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सांसद हैं, मनरेगा के मजदूर नहीं

खरी-खरी            Aug 06, 2015


[caption id="attachment_2904" align="alignnone" width="203"]प्रकाश हिन्दुस्तानी प्रकाश हिन्दुस्तानी [/caption] डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी 25 सांसदों के निलंबन को लेकर लोकसभा में चल रहे गतिरोध के बारे में सोशल मीडिया में जगह-जगह यह टिप्पणी आ रही है कि सदन का कामकाज न होने पर सांसदों का वेतन काट लेना चाहिए। ऐसी टिप्पणी अपरिपक्वता की निशानी है। हमारे माननीय सांसद देश की सबसे बड़ी पंचायत के पंच हैं, कोई मनरेगा के मजदूर नहीं। संसद में होने वाले विवाद, परिवाद, विरोध प्रदर्शन आदि सभी गतिविधियां हमारे लोकतंत्र का एक हिस्सा हैं। संसद का बहिष्कार करना भी सदस्यों की एक गतिविधि है। संसद सदस्य लोकसभा में भले ही मौजूद न हो, संसद भवन परिसर में गांधी प्रतिमा के समक्ष मौजूद है और विरोध का कार्य कर रहे हैं। यह विरोध ही लोकतंत्र की शक्ति है। विरोध किस विषय पर हो रहा है यह चर्चा का विषय हो सकता है। संसद की गतिविधियों को लेकर सोशल मीडिया में और कई बार मास मीडिया में भी ऐसी टिप्पणियां आती हैं, जो बताती हैं कि हमें एक लोकतंत्र के नाते अभी और भी परिपक्व होना है। संसद में सदस्यों को गड्ढे नहीं खोदने है और ना ही नहरे बनानी है। उन्हें वहां देश के विभिन्न मुद्दों पर विचार व्यक्त करना है, विरोध या समर्थन करना है, कानून बनाना है। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार लोकसभा की स्पीकर ने किन्हीं सदस्यों का निलंबन किया हो। पिछली लोकसभा में भी ऐसे मौके आ चुके हैं। एनडीए की सरकार आज जिस तरीके से निलंबन पर टिप्पणियां व्यक्त कर रही है और संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को दोषी कह रही है। पिछली लोकसभा में विपक्ष में रहते हुए उन्होंने भी यहीं सब किया था। पन्द्रहवीं लोकसभा के मानसून सत्र में केवल छह दिन काम हुआ और 13 दिन तक हंगामा हुआ था। पन्द्रह विधेयक पेश किए जाने थे, लेकिन चार ही पेश हो सकें। सदस्यों ने ३९९ तारंकित प्रश्नों की सूची तैयार की थी। जिसमें से 11 प्रश्नों के जवाब ही मिल पाएं। 4 सप्ताह चलने वाला मानसून सत्र तीन सप्ताह तक हंगामों में लगा रहा। 1952 से अब तक सबसे कम काम पन्द्रहवीं लोकसभा में मानसून सत्र में हुआ था। लोकसभा के तीन सत्र और राज्यसभा के दो सत्रों में सदस्यों को करीब 125 दिन चर्चाओं में हिस्सा लेना होता है। 1950 के दशक में लोकसभा की बैठकें औसतन 127 दिन तक चलती थी। अब यह घटकर 70 के आसपास सीमट गई है। 2008 में बहुत ही बूरे हाल थे, जब लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें केवल 46 दिन ही हो पाई। इस सब के पीछे विभिन्न कारण है और वे सभी कारण लोकतांत्रिक है, इसी व्यवस्था का हिस्सा है, जो हमने स्वीकार किया है। लोकसभा की कार्यवाही बाधित होने की खबर के साथ ही हिन्दी न्यूज चैनल दिखाने लग जाते है कि सदन में गतिरोध से 70 करोड़ का नुकसान या सदन में गतिरोध से एक दिन का फलां-फलां धनराशि का नुकसान। कुछ टीवी चैनल तो घंटे, मिनट तक लगाकर बता देते है कि सदन की एक दिन की कार्यवाही पर कितना पैसा खर्च होता है और इससे कितना नुकसान हो चुका है। ऐसी तमाम खबरें हास्यास्पद लगती है, क्योंकि सदन की कार्रवाई का मूल्यांकन रुपए पैसे में नहीं किया