पुलिस राज उपाधि की पूरी पात्रता रखता है छत्तीसगढ़
खरी-खरी
Apr 18, 2016
पुष्कर राज।
छत्तीसगढ़ में वर्तमान शासन व्यवस्था कमोवेश दमन और अत्याचार पर केंद्रित हो मनमानी पर उतर आई है। आजाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की इतनी अवहेलना शायद ही कभी हुई हो। साथ ही साथ नागरिकों के संविधान सम्मत अधिकारों का हरण वहां अब रोजमर्रा की दिनचर्या बन गई है।
पुलिस राज उस इलाके को कहते हैं जहां नागरिकों का जीवन, उनकी आवजाही, राय जाहिर कर पाना और रह पाना सभी पुलिस के नियंत्रण व निगरानी में होता है। खनिज सम्पदा से भरपूर छत्तीसगढ़ प्रांत आज इस उपाधि की पूरी पात्रता रखता है। हाल ही में घटी कुछ घटनाएं भी यही दर्शाती हैं।
सन् 2000 में अलग राज्य बन जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ ने राज्य का पुलिस अधिनियम पारित किया। देश में पुलिस सुधार पर कार्यरत एक संगठन, सी एच आर आई (कॉमन वेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशियेटिव) ने यह निष्कर्ष निकाला कि सन् 1851 के पुलिस अधिनियम का स्थान लेने वाला यह नया कानून पुराने से भी गया बीता है और इसके तहत पुलिस पर निगरानी व पुलिस की जवाबदेही पहले से भी कम हो गई है।
अपने चरित्र को सही ठहराते हुए इस पुलिस राज में जहाँ नया अधिनियम आने के पहले सन् 2007 में 60,279 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी वहां सन् 2014 में इस राज्य में 7,39,435 लोगों के खिलाफ पुलिस कार्यवाही की गई अर्थात पहले की अपेक्षा 12 गुना अधिक लोग पुलिस की गिरफ्त में आए। इनमें से 1,44,017 लोगों के खिलाफ जमानती वांरट जारी हुए। 81,329 को गैर-जमानती वारंटों पर जेल भेजा गया और 4,88,366 लोगों को पूछताछ के लिए थाने बुलाया गया। (राष्ट्रीय अपराध शोध ब्यूरो की रिपोर्ट 2008-14) वर्ष 2007 से राज्य में पुलिस गतिविधियां असामान्य रूप से बढ़ी हैं। इसके फलस्वरूप बाकी देश की तुलना में छत्तीसगढ़ की जेलें ठसा-ठस भरी हुई हैं और वहां क्षमता से ढाई गुना ज्यादा कैदी रह रहे हैं।
विचाराधीन कैदियों की इतनी विशाल संख्या किसी भी संवैधानिक लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। ऐसे कैदियों को कानूनी मदद दिलाने में असमर्थ रहने के बावजूद छत्तीसढ़ पुलिस ने जगदलपुर लीगल एड ग्रुप पर हमला बोल दिया। यह समूह पिछले तीन सालों से विचाराधीन कैदियों को मुफ्त कानूनी मदद दे रहा था। पुलिस की धौंस के चलते समूह के वकीलों को फरवरी 2016 मंे किराए का अपना घर व शहर छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा है।
भारतीय संविधान की धारा 19(ई) नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में रहने और कार्य करने का अधिकार देती है। पर पुलिस ने मालिनी सुब्रमण्यम नामक पत्रकार को जबरन जगदलपुर छोड़ने पर मजबूर किया। 23 मार्च ,2016 को प्रभात सिंह नामक स्थानीय पत्रकार को बस्तर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने सोशल मीडिया में बस्तर के शीर्ष पुलिस अफसर कल्लुरी के विरुद्ध टिप्पणी की थी।
