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सवाल हीरो बनाम आतंकवाद का नहीं संवाद का है! हालात को हां या ना में नहीं समझ सकते।

खरी-खरी, मीडिया            Jul 17, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। इंटरनेट कनेक्शन का डेटा पैक, एक अख़बार और चैनल के लिए महीने का ख़र्चा। मिलाजुलाकर आप हिन्दी के दर्शक हर महीने हज़ार रुपये तो ख़र्च करते ही होंगे। अब आपसे एक सवाल है। पिछले छह महीने में हिन्दी के किस अख़बार ने, किस चैनल ने या वेबसाइट ने कश्मीर की घाटी में जाकर वहां के बदलते समाज की रिपोर्टिंग की है। अगर आपको लगता है कि रिपोर्टिंग हुई है तो आपको उनके लिखे को याद करना चाहिए। आपको याद आएगा कि कश्मीर में हालात क्यों बिगड़े हैं। मैं कभी कश्मीर नहीं गया, न ही वहां की जटिलताओं की समझ है, इसलिए ‘प्राइम टाइम’ के लिए तमाम वेबसाइट और अखबारों में छपे बीस से अधिक लेख छान मारे। ये सभी लेख शुक्रवार को बुरहान मुज़फ्फर वानी की मौत के बाद छपे हैं। विश्लेषणों की बाढ़ आ गई है। हमारी सहयोगी बरखा दत्त दो हफ्ता पहले कश्मीर गईं थीं। वहां से उन्होंने पूरा हफ्ता एक सीरीज किया था। जब वे लौट कर आईं तो मेकअप रूम में बातचीत के दौरान यह सवाल उठा कि कितने दर्शकों में टीवी रिपोर्टिंग के इस पुराने फार्मेट के लिए धीरज बचा होगा। शुक्रवार रात बुरहान मुज़फ्फर वानी की मौत के बाद यह प्रसंग याद आ गया। आप दर्शकों की दिलचस्पी का फार्मेट भले बदल गया हो मगर कश्मीर के हालात तो नहीं बदले हैं। कश्मीर के हालात को हां या ना में नहीं समझ सकते। रिपोर्टिंग की बारीकी ही आपकी समझ का आधार तैयार करेगी। बरखा ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पढ़े-लिखे नौजवान आतंक के रास्ते पर जा रहे हैं। इनमें से कोई टॉपर है तो कोई क्रिकेटर। इनके लिए आतंक का रास्ता ग्लैमर का रास्ता हो गया है। ज़ाहिर है वो आतंक में ग्लैमर की छौंक नहीं डाल रही थीं बल्कि ग्लैमर होते आतंकवाद के नए दौर की सूचना आपको दे रही थीं कि वहां अब आतंकवादी अपना चेहरा और नाम नहीं छिपाते। अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं। वैसे ‘टेलीग्राफ’ में संकर्षण ठाकुर की रिपोर्ट पढ़ेंगे तो उसमें भी यही है कि सुरक्षा एजेंसियां भी सरकार को अपनी रिपोर्ट में इसी नए दौर की बात लिख रही थीं। पिछले छह महीने में एनकाउंटर में करीब 80 आतंकवादी मारे गए हैं। यह कोई सामान्य संख्या नहीं है। कई आतंकवादियों के जनाज़े में भारी भीड़ देखी गई है। जनाज़ा वहां के समाज के एक तबके का शक्तिप्रदर्शन का ज़रिया बन गया है। ऐसा क्या हो गया जो कश्मीर शांति के रास्ते पर लौटता दिख रहा था, जहां पर्यटकों के जाने का सिलसिला बढ़ गया था, बाढ़ के समय सेना के काम की लोग तारीफ कर रहे थे, दीवाली की रात प्रधानमंत्री भी वहीं मौजूद रहे, वहां ऐसा क्या हो गया कि आतंक का एक नया दौर सामने दिखने लगा। जिस दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग से कुछ ही दिन पहले महबूबा मुफ्ती चुनाव जीतीं, प्रधानमंत्री ने बधाई ट्वीट किया, उन्हीं इलाकों से जनाज़े में इतनी भीड़ कैसे जमा हो गई। हिज़्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान के जनाज़े में शामिल लोगों की संख्या से कश्मीर कवर करने वाले पत्रकार भी हैरान हैं। सुरक्षा एजेंसियों से जब पत्रकार बात कर रहे थे तब वे यह सब पूछने लगे कि इस वक्त एनकाउंटर क्यों हुआ जबकि एजेंसियां बुरहान को लंबे समय से ट्रैक कर रही