हेमंत पाल।
नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने पर वही फैसला किया, जिसकी उम्मीद थी। कोर्ट के मुताबिक राज्यपाल की रिपोर्ट में भी राज्य में संवैधानिक संकट का जिक्र नहीं था। खंडपीठ ने केंद्र से कहा कि वो 'कोर्ट के साथ खेल रहे हैं। हमें गुस्से से ज़्यादा इस बात का दर्द है कि क्या सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है? कल अगर आप राष्ट्रपति शासन हटा देते हैं और किसी को सरकार बनाने के लिए बुला लेते हैं तो ये न्याय के साथ मजाक होगा।' हाईकोर्ट के ये तल्ख़ टिप्पणी शायद भविष्य में होने वाले ऐसे फैसलों में नजीर है।
आजादी के बाद 68 सालों में अलग-अलग राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा सौ से ज्यादा बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। संविधान की धारा 356 के अंतर्गत यह निश्चित होने पर कि राज्य में संविधान के मुताबिक शासन नहीं चल रहा है और आगे भी नहीं चल सकता। राज्य पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया जाता है। जब भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, विपक्ष केंद्र सरकार के निर्णय पर तोहमत लगाता है। ये भी सच है कि जब कोई केंद्र सरकार किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करता है, विपक्ष ने इसे 'संविधान की हत्या' निरुपित करता है। लेकिन, जब वही विपक्षी पार्टी सत्ता में होती हैं, उसे ये 'संविधान की हत्या' लगती।
आज से पहले भी ऐसे उदाहरण हैं, जब न्यायालय ने केंद्र के ऐसे फैसलों को बदल दिया। उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार काबिज थी। लेकिन, कांग्रेस के 9 विधायकों के दलबदल के एलान से सरकार असंतुलित हो गई। कांग्रेस फिर भी बहुमत का दावा करती रही और विपक्ष में बैठी भाजपा का दावा रहा कि राज्य में सरकार अपना बहुमत खो चुकी है। तथ्य अपनी जगह है! पर भाजपा की राजनीति सभी को दिख रही थी।
संविधान के मुताबिक ये फैसला सदन में होना था। परंपरा भी यही है। लेकिन, इसके पहले राज्यपाल की रिपोर्ट पर केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से सिफारिश राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। इसके बाद कुछ नहीं बचता! राष्ट्रपति शासन लागू हो भी गया। फिर भी ये सवाल जिन्दा रहा कि क्या मुख्यमंत्री हरीश रावत को सदन में अपना बहुमत सिद्ध साबित करने का मौका नहीं दिया जाना था?
इस घटना को एक पुराने वाकये के संदर्भ में भी याद किया जा सकता है! 1989 में कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.आर.बोम्मई ने राज्यपाल से आग्रह किया था कि उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका दिया जाए। लेकिन, उनकी बात को अनसुनी कर सरकार को गिरा दिया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। नौ जजों की बैंच ने पूरे मामले को समझा और फैसला दिया कि किसी सरकार के बहुमत के दावे को सिर्फ सदन में ही साबित किया जा सकता है। ये भी कहा कि संविधान की धारा 356 का उपयोग 'किफायत' से किया जाना चाहिए। इस फैसले का असर ये हुआ कि बाद में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने का फैसला सोच समझकर किया जाने लगा। क्योंकि, ऐसे मामलों में सिर्फ संविधान की धारा के मुताबिक काम करना ही जरुरी नहीं है। लाख टके का सवाल सांविधानिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने का भी है।
केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर बने सरकारिया आयोग ने भी 1988 में तत्कालीन मामलों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि धारा 356 के उपयोग के 75 मामलों में से सिर्फ 26 में ही 'सही' फैसला किया गया। अर्थात 49 मामलों में केंद्र ने राज्यों पर राष्ट्रपति शासन थोपने के लिए अपने अधिकारों से आगे जाकर निर्णय लिए। देखा जाए तो आयोग की इस टिप्पणी में बहुत कुछ समाहित है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का सीधा सा मतलब है कि जनता द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार को जबरन हटा दिया जाना। वास्तव में ये सांविधानिक व्यवस्था पर अति महत्वाकांक्षी राजनीति के हावी होने का उदाहरण है।
राज्यों में राष्ट्रपति शासन थोपे जाने के अब तक के सारे मामले यही कहानी कहते हैं। केंद्र के हाथ में आई इस चाबुक का सही और विधि सम्मत इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पर, वास्तव में ऐसा होता नहीं है। केंद्र में किसी की भी सरकार हो, जब भी उसे मौका मिलता है नेताओं के मानस पर राजनीति हावी हो जाती है। तथ्य बताते हैं कि केंद्र में काबिज सभी सरकारों ने इस हथियार का इस्तेमाल विपक्षी राज्य सरकारों पर करने में कभी देरी नहीं की। इमर्जेन्सी के बाद बनी जनता पार्टी सरकार ने भी दो साल में दर्जनभर राज्य सरकारों गिराने का मौका खोया। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास की सबसे कमजोर बहुमत वाली सरकार कही जाने वाली चंद्रशेखर-सरकार ने भी सात महीने में चार राज्य सरकारों को नेस्तनाबूद कर दिया था।
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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