फ्री Vs सांप्रादायिकता प्लस फ्री का एक्स्ट्रा टू एबी

खरी-खरी            Jan 19, 2025


राकेश कायस्थ।

अरविंद केजरीवाल भारत में `चंट’ राजनीति के प्रणेता और चैंपियन राजनेता हैं। कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि नरेंद्र मोदी के होते हुए केजरीवाल को ये तमगा कैसे मिल सकता है। लेकिन ठीक से देखें तो समझ में आता है कि केजरीवाल का करिश्मा कहीं ज्यादा बड़ा है।

जिन्हें पता नहीं है, उनके लिए बता दूं कि `चंट’ का अर्थ अत्याधिक चालाक होना होता है। यह शब्द नकारात्मकता की संधि रेखा पर खड़ा है लेकिन पूरी तरह निगेटिव नहीं है। व्यवहारिक अर्थों में `चंट’ शब्द कुछ मायनों में `पॉजेटिव’ भी है। आखिर भारत वो समाज है, जहां चालूपने को हमेशा से सेलिब्रेट किया जाता रहा है। राहुल गांधी के लिए इस्तेमाल होनेवाला `पप्पू’ एक तरह से चंट का विलोम है।

क्या आप कोई और ऐसा उदाहरण ढूंढ सकते हैं, जब एक व्यक्ति एनजीओ के ज़रिये आंदोलन खड़ा करके रातो-रात मुख्यमंत्री बना हो और फिर स्थायी जनाधार बनाकर अपने समर्थकों की नज़र में प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी बन बैठा हो?

केजरीवाल उस मदारी की तरह हैं, जो सांप और नेवले की लड़ाई दिखाने का वादा करके मजमा लगाता है लेकिन ये लड़ाई कभी होती नहीं है, उल्टे उसके मंजन और चूरन जरूर बिक जाते हैं।

केजरीवाल का चूरन 2015 में बिका और 2020 में इसे भरपूर खरीदार मिले। नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम पर होते हुए भी केजरीवाल का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाये। दुनिया को पता है कि राजनीति बदलने का दावा करके सार्वजनिक जीवन में आये केजरीवाल किसी भी मायने में दक्षिण उन पॉपुलिस्ट लीडर्स से अलग नहीं है, जो चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए सरकारी खजाना लुटा देते हैं।

सत्ता में आने के बाद शुरुआती दिनों में केजरीवाल को `फ्री’ शब्द से चिढ़ थी। वो कहते थे “ फ्री कहना जनता का अपमान है। कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचाना हमारा कर्तव्य है।“ जल्द ही केजरीवाल ने समझ लिया कि झुग्गी-झोपड़ी वाले वोटर्स को अगर नहीं लगा कि सबकुछ मुफ्त मिल रहा है, वो दिल खोलकर वोट नहीं करेंगे। लिहाजा `फ्री’ केजरीवाल का कीवर्ड बन गया। सच कहा जाये तो `फ्री’ और `रेवड़ी’ जैसे विशेषण भारतीय राजनीति सबसे ज्यादा इस्तेमाल होनेवाले जुमले हैं।

इस वक्त देश की राजनीति में दो ही कामयाब मॉडल हैं। एक मॉडल केजरीवाल का है और दूसरा मॉडल नरेंद्र मोदी के उग्र सांप्रादायिक ध्रुवीकरण का है, जिसे शुरू में वो राष्ट्रवाद कहते थे लेकिन 2024 के चुनाव तक आते-आते नकाब पूरी तरह हट गया और ये साफ हो गया कि आनेवाले दिनों में `कटोगे तो बंटोगे’ और `एक हैं तो सेफ हैं’ जैसे नारे ही बीजेपी की लाइफ-लाइन बने रहेंगे।

लेकिन क्या सिर्फ ध्रुवीकरण की राजनीति हर बार मोदी की नैय्या पार लगा सकती है? कम से कम विधानसभा चुनावों में ऐसा होता नहीं दिखता। इसलिए सांप्रादायिक विभाजन की राजनीति के साथ चुनाव में मोदी को हर बार केजरीवाल मार्का `फ्री’ वाला टॉप अप भी लेना पड़ता है।