थीं। पत्रकारों ने पूछा कि क्या वो पकड़ा नहीं जा सकता था। किसी ने यह पूछा कि मारने के बाद उसकी तस्वीर सरकार की तरफ से सोशल मीडिया पर क्यों डाली गई। जानबूझ कर लोगों को उकसाने के लिए या कोई और वजह थी। जवाब मिला कि जो प्रतिक्रिया देखने को मिली उसकी कल्पना हमने नहीं की थी। जबकि कश्मीर में सबको मालूम है कि आतंकवादी के हर जनाज़े में भीड़ का पहुंचना एक नया तरीका हो गया है। टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के रायबहादुरों ने एक चालाकी की है। उनके सवाल है कि कुछ लोग आतंकवाद को ग्लैमराइज़ कर रहे हैं। कई बार ये कुछ सेकुलर लोग हो जाते हैं। इस तरह से यह सवाल पूछा जा रहा है जैसे कश्मीर की समस्या इन्हीं दो चार लोगों के फेसबुक पोस्ट के कारण है। उन्हें कश्मीर के भीतर जनाज़े में आए हज़ारों लोग नहीं दिख रहे। मीडिया इन लोगों से बात क्यों नहीं करता है। क्या सरकार की तरह मीडिया को भी भरोसा नहीं रहा। बहरहाल टीवी ने अपना सवाल चुन लिया है। वो कश्मीर की आवाज नहीं सुनेगा। किसी सेकुलर को खलनायक बनाकर आपको अपनी बात सुनायेगा। हालात को देखते हुए इस बार सरकार भी सतर्क है। इसलिए वो विपक्ष को भी भरोसे में लेकर चल रही है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सोनिया गांधी और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को फोन किया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले में सरकार और विपक्ष एक साथ लगते हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद के बयान की सराहना की है। यह सब क्यों हो रहा है। शायद इसलिए कि हालात और न बिगड़ जाएं। सरकार के साथ-साथ दिल्ली की मीडिया को भी सतर्कता बरतनी चाहिए। यह सवाल उठेगा कि आतंकवाद कैसे इस हद तक आ गया जब कि उसके नियंत्रण में आ जाने की बात कही जा रही थी। ‘स्क्रोल’ वेबसाइट पर हमने एक रिपोर्ट देखी। कश्मीर की मीडिया में किस तरह रिपोर्टिंग हुई है, जब आप यह देखेंगे तो दिल्ली और श्रीनगर की दूरी समझ आ जाएगी। ‘ग्रेटर कश्मीर’ अख़बार ने आतंकवादी नहीं लिखा। बुरहान लिखा। ऐसे लिखा जैसे कोई चित्कार उठी हो और उसे पुकारा हो। ‘राइज़िंग कश्मीर’ ने लिखा कि बुरहान को अप्रत्याशित विदाई मिली। ‘कश्मीर मोनिटर’ ने कमांडर बुरहान लिखा। दिल्ली की मीडिया आतंकवादी से शुरू होता है और आतंकवादी पर खत्म होता है। यह अंतर क्यों हैं। क्या दिल्ली का टीवी मीडिया बिल्कुल ही नहीं जानना चाहता है कि ये लोग क्यों एक आतंकवादी के जनाज़े में शामिल होने आए हैं। इस सवाल में क्या ख़राबी है। क्यों जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को उन्हीं अलगाववादियों से शांति की अपील करनी पड़ी है। अलगाववादी सैय्यद अली शाह गिलानी ने लोगों से अपील की है कि थानों पर हमला न करें और सांप्रदायिक सद्भाव बनाकर रखें। आप याद कीजिए इसी गिलानी को लेकर कुछ टीवी चैनल और पार्टियों के प्रवक्ता अपना राष्ट्रवाद की अधकचरी समझ उगलते रहते हैं। क्या अब वे अपने सवालों को धुनेंगे कि आतंकवाद से लड़ना है तो अलगावादी हुर्रियत नेता से अपील क्यों की जाती है जो भारत स्थित पाकिस्तान के दूतावास में इफ्तारी खाने जाते हैं। केंद्र और राज्य सरकार दोनों के सामने गंभीर चुनौती है। वो एंकरों के भड़काऊ सवालों की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा का मूल्यांकन नहीं कर सकती है। गनीमत है इस बार कोई उनके झांसे में नहीं लगता। कश्मीर में हालात सामान्य बताये जा रहे हैं मगर स्थिति