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भोपाल गैस त्रासदी कुछ सवालों के जवाब बाकी

खरी-खरी            Dec 02, 2022


डॉ अलीम अहमद खान।

 2 - 3 दिसंबर1984 को विश्व समुदाय हमेशा याद रखेगा। विश्व की भीषणतम मानवीय त्रासदी को गुज़रे 38 साल हो गए हैं परन्तु कुछ सवाल आज भी ज्यों के त्यों खड़े हैं जिनका उत्तर बाकी है।

सबसे पहला सवाल तो यह है कि प्रदेश की राजधानी के छोला रोड क्षेत्र के पास यूनियन कार्बाइड कंपनी को अपना प्लांट स्थापित करने की अनुमति क्यों दी गई?

इस तरह की इकाइयों की स्थापना अमेरिका यूरोप के देशों में मिलना आसान नहीं है।

1962 में स्थापित रसायनिक खाद बनाने वाली इस यूनियन कार्बाइड कंपनी में सेविन मिथाइल आइसोसाइनाइड बनाना प्रारम्भ कर दिया था जिसकी नियमित निगरानी कोई सरकारी गैर सरकारी एजेंसी नहीं कर रही थी।

1984 में भोपाल शहर की आबादी लगभग 9 लाख रही इतनी बड़ी आबादी वाले शहर में बिना देखरेख के इस प्रकार का घातक रसायन बनाने का काम कई प्रश्न खड़े करता है।

1984 के हादसे के लगभग 3 वर्ष पहले एक मज़दूर की मौत भी हुई थी उस समय प्रबंधन यदि कोई एहतियात उपाय कर लेता तो इस त्रासदी से बचा जा सकता था।

समय समय पर मज़दूरों की शिकायत करने पर कंपनी ने ट्रेड यूनियन के नेताओं को नौकरी से हटाना प्रारम्भ कर दिया।

1984 के हादसे के पहले यूनियन कार्बाइड प्लांट की ख़बरों की भनक स्थानीय पत्रकार राजकुमार केसवानी तक पहुंची उन्होंने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र "रपट" में 26 सितम्बर 1982 को एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था "बचाइए हुज़ूर अपने शहर को बचाइये" 1 अक्टूबर को उन्होंने पुनः लिखा ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा भोपाल एवं 8 अक्टूबर को लिखा "न समझे तो मिट ही जाओगे।"

प्रेस की इस चेतावनी के बाद भी प्रशासन और शासन की तरफ से कुछ न करना कई सवाल पैदा करता है।

शहर से सटे इस औद्योगिक प्लांट के टैंक ई-610-ई 611  और ई-619 की बराबर निगरानी विशेषज्ञों द्वारा न होने के कारण ही यह हादसा सामने आया।

परिणाम स्वरुप 2 और 3 दिसम्बर की रात में जो कुछ हुआ वह आज भी इंसानी संवेदनाओ को तार तार कर रहा है।

किसी खतरे पर लोगों को आगाह करने के लिए 2 अलार्म थेजो चालू नहीं थे कुल  मिलाकर बचाव और चेतावनी के सारे विकल्प बंद थे।

कंपनी का प्रशासन तंत्र के संज्ञान में ये सारी बातें थी। इंडीकेटर अलार्म यदि चालू रहता तो हादसे की भयावहता का यह विकराल स्वरुप नहीं होता।

परिणामतः 2 - 3 दिसंबर को भोपाल की हवा में टनों जहरीली गैस फ़ैल गई। 1984 में 3 दिसंबर की सुबह होते होते भोपाल की दो प्रमुख अस्पतालों में लगभग 50 हज़ार लोग आ चुके थे।

इतनी बड़ी संख्या में इलाज और देखरेख की स्थिति में तत्कालीन अस्पताल तंत्र नहीं था।  इस कारण लोगों की मृत्यु होने लगी

3 दिसंबर की सुबह तक 500 से 1000 व्यक्तियोंके शव अस्पताल से श्मसान और कब्रिस्तान ले जाए गए। सबसे बड़ा सवाल जिसका रहस्य आज भी बरकरार है वह है भोपाल गैस हादसे के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी और रिहाई का जो आज भी रहस्य बना हुआ है।

सरकारी आकड़ों  में3700 से अधिक मौतें और गैर सरकारी आकड़े के हिसाब से 8000 से लेकर 10000 तक मौत इस हादसे में बताई जाती है

लगभग 5लाख लोगों पर इस ज़हरीली गैस का आंशिक या अधिक प्रभाव रहा।

1984 के समय लगभग 9 लाख की आबादी में से लगभग आधी आबादी इससे प्रभावित हुई।

इतनी बड़ी तबाही के बाद भी सरकार की तरफ से कोई कार्यवाही का न होना कई सवाल खड़े करता है।

3 दिसंबर 1984 को जनता द्वारा धरना प्रदर्शन उपरान्त भोपाल के हनुमान गंज थाना में प्रकरण दर्ज होता है।

एंडरसन के साथ सरकार का क्या व्यहवार था। इसे डॉन कर्जमैन की लिखी किताब में पढ़ा जा सकता है।

डॉन कर्जमैन लिखते हैं कि एंडर्सन अपने सहयोगियों के साथ 7 दिसंबर 1984 को इंडियन एयरलाइन्स के विमान से भोपाल हवाई अड्डेप्रातः पहुँचता है।

हवाई अड्डे पर तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज्यपुरी और कलेक्टर भोपाल मोतीसिंह अपने साथ यूनियन कार्बाइड के गेस्ट हॉउस में जाते हैं और एंडरसनको हिरासत में लिए जाने की जानकारी देते हैं।  7 दिसंबर को ही 3:30 पर उसे बताया जाता है कि 'हमने आपको भोपाल से दिल्ली ले जाने के लिए राज्य सरकार के विशेष विमान की व्यवस्था की है। 

वहां से आप अमेरिका लौट सकते है।  हज़ारों इंसान का कातिल अमेरिका चला गया फिर कभी दुबारा वह भोपाल और भारत नहीं आया। 

इस सवाल का जवाब आज भी सरकार के पास और सरकारी एजेंसियों के पास नहीं है। 29 सितम्बर 2014 में फ्लोरिडा के एक नर्सिंग होम में एंडर्सन की मौत हो गई।

हादसे के 30 वर्ष बाद मृत्यु तक वह कातिल कानून की गिरफ्त से बाहर रहा। भोपाल गैस हादसे के बाद मृतकों के बचे रिश्तेदार और उनके परिचितों की तरफ से एक आवाज़ सामाजिक कार्यकर्त्ता अब्दुल जब्बार रहे। 14 नवंबर 2019 को इनका निधन हुआ।

मृत्यु पूर्व तक अब्दुल जब्बार हादसे से प्रभावित व्यक्तियों के हक़ की आवाज़ के लिए जाने जाते थे। भारत सरकार ने उनके प्रयासों को पद्मश्री देकर सम्मानित किया। 

भोपाल गैस त्रासदी के 38 साल बाद भी कुछ सवाल बाकी हैं जिनके उत्तर अप्राप्त है।

डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के संचार एवं पत्रकारिता विभाग में सहायक प्राध्यापक

हैं

[email protected]

 



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