कीर्ति राणा!
नगर निगम की उदासीनता कहें या पुलिस की, राजनीतिक दबाव कहें या मनमर्जी का आलम... बावड़ी हादसा तो इंदौर से भोपाल तक अक्षमता की मिसाल बन चुका है।
इस हादसे ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि शहर में झांकीबाज नेताओं की भीड़ तो खूब है, लेकिन ऐसे सर्वमान्य नेता का अभाव वर्षों से यह शहर झेल रहा है, जिसकी आवाज का असर भोपाल तक नजर आए।
मुख्यमंत्री ने इसे अपने सपनों का ऐसा शहर बना दिया है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को भी अपने काम कराने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की आरती उतारना मजबूरी हो गई है।
किसी भी राजनेता ने जिम्मेदारी से रेस्क्यू को लीड नहीं किया... सब अफसरों के भरोसे ही छोड़ रखा था।
मंत्री, महापौर, सांसद, विपक्ष के विधायक, भाई-ताई-दादा फोटो खिंचाने की औपचारिकता पूरी कर निकल गए। सांसद चाहे जितनी सफाई दें, लेकिन जिस सिंधी समाज कोटे में एकमात्र टिकट इंदौर से फाइनल हुआ, उस समाज के निर्दोष मृतकों की अंतिम यात्रा में कम-से-कम न तो वे नजर आए, ना ही कंधा दे सके, जबकि महापौर से लेकर भाजपा राष्ट्रीय महासचिव तक उठावने-शोक बैठक में ढांढ़स बंधाते रहे।
बीते डेढ़ दशक में किसी नेता का कद इतना बढ़ा होने ही नहीं दिया गया कि वह सर्वमान्य हो सके।
एकमात्र विधायक आकाश विजयवर्गीय ऐसे संवेदनशील साबित हुए, जो घंटों न सिर्फ मौके पर मौजूद रहे, बल्कि रेस्क्यू में लगे लोगों के साथ ही पीड़ित परिवारों के भोजन-पानी की चिंता तो करते ही रहे।
बचाव कार्य में परेशानी ना बढ़े, इसलिए अपनी टीम को भी अंदर नहीं आने दिया।
यह ठीक है कि उनके क्षेत्र में घटना हुई थी, लेकिन शहर का असली जनप्रतिनिधि होने का दावा करने वाले बाकी नेताओं ने इस दिशा में क्यों नहीं सोचा?
मुख्यमंत्री से लेकर स्थानीय अधिकारियों के बीच तालमेल बनाने लायक कोई कद्दावर जनप्रतिनिधि नहीं रहने का ही दुष्परिणाम रहा कि स्थानीय अधिकारियों के सम्मुख भोपाल से मिलने वाले आदेश-निर्देश के पालन की लाचारी रही।
जो जनप्रतिनिधि हैं, उनमें तो अधिकारियों से यह यह पूछने का साहस भी नहीं कि समय पर सूचना देने के बाद भी एनडीआरएफ की टीम विलंब से क्यों पहुंची?
जिस मिलिट्री से उम्मीद थी कि आते ही चमत्कार कर देगी, वह संसाधनों से लैस क्यों नहीं थी? उसे स्थानीय स्तर पर संसाधन क्यों उपलब्ध कराने पड़े?
मिलिट्री को भी रेस्क्यू पूरा करने में 12 घंटे लग गए! पनडुब्बी मोटर थी, पर 60 फीट ऊपर तक गाद से भरे कुए को इस मोटर से तो खाली नहीं कर सकते थे।
शुरु से इस हादसे का कारण रहा नगर निगम तो यहां भी गैर जिम्मेदाराना ही बना रहा, बिना संसाधन के अफसर पहुंचे।
छोटी ग्वालटोली थाना क्षेत्र में गिरी होटल के दौरान चले रेस्क्यू ऑपरेशन में भी ऐसी ही गैर जिम्मेदारी नजर आई थी, जब संभागायुक्त से लेकर महापौर तक तो पहुंच गए थे, लेकिन तत्कालीन निगमायुक्त सबसे अंत में पहुंच सके थे।
अब बात की जा रही है कि आपदा प्रबंधन का अलग से अमला बनाएंगे? कोई जनप्रतिनिधि यह भी तो पूछे कि निगम के हर बजट में आपदा प्रबंधन मद में जो राशि दर्शाई जाती है, उसका हिसाब-किताब कौन देगा?
कलेक्टर खुद रेस्क्यू टीम के मेंबर की तरह भिड़े रहे, मिलिट्री टीम को मैदानी मदद करते भी लोगों ने उन्हें देखा है, लेकिन पूर्व कलेक्टर के मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव से अच्छे रिश्तों के चलते ही शायद ऐसा पहली बार हुआ है, जब जूनियर आईएएस को कलेक्टर की कमान सौंपी गई है। यदि इंदौर जैसे बड़े शहर के लिए यह परम्परा आगे भी जारी रही तो..?
भले ही कलेक्टर जूनियर हैं, लेकिन उनका कार्य क्षेत्र पूरा इंदौर जिला है। पुलिस कमिश्नर सीनियर होते हुए भी कार्यक्षेत्र इंदौर नगर निगम सीमा तक ही है, लेकिन बचाव कार्य के दौरान जारी होते आदेशों के चलते कलेक्टर मजबूर नजर आए।
चश्मदीद रहे लोगों ने यह भी देखा कि जब बचाव दल को कलेक्टर कोई आदेश देते तो उसका तुरंत पालन इसलिए भी नहीं हो पाया कि पदनाम में वरिष्ठ अधिकारी बचाव दल प्रमुखों को चर्चा के साथ ही अपने सुझाव समझाने लगते थे।
एक्सटेंशन वाले मुख्य सचिव के लिए भी इंदौर का यह हादसा दागदार इसलिए साबित होगा कि इस प्रमुख शहर में पदस्थ तीनों वरिष्ठतम अधिकारियों की बैच में भारी अंतर है।
पुलिस कमिश्नर 1997 बेच के, कमिश्नर 1999 और कलेक्टर 2009 बैच के हैं। वरिष्ठता में यह अंतर ऐसे मामलों में आपसी सामंजस्य के अभाव या इगो का कारण भी बन सकता है।
जबकि निर्वाचन के दौरान जिला निर्वाचन अधिकारी की हैसियत से जूनियर कलेक्टर भी वरिष्ठ अधिकारियों पर भारी रहते हैं।
बैच के हिसाब से कलेक्टर जूनियर होने के बाद भी उनका कार्यक्षेत्र पूरा इंदौर जिला है, जबकि पुलिस कमिश्नर सीनियर होते हुए भी उनका कार्यक्षेत्र इंदौर नगर निगम सीमा है।
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