डॉ.वेद प्रताप वैदिक।
भारत में रिश्वत का कितना बोलबाला है, इसका अंदाज एक विश्व-संस्था की खोजपूर्ण रपट से लगता है। उस संस्था ने यह तो बताया है कि रिश्वतखोरी के मामले में भारत का स्थान या नंबर काफी आगे है लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह बताई है कि भारत में जो कुल लेन-देन होता है, उसका 50 प्रतिशत भाग रिश्वत होता है।
रिश्वत के बारे में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि राज-काज में रिश्वत के बिना काम चल ही नहीं सकता। वे कहते हैं कि यह कैसे हो सकता है कि मछली पानी में रहे और जल न पिए? लेकिन असली सवाल यह है कि रिश्वत की मात्रा कितनी हो? आटे में नमक के बराबर या नमक में आटे के बराबर? यदि आधा आटा और आधा नमक हो तो रोटी का स्वाद कैसा होगा, यह बताने की जरुरत नहीं है। भारत की रोटी आटे की है या नमक की, यह बताना मुश्किल है।
रिश्वतखोरी रोकने के लिए तरह-तरह के नियम–उप-नियम और कानून-कायदे बने हुए हैं लेकिन फिर भी वह रुकती नहीं है। क्यों होता है, ऐसा? इसका सबसे बड़ा कारण ऊपर के लोग हैं। जब सर्वोच्च नेताओं को छोटे नेता और अफसर रिश्वत लेते हुए, दलाली करते हुए, ब्लेकमेल करते हुए देखते हैं तो वे भी पीछे क्यों रहें? वे भी हाथ साफ करने से नहीं चूकते? क्या हमारे देश का एक भी नेता ऐसा है, जो सीना ठोककर कह सके कि उसने कभी रिश्वत नहीं ली? नेहरु और शास्त्री के अलावा क्या एक भी प्रधानमंत्री भारत में ऐसा हुआ है, जिसने रिश्वत नहीं खाई हो या अपने साथियों को रिश्वत न खाने दी हो? रिश्वत के बिना सरकार चल ही नहीं सकती।
देश में जितने रिश्वत खानेवाले हैं, उनसे ज्यादा रिश्वत खिलानेवाले हैं। जो नेता और अफसर ईमानदार होते हैं, उन्हें भी भ्रष्ट करने का काम हम साधारण लोग करते हैं। हम मालिक हैं। नेता और अफसर हमारे नौकर हैं। जब मालिक ही बेईमानी पर उतारु है तो बेचारा नौकर क्या करेगा? इसीलिए रिश्वत पर रोक सिर्फ कानून से नहीं लग पाएगी। इसके लिए तो देश में एक जन-आंदोलन चलना चाहिए, जिसके तहत देश के कम से कम 10 करोड़ भद्रलोक प्रतिज्ञा करें कि हम न रिश्वत लेंगे और न ही रिश्वत देंगे।
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