डॉ.वेद प्रताप वैदिक।
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा में एक बड़ा बुनियादी मुद्दा उठा दिया। वे बोल तो रहे थे, एकीकृत कराधान बिल (जीएसटी) पर लेकिन उन्होंने मुद्दा उठा दिया, न्यायपालिका का। उनका कहना था कि अगर केंद्र और राज्य में एकीकृत कराधान को लेकर मतभेद हो जाए तो उसके निपटारे के लिए अदालतों की शरण में जाना ठीक नहीं है। अब यदि टैक्स लगाने का अधिकार भी अदालतों के हाथ में चला गया तो सरकार के पास क्या रह जाएगा? उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के परसों दिए गए उस फैसले का भी जिक्र किया, जिसमें आपदा-सहायता कोष की स्थापना का आदेश दिया गया है।
वित्त मंत्री कहते हैं कि बजट तो पारित हो गया है, अब इस कोश के लिए पैसा कहां से लाया जाए? उन्होंने कहा कि आजकल अदालतें एक के बाद एक ऐसे फैसले कर रही है, जिनसे संसद और सरकार के अधिकारों में कटौती होती जा रही है। यह प्रवृत्ति शक्ति-पृथीक्करण के सिद्धांत के खिलाफ है। विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- ये तीनों मिलकर ही शासन चलाते हैं। इन तीनों को अपनी लक्ष्मण-रेखाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
जेटली ने जो कहा, उसमें गलत कुछ नहीं है लेकिन उन्हें और नरेंद्र मोदी को खुद से यह पूछना चाहिए कि इस अदालती अतिवाद का कारण क्या है? उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के बारे में जो तेजाबी टिप्पणी की, वह वास्तव में प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की भर्त्सना है। उन न्यायाधीशों की इतनी हिम्मत कैसे हुई? इसलिए कि उन्हें जनता का मौन समर्थन मिला। सर्वोच्च न्यायालय को उत्तराखंड विधानसभा में मतदान कराना पड़ा और राष्ट्रपति शासन को कुछ घंटों के लिए खूंटी पर लटकाना पड़ा। राष्ट्रपति की नाक नीची हुई।
यह क्यों हुआ? क्योंकि सरकार अपना काम ठीक से नहीं कर रही है। यों भी अदालत इस सरकार से खफा है, क्योंकि उसने जजों की नियुक्ति की पद्धति बदलने की कोशिश की थी। यह सचमुच विचित्र है कि हमारी अदालत आजकल वे काम कर रही हैं, जो नगरपालिकाएं करती हैं। उसके फैसले कचरा प्रबंधन, पार्किंग शुल्क, सूखा-प्रबंधन, नदी-प्रबंधन, यातायात-प्रबंधन, कारों की खरीद आदि पर आ रहे हैं। ये कानूनी विवाद नहीं हैं। ये नीति-निर्माण के मामले हैं।
जाहिर है कि ये काम अदालत के नहीं, सरकार के हैं। अदालत के ऐसे और इनसे बड़े फैसलों की जब अति होने लगी तो 1975 में इंदिरा गांधी ने जो कदम उठाए थे, उनसे अदालतें थर्रा गई थीं। इंदिराजी ने जो किया था, वह ठीक था या नहीं, यह अलग प्रश्न है। 1935 के आस-पास अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डिलानो रुजवेल्ट भी अपने सर्वोच्च न्यायालय के साथ भिड़ गए थे। अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा ताकतवर हैं लेकिन रुजवेल्ट ने उसे इसलिए ठिकाने लगा दिया क्योंकि रुजवेल्ट की नीतियां बहुत लोकप्रिय थीं और पांच घंमडी जजों के फैसलों से जनता नाराज़ थी। वर्तमान सरकार और संसद को यदि अपने अधिकारों को सुरक्षित रखना है तो सबसे पहले उन्हें अपना काम ठीक से करना होगा और फिर उनमें इतना हौसला भी पैदा हो जाएगा कि वे अदालतों के अतिवाद से टक्कर ले सकें।
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