नियंत्रण में होते हुए भी नहीं है। जगह-जगह हुई हिंसा में मरने वालों की संख्या 23 पहुंच गई है। बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मी और आम लोग भी घायल हुए हैं। लोगों का गुस्सा इतना भड़का हुआ है कि कई थानों पर हमला हुआ है और एक पुलिस की गाड़ी झेलम नदी में फेंक दी गई और एक जवान की मौत भी हो गई। इस घटना से महबूबा मुफ्ती के लिए भी मुश्किलें बढ़ी हैं। उनकी पार्टी के सांसद हामीद कर्रा ने कश्मीर लाइफ नाम की वेबसाइट को दिए अपने बयान में कहा है कि पीडीपी बदल गई है। 2008 में जब फायरिंग में 6 नौजवान मरे थे तब पीडीपी सरकार से बाहर आ गई थी। इस बार 18 नौजवान मारे गए हैं मगर पीडीपी चुप है। ज़ीरो टालरेंस और मैक्सिमम रिस्ट्रेन यानी अधिकतम संयम की नीति खोखली साबित हुई है। उन्होंने केंद्र और राज्य दोनों पर आरोप लगाए हैं। कर्रा ने कहा है कि छह महीने से घाटी उबल रही है मगर पीडीपी-आरएसएस के साथ गलबहियां कर रही है। महबूबा मुफ्ती भी इस चुनौती को समझती हैं। उन्होंने कहा है कि बाद की घटनाओं में मारे गए लोगों की स्थिति के बारे में ग़ौर करेंगी। सरकार के प्रवक्ता नईम अख़्तर ने कहा है जो मौत हुई है उसके लिए प्रदर्शनकारी ज़िम्मेदार हैं। सरकार सभी मौतों की जांच करेगी कि कहीं सेना ने ग़लत गोली चलाई है। मगर ज्यादातर मामलों में प्रदर्शनकारियो ने थानों पर हमला किया है। बहुत जगहों पर पुलिस को कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अमरनाथ यात्रा शुरू हो गई है। यह एक राहत की ख़बर है और हालात सामान्य होने की निशानी। दिल्ली करे तो क्या करे। मैंने एक कश्मीरी नौजवान से बात की। उससे जो बातचीत हुई, मैं उस बातचीत के आधार पर एक कश्मीरी नौजवान की बेचैनियों को आपके सामने रखना चाहता हूं। ध्यान रहे कि बातचीत सिर्फ एक से हुई है। इसलिए मैं बहुत दावे से नहीं कह सकता कि इसे बहुसंख्यक युवाओं की आवाज़ मान सकते हैं या नहीं। वो लड़का कश्मीर से बाहर भारत में ही किसी कॉलेज में पढ़ता है। उसने कहा कि जब तक वो कॉलेज के कैंपस में है उसके अनुभव भारत को लेकर सामान्य ही होते हैं। कई बार बहुत अच्छे भी होते हैं। जब वो कैंपस से बाहर जाता है उसके अनुभव बदलने लगते हैं। लोग उसे कश्मीरी और मुसलमान के अलग अलग चश्मों से देखने लगते हैं। “मुझे हिन्दुस्तान का संविधान अच्छा लगता है मगर जब लगता है कि उसके रहते भी कोई यह तय कर सकता है कि हम क्या खाये क्या पीये और कैसे रहें तो मैं चिन्तित हो जाता हूं। जब मैं भारत के कालेज से कश्मीर जाता हूं तो एक तरफ चीन दिखाई देता है। एक तरफ पाकिस्तान दिखाई देता है। दोनों पर भरोसा नहीं होता। हिन्दुस्तान का ही रास्ता दिखता है मगर उसकी ज़्यादतियां मुझे बेचैन कर देती हैं। मुझसे बात करने वाला कोई नही है। मुझे रास्ता बताने वाला कोई नहीं है। मैं अपने वजूद को लेकर परेशान होता रहता हूं। इसका फायदा कभी पोलिटिकल इस्लाम उठा लेता है जो हमारे जैसों को आतंक के रास्ते पर धकेल देता है। हम दुविधा में हैं।” सवाल हीरो बनाम आतंकवाद का नहीं है। सवाल है संवाद का। कश्मीर से आप कैसे बात करते हैं, क्या समझ कर बात करते हैं। कश्मीर के बहाने उत्तर भारत की राजनीति अगर सेट करेंगे तो इसका नतीजा शायद वो नहीं हो जो आप इन बहसो में जीतकर हासिल कर लेना चाहते हैं। मुझे उस लड़के से बात कर यही लगा कि कश्मीर से बात की जाए। क्या हम कश्मीर से बात कर रहे हैं? कस्बा से साभार


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