राकेश दुबे।
हर रोज़ मीडिया में खबरें भरी पड़ी हैं- छोटी और बड़ी, लोगबाग सड़कों पर निकलकर प्रदर्शन-धरने कर रहे हैं, जुलूस निकल रहे हैं, नारेबाजी हो रही है, पर्चे बांटे जा रहे हैं, यह सब इसलिए कि किसी तरह प्रशासन-सरकार उनकी शिकायतें सुन ले।
सरकार शिकायतें तो सुनती है,पर निराकरण नहीं होता ? आम आदमी सड़कों पर आकर यह सब करने को बमुश्किल तैयार होता है।
क्योंकि उसके लिए यह कीमती वक्त और प्रयास बेकार करने जैसा है, जिसका उपयोग दो जून की रोटी कमाने में करना ज्यादा जरूरी है।
निर्विकार बना प्रशासन जन समस्याओं का निवारण करना तो दूर, सुनने तक को राजी न हो तो और चारा भी क्या बचता है?
समस्या चाहे पंचायत स्तर की मामूली हो या फिर राज्य अथवा राष्ट्रीय स्तर की, आम आदमी के लिए सड़क पर आने का विकल्प ही बचा है।
ताजा उदाहरण महिला पहलवानों का है, जिन्हें भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष द्वारा किये गए कथित अनुचित यौन दुर्व्यवहार के विरुद्ध अपनी आवाज़ सार्वजनिक तौर पर उठाने के लिए दिल्ली के जंतर-मतर पर धरना देना पड़ा है, उनके समर्थन में पुरुष पहलवान भी शामिल हुए।
इनमें वे पहलवान भी हैं, जिन्होंने विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर देश का मान बढ़ाया है और सरकार ने सम्मानित किया है।
सरकार ने कुछ दिनों तक अनिर्णय में रहने के बाद अपने खेल मंत्री की मार्फत दखलअंदाज़ी की और लंबी चली वार्ताओं के बीच जांच का हुक्म आया।
एक खेल मंत्री पर भी यौन दुर्व्यवहार के आरोप लगे हैं। इस बार भी, सरकार द्वारा ठोस कार्रवाई न किए जाने के कारण मामला हफ्तों तक लटकता रहा।
इससे इनकार नहीं, दोनों मामलों में सरकार की ओर से देरी के पीछे की वजह राजनीतिक कारणों से है।
नेताओं को खेल संघों का अध्यक्ष बनाने के पीछे वजह एकदम सरल है- बात खिलाड़ी चुनने की हो या खेल सामग्री खरीदने की, अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके चीज़ें घुमाना और चोखा पैसा बनाना।
जो भी है, उम्मीद करें कि जांच कमेटी न्याय प्रदान करेगी, काफी गंदगी सार्वजनिक हो चुकी है।
कई ऐसे मुद्दों पर लोगों को अपनी पुरानी और नयी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ा है, जो आराम से सुलाझाई जा सकती थीं।
किसानों की बात करें तो किसान फिर से उतने ही विशाल स्तर का आंदोलन चलाने की योजना बना रहे हैं जितना 2020 में हुआ था।
क्योंकि उनका दावा है कि भारत और सूबा सरकारों ने जिन मांगों को स्वीकार किया था, उनपर अमल नहीं किया है।
पिछला आंदोलन ऐतिहासिक था, जो लंबे समय चला, जिसमें विभिन्न राज्यों के किसानों ने भाग लिया और विभिन्न स्तरों पर चली लंबी वार्ताओं के बाद समझौता बन पाया था।
यह सरकार की जिम्मेवारी है कि किसानों को न्यौता देकर मामला हल करे न कि हालात ऐसे बनने दे कि किसानों को मजबूरन फिर से आंदोलन की राह पकड़नी पड़े।
जो निर्णय पहले स्वीकार किए गए हैं उनपर अमल हो और किसी प्रकार की गलत धारणा बनने देने से गुरेज करे।
