ठीक रहा लेकिन यदि यह नियम 2002 से लागू हुआ, जैसा कि अदालत चाहती है, तो कम से कम 25-30 हजार कर्मचारियों को निचले पदों पर जाना होगा। उनके वेतन ही नहीं घटेंगे, उन्हें अपने मातहत अफसरों के नीचे काम भी करना होगा। यह तो बहुत ही विचित्र स्थिति बनेगी। पता नहीं, सरकारें इस फैसले को लागू कैसे करेंगी?
सच्चाई तो यह है कि सरकारी नौकरियों से आरक्षण बिल्कुल खत्म होना चाहिए। सारी नौकरियां शुद्ध योग्यता और गुणवत्ता के आधार पर दी जानी चाहिए। हां, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, ग्रामीणों, अल्पसंख्यकों और सभी जरुरतमंदों को शिक्षा में बिना किसी भेद-भाव 75 प्रतिशत तक आरक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे नौकरियां खम ठोककर लें, भीख का कटोरा फैलाकर न लें। वे जो कुछ बनें, आरक्षण से नहीं, अपनी योग्यता से बनें।
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