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भाजपा की हार और लालकृष्ण आडवाणी की याद!

खरी-खरी            Nov 08, 2015


siddharth-shankar-goutamसिद्धार्थ शंकर गौतम इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि जिस व्यक्ति ने भारतीय जनता पार्टी को दो सीटों से बढ़ाकर देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनाने में अपना पूरा जीवन खपा दिया, रविवार को उसी के जन्मदिन के मौके पर बिहार में राजग गठबंधन मुंह छुपाने के काबिल भी नहीं रहा। भाजपा में वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी को दरकिनार कर मोदी-शाह युग का श्रीगणेश करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी शायद अब उनकी कमी खल रही हो? चूंकि आडवाणी भाजपा के आधार, हिंदुत्व के पोस्टर बॉय रहे हैं अतः उनके जन्मदिन पर पार्टी की करारी हार पर उनकी याद आना स्वाभाविक भी है। वह आडवाणी ही थे जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन के दौरान रथ यात्राएं निकालकर पूरे देश में हिंदुत्व की लहर पैदा कर दी थी। हालांकि वे अकेले नहीं थे। उनके साथ मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह सरीखे ओजस्वी नेता थे किंतु यह उनका ही सामर्थ्य था कि अपने जन्म के 16 वर्षों बाद ही भाजपा को उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करवा दिया और प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी के सानिध्य में कार्य करना स्वीकार किया। उनकी अति राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बहस का मुद्दा हो सकती हैं किंतु नेतृत्व गुण को पहचान कर उसे उभारना उन्हें बखूबी आता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। अपने सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक दौर में आडवाणी ने कभी अपने साथियों की अनदेखी नहीं की और न ही राज्यों की नेतृत्व क्षमताओं पर कुठाराघात किया। किंतु वर्तमान भाजपा को देखकर लगता है कि पार्टी अब सिर्फ मोदी-शाह के प्रबंधन से ही आगे बढ़ना चाहती है। बिहार के स्थानीय भाजपा नेताओं शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, सुशील कुमार मोदी, सी पी ठाकुर, गिरिराज सिंह आदि को मानो इस बार घर ही बिठा दिया हो। पूरा चुनाव मोदी बनाम नीतीश और शाह बनाम लालू लगने लगा था। बिहार की जनता मोदी को बतौर राजनेता तो पसंद कर सकती थी किन्तु वोट देते समय उसके जेहन में यह बात भी रही होगी कि मोदी उसके राज्य के मुख्यमंत्री नहीं बन सकते। यदि मोदी-शाह चुनाव में उतरने से पूर्व ही जनता को उसके प्रतिनिधि का चेहरा दिखा देते तो शायद पार्टी तीसरे नंबर तक न गिरती। आखिर आतंरिक लोकतंत्र का दंभ भरने वाली पार्टी में चेहरों की इतनी कमी कैसे पड़ गई कि बिहार विधानसभा चुनाव में भी उसे प्रधानमंत्री का सहारा लेना पड़ा? क्या प्रधानमंत्री द्वारा बिहार में 30 से अधिक सभाएं लेना भी उनके खिलाफ गया? यह कहा जा सकता है कि बदलाव नियति का हिस्सा होता है, फिर चाहे वो सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में ही क्यों न हो? पीढ़ियों के बीतने के साथ ही वर्तमान को जीना अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसा ही कुछ चाल, चेहरा और चरित्र को आत्मसात करने वाली भारतीय जनता पार्टी में हो रहा है पर यह बदलाव अब तक तो पार्टी को भारी ही पड़ा है। पहले लालकृष्ण आडवाणी और उनके समकक्ष नेताओं को किनारे किया गया और अब राज्यों के चुनाव में केंद्रीय स्तर की अति-भूमिका क्षेत्रीय क्षत्रपों को दरकिनार करने लगी है। यदि बिहार विधानसभा चुनाव में स्थानीय धरती-पकड़ नेता मन से काम करते तो क्या मोदी की इतनी चुनावी सभाओं की जरुरत पड़ती? भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि मोदी-शाह का चुनावी मैनेजमेंट और लोकप्रिय चेहरा हर बार और हर जगह नहीं चल सकता। पार्टी को लालकृष्ण आडवाणी की तरह सभी को साध कर चलने की आदत पुनः डालनी होगी। इस चुनाव परिणाम से एक बात और साफ़ होती है कि पार्टी को अपने सहयोगी चुनने में भी दूरदर्शिता की आवश्यकता है। आडवाणी ने नीतीश को जिस तरह साध रखा था और भाजपा-जदयू गठबंधन बिहार में सफलतापूर्वक सरकार चला रहा था, वैसा चुनाव इस बार सहयोगियों के रूप में नहीं हुआ। हम के कर्ताधर्ता जीतन राम मांझी की नाव में सवारी भाजपा को बेहद मंहगी पड़ी। वहीं रामविलास पासवान पर भरोसा भी पार्टी की नैया डुबा गया। आडवाणी युग अब वापस तो नहीं आ सकता और वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में उसका आना भी अनुचित है किन्तु पार्टी यदि उनकी अच्छी बातों को पुनः आत्मसात करे तो स्थिति में बदलाव आ सकता है वरना आने वाले चुनाव में गलत सहयोगियों का साथ और मोदी-शाह की जोड़ी पर निर्भरता, पार्टी को महंगी पड़ सकती है। पार्टी को स्थानीय नेताओं को तो तवज्जो देना ही होगी वरना परिस्थितियां और विकट हो सकती हैं।


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