इन समस्याओं के अलावा, कृषि उत्पाद की समुचित कीमत तय करने की समस्या स्थाई बनी हुई है। प्रदेशों के किसान गन्ना मिलों को बंद करवाने को मजबूर करते रहे हैं, क्योंकि सरकार समर्थन मूल्य का समझौता करवाने में पुनः विफल रही है।
अगर समय रहते समझौता वार्ता शुरू हो जाती तो यह स्थिति पैदा ही नहीं होती। चल रहे आंदोलनों और प्रदर्शनों की सूची लंबी है– लंबे समय से विभिन्न संगठन उन कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे हैं जो पिछले कई दशकों से जेलों में सड़ रहे हैं।
अब इसको लेकर ‘बंदी छोड़ मोर्चा’ नामक एक आंदोलन शुरू हो गया है। सिखों में ‘बंदी छोड़’ शब्द से भावनात्मक जुड़ाव है क्योंकि मुगलों ने ग्वालियर के किले में बंद छठे गुरु हरगोबिंद को लंबी कैद के बाद रिहा करने का हुक्म दिया था।
इस दिन को ‘बंदी छोड़ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। संबंधित सरकार को समीक्षा उपरांत या तो उन्हें रिहा करना चाहिए या कैद बरकरार रखनी है तो काम बाकायदा कानूनी कारण देकर हो।
समझौता वार्ताएं जारी रखना आज समाज, राजनीति और प्रशासन से दिनोंदिन गायब हो रहा है, लोग बाग एक-दूजे से बात न करने की बजाय एक-दूजे के बारे में बातें करते हैं।
बातचीत और संवाद के मंच पर चुप्पी तारी हो रही है, जबकि दूसरी ओर इकतरफा प्रचार खूब चल रहा है, घरों की बैठक से लेकर सरकारी दफ्तर, यहां तक कि संसद में भी... संवाद नदारद है।
सार्थक चर्चा की जगह अर्थहीन बकवास ने ले ली है क्योंकि सबका अपना-अपना एजेंडा है और रुख अडिग, ऐसे में बौद्धिक चर्चा कहां से होगी?
एक वक्त था, जब फील्ड अधिकारी और मुख्यालय में नियुक्त अधिकारी, बाहर निकलकर दौरे करते हुए सक्रिय रहते थे और जमीनी हकीकत से रूबरू रहते थे।
अब राजनीतिक कारणों से यह दोनों तरीके इस्तेमाल में नहीं हैं, सख्त मेहनत करने की जगह अनवरत संपर्क अभियानों एवं मीडिया का इस्तेमाल करके छवि चमकाने ने ले ली है।
कभी सरकार खुद चलकर गांव जाया करती थी, अब ग्रामीणों को किसी राजनेता के बिचौलिये को साथ लाकर नेताओं तक पहुंच बनानी पड़ती है।
सीधा संपर्क खोता जा रहा है और प्रशासनिक तंत्र ने अपना सबसे वफादार पुर्जा यानि नागरिक गंवा दिया है। संवाद तो लोकतंत्र के सबसे पवित्र धर्मस्थल यानि संसद में भी नदारद है।
प्रेरणास्पद भाषण, चुटीले प्रत्युत्तर, प्रतिबद्ध प्रण वाले पुराने दिन लद गए। संसदीय मंच या कमेटी रूपी व्यवस्था से हमें कुछ हासिल नहीं होता।
सत्ता पक्ष या विपक्ष दोनों के सांसद अब राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर उतने ही अंधेरे में हैं , जितना आम नागरिक।
अगर कहीं बहसें होती हैं तो वह है, टीवी चैनलों के स्टूडियो में बैठे एंकरों, राष्ट्रीय दलों के तीजे-चौथे दर्जे के प्रतिनिधियों और तथाकथित विशेषज्ञों के बीच।
हर कोई अपने अड़ियल रुख पर कायम और अर्थपूर्ण बहस के लिए कोई जगह नहीं, इसकी बजाय, हमें सार्थक संवाद करना होगा, चर्चा करनी होगी ।
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