प्रकाश भटनागर।
उपचुनावों के इन परिणामों से किसी का कुछ बनता बिगड़ता नहीं है लेकिन, शनिवार को आए विधानसभा के उपचुनावों के ये नतीजे देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा के लिए एक सख्त चेतावनी है।
ये चेतावनी उसे दी है उसके ही कार्यकर्ताओं और उन वोटरों ने जो भाजपा के कोर वोटर तो नहीं लेकिन भाजपा से उम्मीद जरूर रखते हैं।
सात राज्यों की तेरह विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा को महज दो जगह सफलता मिली है। इंडी समूह के दल दस जगह जीतने में कामयाब रहे।
जाहिर है कि भाजपा के लिए यह ' उफ़' चुनाव वाला मामला हो गया है। वह उत्तराखंड में दोनों सीट हार गयी। हिमाचल प्रदेश में तीन में से दो सीट पर कमल मुरझाया है और उसने पश्चिम बंगाल में भी इसी तरह का नुकसान झेला।
दो में से एक जो अमरवाड़ा सीट भाजपा को मिली, वह भी इस पार्टी के लिए जीत से अधिक टीस वाला मामला ही कहा जाएगा। मध्यप्रदेश की इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी कमलेश शाह बमुश्किल तीन हजार से कुछ ज्यादा के अंतर से ही जीत सके। शाह हाल ही में कांग्रेस से भाजपा में आए हैं और इसी अमरवाड़ा सीट पर वह 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में 25 हजार से अधिक वोट से जीते थे।
इस बात को शाह के रूप में ही विस्तार दिया जाए तो भाजपा की इस हालत का मूल समझ आता है। इस पार्टी ने बीते कुछ समय में दूसरे दलों को तोड़ने के फेर में अपने ही दल के पुराने और निष्ठावान लोगों का दिल तोड़ने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।
मध्यप्रदेश सहित उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड सहित अनेक राज्य ऐसे घटनाक्रमों के साक्षी बने हैं।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस से आए रामनिवास रावत को भी हाल ही में राज्य मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया और इसका भाजपा के ही भीतर विरोध भी हो रहा है।
जाहिर-सी बात है कि भाजपा को इस समय रहीम की पंक्ति ' रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजिए डारी' का स्मरण कर उससे सबक लेना होगा।
इस पार्टी ने बाहरी लोगों को न सिर्फ दल बल्कि दिल में भी अधिकांश मौकों पर इस तरह स्थान दिया है कि पार्टी के शेष लोग मन मसोस कर रह गए हैं।
वह मतदाता भी इससे स्तब्ध है, जो मानकर चलता था कि कांग्रेस के सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में भाजपा का कोई सानी नहीं है।
अब उसी कांग्रेस के लोगों की भाजपा में बहुतायत है और इस सियासी आयात से भाजपा को जो आघात हो रहा है, आज के नतीजे उसकी पुरजोर आहट कहे जा सकते हैं। पार्टी को मजबूत बनाने की दृष्टि से उसकी सदस्य संख्या में विस्तार अच्छी बात है।
किसी भी दल के लिए यह जरूरी भी है। लेकिन इस फेर में भाजपा जिस तरह अपनी विचारधारा के किसी समय के विरोधियों को पार्टी की मुख्यधारा में स्थान दे रही है, उससे पार्टी के भीतर ही निराशा और क्रोध की उस धारा का संचार भी होने लगा है, जो इस दल के लिए किसी भी तरह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।
मध्यप्रदेश को ही लीजिए। यहां भाजपा को विधानसभा में 163 सीटों के साथ भरपूर बहुमत हासिल है। फिर भी जिस तरह से कुनबा बढ़ाने का श्रेय लेने की होड़ में पार्टी में ' जो भी चाहे, चला आए, पूरा कद और तगड़ा पद पाए' वाली नीति पर चल रही है, वह समझ से परे है। भाजपा को यह समझना होगा कि हालिया लोकसभा चुनाव में राज्य के उत्तरी हिस्से वाले ग्वालियर, मुरैना और चंबल में उसके वोट प्रतिशत में भारी गिरावट आई है।
भले ही इसी अंचल में कांग्रेस से भाजपा में आए दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पांच लाख से अधिक मतों से धमाकेदार जीत हासिल की है, लेकिन अंचल के शेष आंचल ने जिस तरह भाजपा के लिए अपने स्नेह में कमी दिखाई है, वह बहुत कुछ कहता है।
खासकर यह कि जिन सिंधिया को भाजपा ने इस संभाग में अपनी बड़ी ताकत समझकर गले लगाया, वही सिंधिया अपनी सीट के अलावा और जगहों पर जादू दिखाने में कामयाब नहीं हो सके है।
दूसरी तरफ कांग्रेस की राज्य में अपनी स्थिति में यथावत है। यहां सीधी लड़ाई है, इस पर तथ्य यह भी कि प्रदेश का लगभग ढुलमुल मतदाता प्रायः भाजपा के लिए जीत का बड़ा फैक्टर बन जाता है। यदि कार्यकर्ता यूं ही हताश और रूठा रहा तो फिर वर्ग को किसी भी समय भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस में भरपूर संभावनाएं दिखने लगेंगी।
आयातित नेताओं के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाए भाजपा नेता क्या इस विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार हैं? इसका जवाब फिलहाल तो ' हां' में नहीं दिया जा सकता। क्योंकि यह पार्टी आत्ममुग्धता के मद में चूर होकर तेजी से अनिश्चितता के मार्ग पर आगे बढ़ती जा रही है।
यही कहा जा सकता है कि ' गैरों पे करम' के फेर में ' अपनों पे सितम' की इस अंधी दौड़ में भाजपा लड़खड़ाने लगी है। लड़खड़ाहट का यह क्रम बढ़ने का अंजाम क्या होता है, यह सबको पता है। भाजपा के कर्ताधर्ताओं को भी, बस जरूरत आंख खोलने की है।
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