जा सकता। अगर सदन 365 में से 365 दिन ही चलें और गलत फैसले लिए जाए, तो क्या कोई चैनल यह दिखाएगा कि सदन पर खर्चे की पूरी वसूली हो गई? इसी तरह सोशल मीडिया पर सांसदों के वेतन को लेकर भी टिप्पणियां करते रहते है। उन्हें लगता है कि देश की सारी संपदा इन्हीं सांसदों के वेतन भत्तों पर खर्च हो रही है। वास्तव में ऐसा है नहीं। सांसदों से ज्यादा वेतन और खर्चे हमारी नौकरशाही में खर्च हो रहे है। वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के यहां 20-25 सरकारी कर्मचारियों की फौज सेवा में लगी रहती है। अगर उन सब का वेतन और अन्य सुविधाएं उस आईएएस या आईपीएस के वेतन में जोड़ दी जाए, तो वह राशि प्रतिवर्ष करोड़ रुपए से भी अधिक की बैठेगी। इन अफसरों को अपने चुनाव क्षेत्र से आए दर्जनों लोगों को हर रोज चाय, नाश्ता और भोजन आदि पर खर्च नहीं करना पड़ता, लेकिन इन नौकरशाहों के प्रति लोगों के मन में इस तरह की कोई भावना नहीं है। जबकि यह बात साबित हो चुकी है कि भारतीय नौकरशाही दुनिया की भ्रष्टतम नौकरशाही में शामिल है। कई अफसर तो दिनभर में एक घंटा भी कार्य नहीं करते। इनकी नौकरी इतनी पक्की है कि इन्हें हटाना भी हो तो राष्ट्रपति की मंजूरी लगती है और ये लोग आजीवन तनख्वाह लेते है और रिटायर्ड होने के बाद मोटी पेंशन। नोएडा के यादव सिंह, मध्यप्रदेश के अरविंद और टीनू जोशी इसके उदाहरण है। एक और बात सोशल मीडिया पर अक्सर आती है कि सांसदों को इतना सस्ता भोजन क्यों? शायद लोगों को यह बात पता नहीं है कि रियायती दरों पर मिलने वाला यह भोजन केवल सांसदों के लिए नहीं, बल्कि वहां आने वाले अतिथियों और कर्मचारियों के लिए भी है। संसद की सुरक्षा और व्यवस्था में जितने लोग शामिल है, उनकी संख्या सांसदों से दस गुना से भी ज्यादा है। अधिकांश संस्थानों में सेवारत कर्मचारियों के लिए सस्ती कैंटीन की व्यवस्था आम है। इसलिए संसद की कैंटीन की सब्सिडी पर आपत्ति करना औचित्यहीन लगता है। indian-parliament-003 भारत में कम है सांंसदों का वेतन लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों को मिलने वाले वेतन और भत्तों की समीक्षा के लिए जो समिति बनाई गई थी उसकी लगभग आधी सिफारिशें मानने से सरकार ने मना कर दिया है। सूचना है कि भारत सरकार ने समिति की 65 सिफारिशों में से 18 को पूरी तरह खारिज कर दिया है। तीन सिफारिशों के बारे में कहा है कि वक्त आने पर फैसला लिया जाएगा और 15 सिफारिशों पर असहमति जताई गई है। पता चला है कि सरकार ने जिन सिफारिशों को दरकिनार कर दिया है, उनमें से प्रमुख है:- 1. पूर्व सांसदों को भी डिप्लोमेटिक पासपोर्ट मिलना चाहिए। 2. पूर्व सांसदों को टोल टैक्स में छूट दी जाए। 3. विदेश जाने पर सांसद को लोकल फोन दिया जाए। 4. सांसदों को सहयोगी को फस्र्ट एसी में यात्रा की सुविधा मिले। 5. सांसदों के जीवन साथी को फस्र्ट एसी में यात्रा की छुट दी जाए। 6. ऑफिस अलाउंस पर्सनल अस्सिटेंट के बजाय सांसदों को ही दिया जाए। 7. दैनिक उपयोग के लिए कैंटीन की सुविधा दी जाए। इस तरह की सुविधा सेना के अधिकारियों को मिलती है। 8. सांसदों को हाउसिंग लोन देने की सुविधा की मांग अस्वीकार कर दी गई है। इसके साथ ही सांसदों के लिए हाउसिंग सोसायटी बनाने की बात भी नहीं मानी गई। न ही सांसदों को ऑफिशियल कार देने की बात मानी गई है। 9. सांसदों ने मांग की थी कि उन्हें प्रदेश की राजधानी में गेस्ट हाउस की सुविधा मिलना चाहिए। यह भी नहीं मानी गई। 