प्रो.अनूप का इस्तीफा और फांसी पर उठते सवाल,बहस का अंत कहां...?

खरी-खरी            Aug 02, 2015


rakesh-achal राकेश अचल 1993 के मुम्बई हमलों के मामले में मौत के घाट उतारे जा चुके याकूब मेमन की फांसी को लेकर शुरू हुई बहस को उसकी मौत के बाद ही थम जाना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट के एक डिप्टी रजिस्ट्रार अनूप सुरेंद्रनाथ ने 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में दोषी याकूब मेमन की मौत की सजा पर अमल का मार्ग प्रशस्त करने वाले न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया । वे मानते हैं कि चंद घंटों के भीतर दो फैसले ‘न्यायिक त्याग’ के उदाहरण हैं जिनकी शीर्ष अदालत के ‘अंधकारमय घंटों’ के रूप में गणना होनी चाहिए। प्रो अनूप की नियुक्ति अनुबंध पर हुई थी। उन्होंने 30 जुलाई को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। न्यायालय के सूत्रों ने बताया कि मृत्युदंड को लेकर चल रही बहस के बीच प्रो अनूप का यह इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया और उन्हें पद मुक्त कर दिया गया लेकिन इसके साथ ही ये बहस समाप्त होने के साथ एक बार फिर से शुरू हो गई है। अभी तक याकूब मेमन की फांसी पर कुछ विधिवेत्ताओं के अलावा राजनितिक दल और स्वयंसेवी संस्थाएं ही मुखर थीं,लेकिन अब इस पूरी प्रक्रिया में भागीदार रहे प्रो.अनूप ने ही सवाल उठाये हैं तो कोई इसे राष्ट्रद्रोह या निहित स्वार्थ कहकर जबाब देने से बच नहीं सकता। प्रो अनूप दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के संकाय सदस्य व मृत्यु दंड शोध परियोजना के निदेशक हैं। मेमन को फांसी देने के फरमान पर रोक के लिए दायर याचिका के साथ भी वह संबद्ध थे। उन्होंने कहा कि वह कुछ समय से इस बारे में सोच रहे थे। परंतु शीर्ष अदालत में इस सप्ताह जो कुछ भी हुआ उसने इसमें अहम भूमिका निभा दी। देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो फांसी की सजा के खिलाफ हैं। इस सजा का सिर्फ याकूब से ही कोई ताल्लुक नहीं है। फांसी की सजा के खिलाफ उनकी अपनी धारणा और तर्क हैं,दुनिया के अनेक देशों में फांसी की सजा को समाप्त कर दिया गया है,लेकिन बड़ी संख्या उन देशों की भी है जहां फांसी की सजा आज भी बरकरार है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि फांसी देने के तरीके कम पीड़ादायी चुन लिए गए हैं। सवाल ये है कि फांसी यदि एक तरह की हत्या ही है तो हत्यारों को आखिर कैसे सबक सिखाया जाये?यदि उनके मन में अपने अपराध के लिए कोई भय नहीं होगा तो वे अपराध से विरक्त कैसे होंगे? ये सवाल अपने आप में पूरा है या अधूरा मैं आज तक नहीं समझ सका,क्योंकि मैं पढ़ता रहता हूँ कि जो दहशतगर्द हैं वे तो सर पर कफ़न बाँध कर ही घर से निकलते हैं। चाहे अमेरिका में हुयी आतंकी वारदातें हों या भारत में ,इनके आरोपी सर से कफ़न बाँध कर ही निकले। अभी पंजाब के गुरदासपुर थाने पर कब्जा कर एक दर्जन लोगों की जान लेने वाले आतंकियों को पता था कि वे थाने में घुसकर कभी ज़िंदा वापस नहीं लौटेंगे,लेकिन वे घुसे और मर कर ही माने । दुनिया के 130 देश लम्बी बहस के बाद फांसी की सजा से तौबा कर चुके हैं। आधा दर्जन देशों ने फांसी कि सजा को कुछ अपवादों के लिए चुना है,जबकि कई देश ऐसे हैं जिन्होंने फांसी कि सजा को समाप्त तो नहीं किया लेकिन एक देश से ज्यादा समय से इस प्रावधान का इस्तेमाल भी नहीं किया ,भारत समेत कुल 36 देश ही सजा को अपने यहां न केवल लागू किये हैं बल्कि इसका लगातार इस्तेमाल भी कर रहे हैं। अब फिर कर सवाल खड़ा होता है कि क्या फांसी की सजा पर अमल करने वाले देशों में अपराध कम हुए?आतंकी घटनाएँ रुकीं?सामाजिक अपराधों पर अंकुश लगा?उत्तर आएगा शायद नहीं। भारत और चीन में दनादन फांसी की सजाएं दी जातीं हैं फिर भी दोनों देशों में अपराधों की गति थम नहीं रही है। इसलिए अब विधिवेत्ताओं और समाजशास्त्रियों के सामने एक बार फिर चुनौती है कि वे फांसी की सजा के असर और जरूरत के बारे में नए सिरे से विचार करें ताकि इस मुद्दे पर होने वाली बहस का समापन किया जा सके।


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