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ऑपरेशन के बिना कांग्रेस का बचना नामुमिकन है

खरी-खरी            Mar 12, 2022


राकेश कायस्थ।
राजनीति कुछ तल्ख सच्चाइयों पर चलती है। सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि अगर शीर्ष नेता लगातार नाकाम होता है तो उसका इक़बाल खत्म हो जाता है।

2004 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था- आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान। मगर भाजपा चुनाव नहीं जीती। आडवाणी को 2009 में दोबारा मौका मिला, मगर वे पीएम इन वेटिंग ही रहे।

नेतृत्व परिवर्तन का सवाल उठा तो सुषमा स्वराज ने बहुचर्चित बयान दिया "

हिंदू समाज मे पिता के जीवित होते हुए पगड़ी पुत्र के सिर पर नहीं रखी जाती है। हमारे नेता आडवाणी जी ही रहेंगे।"

मगर पिता के होते हुए 2014 में पगड़ी बदल दी गई। आडवाणी पूरी तरह स्वस्थ थे और चुनाव लड़ रहे थे लेकिन उन्हें किनारे लगाकर नरेंद्र मोदी को पार्टी का नेता बनाया गया। यह इस बात का सबूत था किसी भी गंभीर राजनीतिक दल को भविष्य की तरफ देखना ही पड़ता है।

अगर शीर्ष नेता लगातार नाकाम हो रहा हो तो कोई अनंत काल तक उससे चमत्कार की उम्मीद लगाये नहीं बैठा रह सकता है। मोदी आज बीजेपी के माई-बाप और भगवान इसलिए हैं क्योंकि अपने दम पर चुनाव जिता देते हैं। अगर लगातार कई चुनाव हारे तो यकीनन विकल्प की बात उठेगी।

सोनिया गांधी ने जिस ताकत और इक़बाल के साथ दस साल तक कांग्रेस को चलाया उसके मुकाबले आज पार्टी की स्थिति इस कदर दयनीय है कि यूपी के नतीजे आने के बाद तृणमूल के एक नेता ने ये सुझाव दे डाला कि कांग्रेस को टीएमसी में अपना विलय करवा लेना चाहिए।

कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी राहुल और प्रियंका गांधी से एक सीमा से कहीं ज्यादा हमदर्दी रखते हैं। यह ठीक है कि राहुल गाँधी प्रेस कांफ्रेंस करते हैं और दोस्ती बनी रहे' कहते हुए कभी इंटरव्यू बीच में छोड़कर नहीं भागे।

ये भी ठीक है कि प्रियंका गांधी ने यूपी का चुनाव महिला सशक्तिकरण के नाम पर लड़ा और राजनीति में असली मुद्दों को वापस लौटाने की बात कही। मगर इन सबका नतीजा क्या निकला?
क्या राहुल और प्रियंका के पास सचमुच इस देश के लिए कोई बड़ा विजन है?

क्या वो कांग्रेस के सभी नेताओं को साथ लेकर चलने में सक्षम हैं? क्या उनमें इतनी प्रबल इच्छा शक्ति है कि लगातार हार के बावजूद को लड़ते रहने का संकल्प देश के सामने रखें और ठोस कार्यक्रमों के साथ आगे बढ़ें?

चाहे सिंधिया का पार्टी तोड़ना हो, राजस्थान की नौटंकी हो या फिर कैप्टन और सिंद्धू का पंजाब डुबो देना, कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह बेबस नज़र आया। हर बार यही लगा कि पार्टी से उनका नियंत्रण लगभग खत्म हो चुका है।

सामान्य सिद्धांत है, आप जो भी काम कर रहे हों, आपको डिलीवर करना ही पड़ता है। जिन लोगों को राहुल या प्रियंका की शख्सियत पसंद है, वे कई सारी दलीलें गढ़ते हैं। सबसे बड़ा तर्क ये है कि बीजेपी जितना गिरकर चुनाव लड़ सकती है, वैसा राहुल और प्रियंका नहीं कर सकते हैं।

एक राजनेता का काम ही विकल्प देना होता है। अगर राजनीति बुरी है तो अच्छी राजनीति करने से किसने रोका है? सिर्फ यह कह देने से बात नहीं बनती कि रोजगार और शिक्षा के नाम पर वोट मांगने से कोई वोट नहीं देता। अगर नेता द्वारा पेश किया गया विकल्प जनता की समझ में नहीं आ रहा तो यह नेता की नाकामी है।

समर्थक राहुल और प्रियंका को उनके कुछ अच्छे भाषणों और ट्वीट के आधार पर नंबर दे रहे हैं जबकि सच ये है कि दोनों भाई-बहन कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं, जिससे पार्टी पुनर्जीवित होती नज़़र आये।

सोनिया गांधी नब्बे के दशक में लंबे समय तक औपचारिक तौर पर सक्रिय राजनीति से दूर रहीं। क्या इससे पार्टी पर उनकी पकड़ कमज़ोर हो गई? अगर गांधी परिवार से अलग किसी और व्यक्ति को कांग्रेस अपना अध्यक्ष बना दे और राहुल और प्रियंका उसके नेतृत्व में काम करें तो हो सकता है कांग्रेस में इसका कोई सकारात्मक असर दिखे।

दूसरा तरीका ये है कि राहुल गांधी पूरी तरह से पार्टी की कमान अपने हाथ में लें और देश को भरोसा दिलाये कि मौजूदा समय की मांग के मुताबिक वे फुल टाइम राजनीति करने को तैयार हैं।
बहुत लोगों की दलील है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस जिंदा नहीं रह सकती। लेकिन अभी जिस तरह पार्टी चल रही है, उसके होने का भी क्या मतलब है?

कांग्रेस पार्टी के भविष्य का सवाल सीधे-सीधे देश और लोकतंत्र के भविष्य से जुड़ा हुआ है। कांग्रेस के समझदार विरोधी भी इस बात को जानते हैं।

कांग्रेस पार्टी को इस समय एक ऑपरेशन की ज़रूरत है। उसका शरीर ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं दिख रहा है लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है। अगर गांधी परिवार बड़े फैसले लेने के बदले खामोशी से देखता रहा तो देश की सबसे पुरानी पार्टी और लोकतंत्र की मौत का अपयश उसके हिस्से आएगा।

 



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