10. संसदीय समितियों के प्रमुखों को दिल्ली के बाहर जाने पर कार, सुरक्षा और प्रोटोकोल की बात भी नहीं मानी गई। 11. दैनिक भत्ता दो हजार रुपए से बढ़ाकर पांच हजार रुपए प्रतिदिन करने की मांग नामंजूर कर दी गई। सरकार ने यह आश्वासन दिया है कि उचित समय आने पर इस पर विचार किया जाएगा कि संसद के परिसर में सांसदों के लिए ऑफिस हो, उनके चुनाव क्षेत्र का भत्ता बढ़ाया जाए और उन्हें पर्सनल लोन की सुविधा दी जाए। पूर्व सांसदों की पेंशन को लेकर भी सरकार ने आश्वासन दिया है कि इसके बारे में कार्य किया जाएगा। सरकार सांसदों के पक्ष में जिन सिफारिशों पर विचार कर रही है, उनमें प्रमुख ये है:- 1. सांसद निधि बढ़ाई जाए, जो वर्तमान में प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपए दी जाती है। 2. केन्द्रीय विद्यालयों में सांसदों का कोटा प्रतिवर्ष 15 तक किया जाए। 3. सांसदों के निजी सहायकों को भी एयरपोर्ट के लाउंज में जाने की सुविधा दी जाए। 4. सांसदों द्वारा चुने गए गांवों को अलग से बजट दिया जाए। 5. सांसदों की सिफारिश पर उनके संसदीय क्षेत्र में हैंडपंप लगाने की सुविधा दी जाए। 6. सांसदों की सलाह पर उनके चुनाव क्षेत्र में क्षेत्र विशेष तक सड़क बनाने की सुविधा दी जाए। भारतीय मीडिया में सांसदों के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं को लेकर अक्सर नाकारात्मक टिप्पणियां आती रहती है। हमेशा इस बात की दुहाई दी जाती है कि भारत ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसे में सांसदों का वेतन बढ़ाना उचित नहीं है। सोशल मीडिया में भी संसद परिसर की कैंटीन को लेकर चुटकियां ली जाती है कि वहां इतना सस्ता भोजन और जलपान उपलब्ध है। इस बारे में कुछ सांसदों का कहना है कि संसद भवन परिसर की कैंटीन केवल सांसदों के लिए नहीं है। सांसदों से करीब दस गुना ज्यादा उस परिसर में आने वाले कर्र्मचारी और आगंतुक उसका फायदा उठाते है। ऐसे में इस सुविधा को लेकर टिप्पणी करना उचित नहीं। कुछ सांसदों का यह भी कहना है कि भारत में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों का वेतन यूरोप ही नहीं, एशिया के ही कई देशों की तुलना में काफी कम है। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में ही सांसदों का वेतन ज्यादा है। पाकिस्तान में सांसदों (मेम्बर ऑफ नेशनल एसेम्बली) का वेतन 1 लाख 20 हजार से लेकर दो लाख रुपए महिने तक है। हर महीने उन्हें एक लाख रुपए चुनाव क्षेत्र भत्ता दिया जाता है। ऑफिस के लिए हर महीने 1 लाख 40 हजार और इस्लामाबाद आने-जाने के लिए 48 हजार रुपए महीने दिया जाता है। इसके अलावा उन्हें हर महिने 1 लाख 70 हजार रुपए तक के टेलीफोन की सुविधा भी उपलब्ध है। भारत के प्रधानमंत्री और स्पीकर का वेतन भी तुलनात्मक रूप से काफी कम है। ब्रिटेन में सांसदों का वेतन हर साल बढ़ता है और कभी-कभी तो साल में दो बार भी बढ़ जाता है। वर्तमान में उनका वेतन सालाना 74 हजार पाउंड (करीब 74 लाख रुपए), यूएस में करीब 45 लाख, कनाडा में करीब 36 लाख रुपए के बराबर वेतन और अधिक सुविधाएं उपलब्ध है। फ्रांस और जापान ने तय किया है कि सांसदों का वेतन किसी भी कीमत पर सर्वाधिक वेतन पाने वाले नौकरशाहों से अधिक ही होगा। जर्मनी में वहां का कानून कहता है कि सांसदों को इतना वेतन दिया जाए कि वे अपने तमाम कार्य आसानी