मध्य-प्रदेश और उसके बाद महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य का चुनाव बीजेपी सिर्फ सांप्रादायिक एजेंडे पर नहीं जीती बल्कि उसमें ज्यादा बड़ा योगदान `फ्री’ वाली उस राजनीति का है, जिसका रास्ता केजरीवाल ने दिखाया है।

केजरीवाल यह दावा करते हैं कि हर कोई उनकी नकल करता है। बीजेपी भी दावा करती है, उसने राहुल गांधी को तिलक लगाने और प्रियंका गांधी को मंदिरों के चक्कर काटने पर मजबूर कर दिया।

बुनियादी मुद्दों को पीछे छोड़कर धर्म की राजनीति और गैर-जिम्मेदार तरीके से खजाना लुटाने की सियासत को भारतीय लोकतंत्र में स्थापित करने वाले बकायदा इसका श्रेय लें और गौरवान्वित महसूस करें तो फिर एक बार रूककर सोचना चाहिए कि हम कहां से चलकर कहां तक आ पहुंचे हैं।

बहरहाल आते हैं दिल्ली के मुकाबले पर। यहां लड़ाई `चंट’ राजनीति और `फ्री’ टॉप अप वाली सांप्रादायिक राजनीति के बीच है। बीजेपी ये जानती है कि केजरीवाल को उनकी पिच पर हरा पाना आसान नहीं है। 2020 में भी बीजेपी ने केजरीवाल को हिंदू विरोधी साबित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया। अमित शाह का बयान ‘ईवीएम पर कमल दबाएंगे तो करेंट शाहीन बाग वालों को लगेगा ‘ जैसे बयान सबको याद हैं।

मगर चंट केजरीवाल बच निकले। इस बार भी बीजेपी का थिंक टैंक सांप्रादायिकता और फ्री की राजनीति को मिलाकर एक ऐसा कॉकटेल बनाने में जुटा हैं, जो केजरीवाल के चमत्कार को बेअसर कर दे। लेकिन क्या ये इतना आसान है? कांग्रेस और बीएसपी को छोड़कर स्थायी रूप से आप के साथ चिपक चुका झुग्गी-झोपड़ियों का विशाल वोटर समूह केजरीवाल की सबसे बड़ी ताकत है।

बाकी चुनावी राज्यों में बीजेपी के पास सरकार में होने का एडवांटेज था। लेकिन दिल्ली में यह लाभ केजरीवाल के पास है। वादों को अमली जामा पहनाने का नरेंद्र मोदी का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। एकाउंट में 15 लाख रुपये से लेकर हर साल पांच करोड़ रोजगार जैसे नारे भारतीय राजनीति में झूठ का पर्याय बन चुके हैं।

विक्टिम कार्ड खेलने के मामले में केजरीवाल उतने ही सक्षम हैं, जितने नरेंद्र मोदी। हेमंत सोरेन को जेल जाने का जो चुनावी लाभ मिला, लगभग वैसे ही लाभ की उम्मीद केजरीवाल कर रहे हैं। दो बार की एंटी-एनकंबेंसी के बावजूद स्थायी जनाधार लोकलुभावन छवि केजरीवाल के साथ है।

लंबे समय बाद दिल्ली की राजनीति में अपनी ताकत दिखाने की कोशिश रही कांग्रेस अगर केजरीवाल के कोर वोट खासकर मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में मोड़ पाये तो बीजेपी का कुछ भला हो सकता है।

वैसे गौर करने वाली एक बात ये भी है कि चंट सिर्फ केजरीवाल नहीं बल्कि दिल्ली की जनता भी है। आंकड़े साफ-साफ बताते हैं कि फ्रीवीज़ को गालियां देने वाले वोटरों का एक बड़ा समूह लोकसभा में मोदी को वोट करने के बाद विधानसभा में केजरीवाल के साथ हो जाता है। ऐसे में इस बात का दावा कर पाना कठिन है कि `फ्री’ टॉप अप वाली बीजेपी की सांप्रादायिक राजनीति केजरीवाल की चंट राजनीति को पछाड़ पाएगी।

 

 


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