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भाजपा पर बेअसर संघ की नसीहतें

खरी-खरी            Feb 18, 2015


फैजाबाद से कुंवर समीर शाही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कानपुर बैठक में तालमेल और मिलकर चलने की नसीहत दी। पर, यह कोई पहला मौका नहीं है जब उन्होंने ऐसी नसीहत दी हो। वह पहले भी कई बार भाजपा को ऐसी नसीहतें देते रहे हैं। पर, संघ प्रमुख की ये नसीहतें उप्र के भाजपा नेताओं की रीति नीति व बात-व्यवहार को सुधार देंगी, इसके आसार फिलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखते। यह आशंका इसलिए भी है कि बीते कुछ वर्षों के दौरान इन नसीहतों से यूपी भाजपा नेता अपनी चाल-ढाल व कामकाज का तौर-तरीका बदलते नहीं दिखे। उल्टे जो कुछ होता था वह बंद होता चला गया। भाजपा में पुरानी परंपरा थी कि पूर्व प्रदेश अध्यक्षों व अन्य प्रमुख नेताओं को पद पर न रहते हुए भी संगठन के फैसलों में शामिल किया जाएगा। कोर कमेटी के नाम पर इन नेताओं की समय-समय पर बैठक होगी जिसमें तात्कालिक मुद्दों पर प्रदेश अध्यक्ष व अन्य प्रमुख पदाधिकारी उनसे विचार-विमर्श करके पार्टी की कार्ययोजना बनाएंगे। पर, लंबे अरसे से पूर्व प्रदेश अध्यक्षों की मौजूदा पदाधिकारियों के साथ बैठक नहीं हुई है। भाजपा की महत्वपूर्ण बैठकों में पूर्व प्रदेश अध्यक्षों का आना-जाना अब गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। पहले प्रत्याशियों के चयन में किसी पद पर न होते हुए भी पार्टी के प्रमुख नेताओं की सलाह काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। मगर, अब जब चुनाव समिति की बैठक के बगैर ही प्रत्याशी तय हो जाते हैं तो सलाह-मशविरा के बारे में सोचना तो दूर की बात है। प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में पिछली बार भाजपा के सभी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कब शामिल हुए थे, किसी को याद नहीं होगा। एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कहते भी हैं कि अब तो पद से हटने का मतलब संगठन के फैसलों में सलाह-मशविरा के लिए अयोग्य मान लिया जाना है। पार्टी के फैसलों की जानकारी उन्हें मीडिया से मिलती है। उदाहरण के लिए अनुराधा चौधरी पार्टी में शामिल हो गईं यह जानकारी उन्हें टीवी चैनल के जरिये मिली। बसपा के दारा सिंह चौहान भाजपा में आ रहे हैं, इसका पता भी उन्हें अखबारों से चला।पार्टी के एक अन्य पूर्व क्षेत्रीय संगठन मंत्री भी इसी तरह की आशंका जताते हैं। उनके अनुसार, सिर्फ भाजपा में ही नहीं, आरएसएस के विभिन्न संगठनों के बीच भी समन्वय व संवाद रखने के लिए संघ परिवार के सभी संगठनों के प्रमुख लोगों की बैठकों की परंपरा थी। साल में दो -तीन बार यह बैठक हो जाती थी। इससे दो लाभ होते थे। एक तो किसी संगठन का कार्यक्रम दूसरे संगठन से नहीं टकराता था। साथ ही भाजपा के फैसलों से परिवार के अन्य संगठनों के लिए समस्या नहीं खड़ी होती थी। कार्यकर्ताओं को भी लगता था कि अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही पार्टी के फैसलों में उनकी भागीदारी रहती है। पर, बीते तीन-चार वर्षों में ऐसी कोई बैठक ही नहीं हुई। अब नेताओं में आपसी संवाद ही नहीं है। बिना किसी से सलाह-मशविरा किए जब लोगों को पदों से हटाया और बैठाया जा रहा है, प्रदेश कार्यसमिति में लोगों को शामिल किया जा रहा है, उम्मीदवार विचार-विमर्श से नहीं बड़े नेताओं के निर्णय से तय हो रहे हैं तो ऐसे में मिलकर काम करने की बात दूर की कौड़ी ही लगती है।


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