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यही है सच्चाई,रस्म निभाई, कैसे होगी हिन्दी की भलाई

खरी-खरी            Sep 14, 2015


ऋतुपर्ण दवे हिन्दी के लिए हिन्दी में कुछ किया जाए तो अच्छा लगता है। लेकिन जब दीगर भाषा-भाषी कुछ करते हैं तो हम आश्चर्य में होते हैं और ठगा सा महसूस करते हैं। जिस दिन हिन्दी बोलने में हम गर्व महसूस करेंगे, सच में हिन्दी कहां से कहां पहुंच जाएगी। इस बार हिन्दी दिवस पर दो दिन पहले ही भोपाल में संपन्न 10 वें विश्व हिन्दी सम्मेलन की चर्चा न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। काश ये आयोजन हिन्दी दिवस के दिन होता। क्या किया जाए, यही तो है यही है हिन्दी की सच्चाई और रस्म निभाई, कैसे होगी हिन्दी की भलाई। संविधान सभा ने भले ही 14 सितंबर 1949 को एक मतेन यह निर्णय लिया कि हिन्दी राजभाषा होगी, लेकिन कड़वा सच यह कि हिंदी कामकाज की भाषा आज तक नहीं बन सकी। दुख तो इस बात का है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ही अंग्रेजी में हिन्दी की समृध्दि की बात करें। हिन्दी को आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सका है। इसे विडंबना ही कहेंगे, योग को 177 देशों का समर्थन मिला लेकिन हिन्दी के लिए 129 का समर्थन नहीं जुटाया जा सकता? सरहदों के पार जापान, मिस्त्र, अरब, रूस में हिन्दी को लेकर कुछ ज्यादा ही सक्रियता दिख रही है, बहुत ही सम्मान की बात है। भारत में ऐसा क्यों नहीं ?, शायद इसका जवाब बहुत ही कठिन होगा। अंग्रेजी बोलने में हमें गर्व होता है, हिन्दी बोलने में हीनता और जब तक इस भाव को हम पूरी तरह से नहीं निकाल देंगे, हिन्दी को सम्मान और सर्वमान्य भाषा के रूप में कैसे देख पाएंगे। डॉ. मारिया नेज्येशी, हंगरी में हिन्दी की प्रोफेसर हैं। मुंशी प्रेमचंद पर पीएचडी की है। वो असगर वजाहत के हिन्दी पढ़ाने के लहजे से प्रभावित हुईं और हिन्दी सीख गईं। जर्मनी में हिन्दी शिक्षक प्रो. हाइंस वरनाल वेस्लर हिन्दी को समृद्ध भाषा मानते हैं, जर्मनी की युवा पीढ़ी को भारतीय वेदों, ग्रन्थों, चौपाइयों, दोहों इत्यादि के जरिए इसका विस्तृत परिचय देते हैं। उनका मानना है कि हिन्दी के एक-एक शब्द का उच्चारण जुबान के लिए योग जैसा है। hindi-typing-image वैज्ञानिक और सॉफ्टवेयर कंपनियों के कई मुखिया भी इस बात को बेहिचक मानते हैं कि डि़जिटल भारत का सपना तभी पूरा हो पाएगा जब हिन्दी को सूचना और प्राद्योगिकी के क्षेत्र में अनिवार्य किया जाएगा। एक आंकड़ा बताता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों की 9 हजार के लगभग वेबसाइट्स हैं जो पहले अंग्रेजी में खुलती हैं। यही हाल हिन्दी में कंप्यूटर टायपिंग का है। चीन, रूस, जापान, फ्रान्स सहित दूसरे देश कंप्यूटर पर अपनी भाषा में काम करते हैं लेकिन भारत में हिन्दी मुद्रण के ही कई फाण्ट्स प्रचलित हैं। इनसे परेशानी यह कि अगर वही फॉण्ट दूसरे कंप्यूटर में नहीं हो तो खुलते नहीं है, विवशतः हिन्दी मुद्रण के कई फाण्ट्स कंप्यूटर पर सहेजने पड़ते हैं। हिन्दी समाचार-पत्रों में रोमन शब्दों को लिखने का हिन्दी चलन भी खूब हो चला है। इसकी वजह शब्दों की निश्चित सीमा या आसान मायने, कुछ भी हो सकते हैं पर लगता नहीं कि यह भी हिन्दी के साथ अन्याय है। रोमन लिपि के 26 अक्षरों की अंग्रेजी, देवनागरी लिपि के 52 अक्षरों पर भी अपना कब्जा जमाती दिखती है। शायद इसका कारण अपनी स्वयं की सर्वमान्य भाषा को लेकर बंटा होना और गंभीर नहीं होना है, जैसा दूसरे देशों में है। हम राज्य, भाषा और बोली को लेकर ही धड़ेबाजी करते हैं और अंग्रेजी को तरक्की का जरिया मानते हैं। काश पूरे भारत में संपर्क और सरकारी कामकाज की अनिवार्य भाषा हिन्दी होती तो देश का मान और भी बढ़ता। समृध्द हिन्दी के भी अच्छे दिन आएंगे, हिन्दी ही तो भारत में वो भाषा है जो हर जगह, समझी और बोली जाती है बस जरूरत है कि देश में आपसी संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारने की। हिन्दी के भी अच्छे दिन आएंगे, जरूर आएंगे लेकिन इसके लिए बजाए औपचारिकता के सकारात्मक और ईमानदार पहल की जाए।


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