श्रीकांत सक्सेना।
संविधान निर्माण के समय संविधान सभा ने एक नीति बनाई थी जिसके तहत संविधान सभा को सभी निर्णय सर्वानुमति से लेने की बाध्यता थी।
यदि किसी विषय पर सबकी राय एक न हो तो मत विभाजन या वोट का सहारा नहीं लिया जा सकता था?
ऐसी व्यवस्था विवादों को दूर रखने के नाम पर की गई थी, लेकिन मेहनत करने वाले और उसकी मेहनत पर मुफ़्त में पलने वालों साहिबानों के हितों की रक्षा संविधान सभा एक साथ कैसे कर सकती थी।
संविधान सभा में देशी राज्यों के 93 प्रतिनिधियों के अलावा भी बहुत से सदस्य मेहनत न करने वाले साहिबान वर्ग से ही आते थे।
लिहाज़ा मेहनत करने वालों के हक़ में किसी भी विषय पर 'सर्वानुमति' बनना असंभव थी!
सो ज़मींदारों और सूदखोरों के बुद्धिमान प्रतिनिधियों ने कुछ बेहतरीन काव्यात्मक रचनाशीलता का प्रयोग करके बस शब्दों में ही कुछ अच्छी-अच्छी बातें करके दुनिया का सबसे बड़ा संविधान रच डाला।
यही वज़ह है कि 1787 में बने अमरीकी संविधान में 223 वर्षों में कुल 27 संशोधन हुए हैं जबकि सत्तर वर्षों में भारतीय संविधान में 104 संशोधन हो चुके हैं।
किसानों के साथ सरकार के टकराव के पीछे भूमि सुधार क़ानून का न होना एक अहम वजह है।
ये मामला अभी फंसा हुआ है सरकार कॉरपोरेट माफिया से पंगा भी नहीं लेना चाहती और किसानों के वोट भी नहीं छोड़ना चाहती।
भारतीय खेती के वर्तमान स्वरूप में सुप्रिया सुले या पी चिदंबरम जैसे लाखों तथाकथित 'किसान' भूमि के बहुत छोटे से हिस्से से या फिर गमलों में फूल उगाकर ही करोड़ों रुपयों की आमदनी दिखा सकते हैं,क्योंकि खेती से हुई आमदनी पर टैक्स नहीं लगता।
दिल्ली के आसपास ऐसे बहुत से किसान बसते हैं जिनके महलनुमा मकानों के आगे एक से ज़्यादा बीएमडब्ल्यु और ऑडी कारें खड़ी होती हैं।
जिनके बीपीएल कार्ड भी बने हुए हैं, जो सरकार से तरह-तरह की विधवा, वृद्धावस्था पेंशन, सम्मान निधि या कभी वापस न किए जाने वाले बैंक ऋण आदि लेते रहे हैं।
आज़ाद भारत में भूसंबंधों का यह रहस्यलोक सरकार को विचलित नहीं करता।
वे काँटे से काँटा निकालने की कोशिश करती हैं और कोई ऐसा क़दम उठाने से घबराती हैं जो पारदर्शी और न्यायसंगत हो।
उसके सामने खेती का कार्पोरेटीकरण ही वह रास्ता है जिससे इस तिलिस्म को तोड़ा जा सकता है।
किसान भी इस छल को पहचान रहे हैं और अपनी ताक़त को भी तौल रहे हैं।
भारत और इंडिया की इस खींचतान में फ़िलहाल भारत बढ़त बनाए दिख रहा है।
ये कारपोरेट जगत और भूस्वामियों की निर्णायक लड़ाई है।
हालाँकि पूरे भारत में भूमि सुधार क़ानूनों को लागू किए बिना समानता,न्याय और साझा समृद्धि का सपना फिलहाल दूर की कौड़ी है। शुभमस्तु।_श्रीकांत
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