ठीक इसके बाद एक और पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया जो सात महीने पुराने किसी मामले में अपनी अग्रिम जमानत की अर्जी लगाने के लिए न्यायालय के बाहर खड़ा था। दो अन्य पत्रकार पुलिस से सहयोेग न करने के कारण झूठे मामलों में पहले से ही जेल में बंद हैं। देश भर के 160 पत्रकारों ने इनकी रिहाई के साथ ही प्रभारी पुलिस अफसर के खिलाफ कार्यवाही की भी मांग की है।
राज्य पुलिस पर औरतों के साथ यौन हिंसा करने के सबसे घिनौने आरोप हैं। ऐसे आरोप वर्ष 1980 में उत्तरप्रदेश के माया त्यागी मामले की याद दिलाते हैं। गौरतलब है 2009 में सोनी सोरी को गिरफ्तार करके हिरासत में घिनौनी यातनाएं दी गई। जमानत के लिए उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगानी पड़ी। भारतीय नागरिक यह जानकर व्यथित हुए थे कि सोनी सोरी की अपील सच थी व उसके गुप्तागों में पत्थर पाए गए।
यह बड़े शर्म की बात है कि यातना देने वाले पुलिस अफसर को राष्ट्रपति का बहादुरी का पदक मिला। उसी साल पुलिस ने वनवासी चेतना आश्रम नामक एक गांधीवादी संस्था के आश्रम को जमींदोज कर दिया। पुलिस का दावा था कि वह आश्रम सरकारी जमीन पर बसा हुआ था और उसे इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि मामला न्यायालय में विचारधीन है। यह आश्रम स्थानीय आदिवासियों को हुनर सिखाने व कानूनी शिक्षा देने का कार्य करता था। आश्रम पर पुलिस का कहर इसलिए बरपा क्योंकि वहां से यातना देने व औरतों के साथ बलात्कार करने के मामलों को सुर्खी में लाकर दोषी पुलिस के खिलाफ एफ आई आर दर्ज करने की मांग उठाई गई थी।
जहां एक और पुलिस दमन में कसर नहीं छोड रही वहां दूसरी पुलिस की छत्रछाया में नागरिक समाज मंच, माँ दन्तेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच एवं विकास संघर्ष समिति जैसे कई संगठन फल फूल रहे हैं। इनके सदस्य सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से प्रतिबंधित सल्वा जुडूम के स्पेशल पुलिस अफसर रह चुके हैं। ये सोशल माफिया की तरह पुलिस की मदद करते हैं व देश के दूसरे भागों से पुलिस प्रताड़ना के भुक्तभोगियों से मिलने आने वालों तक को नहीं बख्शते। ऐसे ही एक संगठन ने पहले जगदलपुर लीगल एड गु्रप की मालिनी सुब्रमण्यम और अब बेला भाटिया पर जगदलपुर छोड़ने के लिए दबाव डाला और हिंसा की।
आज छत्तीसगढ़ में निम्न चार खिलाड़ी सक्रिय हैं-सम्पदा लूटने के लिए पहुंची कम्पनियां, उनसे मिली-भगत रखने वाले राजनेता, खुली छूट पाई पुलिस व अन्य सैनिक बल तथा इन सबसे प्रभावित आदिवासी। पुलिस आदिवासियों का दमन जारी रखने पर आमादा है और अपने दमन के गवाह नहीं चाहती। इसलिए वह संविधान और कायदे-कानून की परवाह करे बगैर हर उस व्यक्ति को बस्तर से खदेड़ने पर आमादा है जो इस खुली छूट के आड़े आता है। संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह पुलिस के पथभ्रष्ट होने का स्वयं संज्ञान ले और छत्तीसगढ़ में संवैधनिक व्यवस्था बहाल करे।
(लेखक मेलबार्न (आस्ट्रेलिया) स्थित मानवाधिकार संगठन के शोधकर्ता एवं लेखक हैं। उन्होंने भारत में पुलिस सुधार के लिए अभियान चलाया है और वे पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय सचिव भी रह चुके हैं। उनका यह आलेख का सप्रेस से साभार लिया गया है।)
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