से पूरे कर सके और उन्हें कभी भी पैसे की किल्लत न हो। स्विटरलैंड में सांसदों को वेतन या भत्ते नहीं दिए जाते। जो सांसद किन्हीं कंपनियों में नौकरी करते है, उन्हें वहां से सवेतनिक अवकाश देने का चलन है। मैक्सिको में संसद सदस्य शानदार वेतन पाते है, लेकिन वे और कोई भी नौकरी, धंधा नहीं कर सकते। अभी भारत में हाल यह है कि लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों का वेतन महाराष्ट्र के विधायकों से दो तिहाई है। सांसदों को वेतन के रूप में 50 हजार रुपए मिलते है, जबकि महाराष्ट्र के विधायकों का वेतन 75 हजार रुपए तक है। कर्नाटक के विधायकों का वेतन भी सांसदों से ज्यादा है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों का वेतन सांसदों से ज्यादा है। हालांकि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया केवल 25 हजार रुपया ही वेतन लेती है और पश्चिम बंगाल की ममता बेनर्जी ने आठ हजार रुपए वेतन तय कर रखा है। भारत में प्रशासनिक सेवाओं से जुड़े अधिकारियों का वेतन और भत्ते हमारे सांसदों से ज्यादा है। कुछ प्रमुख पदों पर बैठे इन अधिकारियों की सुविधाएं बेहिसाब है। इन अफसरों के घर पर 20-20 कर्मचारी काम कर रहे है, जिनका वेतन सरकार चुकाती है। अगर उन कर्मचारियों के वेतन पर होने वाला खर्च अधिकारियों की सुविधाओं पर हो रहे खर्च में जोड़ा जाए, तो यह आंकड़ा दस लाख रुपए महीने तक पहुंच सकता है। सांसदों को हर पांच साल में चुनकर आना होता है, लेकिन यह अधिकारी एक बार नौकरी में आ गए, तो आमतौर पर रिटायर होने तक सरकारी वेतन और सुविधा पाते रहते है। इन अधिकारियों को मिलने वाली सुविधाओं में मुफ्त मकान, मुफ्त पानी, बिजली, मुफ्त रसोईया, मुफ्त धोबी, मुफ्त सुरक्षाकर्मी, मुफ्त गाड़ी, मुफ्त ड्रायवर आदि शामिल है। सांसदों को दी जाने वाली सुविधा सीमित है और लोगों की अपेक्षा सांसदों से होती है कि वे उनके हर फोन का जवाब दें। हर चिट्ठी पर कार्रवाई करें। जब भी उन्हें बुलाया जाए, वे अपने क्षेत्र में आए और शादी, बर्थ-डे जैसे कार्यक्रमों में आए तो लिफाफे भी भेंट करें। इसके अलावा लोगों को अपने सांसदों से आशा होती है कि जब भी वह दिल्ली जाए, तब वे उनके रुकने, खाने का इंतजाम करें। अगर कोई बीमार हो, तो सांसद उसका इलाज कराने में मदद करें। सांसदों को दो मकान रखना जरूरी है। एक दिल्ली में और दूसरा अपने चुनाव क्षेत्र में। दोनों ही जगह उनके निजी कार्यालय व कर्मचारी होना जरूरी है। अगर सांसदों की तरफ से सेवा में थोड़ी भी कोताही हो जाए, तो मतदाता आरोप लगाना शुरू कर देते है कि हमारे सांसद तानाशाह हो गए है और न तो वे हमसे मिलना आते है न हमारी कोई सेवा करते है। हमारे सांसद ईमानदार बने रहें, इसके लिए जरूरी है कि उनका वेतन इतना तो हो कि वे अपने यहां आने वाले दर्जनों लोगों को चाय पिला सकें। अगर उनके चुनाव क्षेत्र में कोई कार्यक्रम है, तो वे बगैर पेट्रोल की चिंता किए मिलने जा सकें और इस सबसे ऊपर महत्वपूर्ण बात यह है कि वे इस देश के सबसे बड़े सदन के सबसे प्रमुख सदस्य है। अगर उनका वेतन नौकरशाहों से कम रहा, तो यह नौकरशाहों के लिए बड़ी सौगात होगी, जो आमतौर पर सीधे-सीधे जनता के लिए जवाबदेह नहीं होते है। अगर हमारे सांसदों को बेहतर वेतन मिले, तो ही हम उनसे उम्मीद कर सकते है कि वे बेईमानी का दामन न पकड़े।


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