प्रकाश भटनागर।
2024 के लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी को कई सबक एक साथ दे गए हैं। गनीमत यह है कि भाजपा के लिए यह अब भी सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसी गंभीर स्थिति नहीं है। हां, एक नहीं कई चुनौतियां है। कई बार कांग्रेस के आज के नेतृत्व के लिए मैंने लिखा कि उस पार्टी में बिल्ली के गले में घंटी बांधने का साहस किसी में नहीं है।
तो आज भाजपा के लिए यह कहा जा सकता है कि यहां किसी न किसी को नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा की आंखों पर चढ़े चश्मे को उतारने का साहस दिखाना ही होगा।
ताकि यह खुलकर बताया जा सके कि किसी समय संसद की दो सीटों तक सिमटने के बाद उसी जगह पर पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भाजपा आज क्यों फिर सहयोगी दलों की बैसाखी पर झूलने के लिए मजबूर हो गई है।
सच कहें तो मामला सांप निकल गया भर का नहीं है, बल्कि यह बात 'सांप सूंघ गया' वाली होनी चाहिए और ये दुर्गंध खुद ही चुनी गई है।
जिस भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुशासन में कभी भी व्यक्ति पूजा को महत्व नहीं दिया, वही भाजपा वर्ष 2014 के बाद से मोदी हैं तो मुमकिन है वाले उपासकों की जमात में शामिल हो गई।
सामूहिक नेतृत्व की जगह सारे फैसले दो लोगों तक समेटने का परिणाम इसी अंजाम पर पहुंचना था। नेतृत्व आपके पास है लेकिन सरकार का साईन बोर्ड भाजपा का नहीं एनडीए का है। यह भाजपा की हार है, और वो भी शर्मनाक तरीके से।
सरकार बनाने का जश्न भले ही रणनीतिक तौर पर आप मना लें लेकिन हार का परिणाम पार्टी के कर्ताधर्ताओं को अपने सिर-माथे पर शिरोधार्य करना चाहिए, जो विगत लगभग एक दशक से खुद को इस पार्टी सहित केंद्रीय सत्ता के कर्णधार मानकर आपादमस्तक घमंड में चूर-चूर हो चुके थे।
सच तो यह हुआ कि मोदी सहित शाह और नड्डा वाली भाजपा 'तुम मेरी पीठ थपथपाओ, मैं तुम्हारी पीठ थपथपाता हूं' वाली 'परस्पर आत्मरति' की शिकार बना दी गई।
इस तरह की सोच ने भाजपा को वर्ष 2014 से लेकर अब तक आत्ममुग्धता वाली अफीम चटायी और अब हुआ यह कि यह पार्टी केंद्र में सिंहासन तो दूर, चटाई के लिए भी मोहताज होकर रह गई है।
आरक्षण या संविधान को लेकर ही बात कर ली जाए। केंद्र सरकार और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने खुद को त्रिफला मानकर इन मुद्दों से आंखें बंद कर लीं और इस दिशा में विपक्ष की सफल कोशिशें त्रिशूल बनकर भाजपा की संभावनाओं को चीर-फाड देने में सफल हो गईं।
यह सही था कि सात चरण वाली लंबी चुनावी प्रक्रिया के चलते इस चुनाव में जुड़े मुद्दे निरंतर बदलते रहे। विपक्ष और उसके गठबंधन के लिए यह सुविधाजनक स्थिति थी।
भला केंद्र सरकार और भाजपा क्यों हर मौके पर 'जिस बर्तन में रखा जाए, उस तरह का स्वरूप' वाले निरंतर परकाया प्रवेश वाले मकड़जाल में खुद ही उलझती चली गईं? उलटा यह हुआ कि जैसे-जैसे विषय बदले, वैसे-वैसे ही प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के तेवर विषैले होते चले गए।
गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार बनने से पहले की बात अलग है, तब आपने खूब आग उगली।
वह सही प्रत्युत्तर था ,तब देश की जनता देख रही थी कि आप खुद को 'मौत का सौदागर' कहे जाने के लांछन का मुखर होकर उत्तर दे रहे थे। लेकिन क्या इन आम चुनाव में सचमुच कुछ ऐसा था, जो आपको विचार और संवाद के तौर पर मुजरा वाले स्तर पर लाने के लिए प्रेरित कर रहा था?
दरअसल समस्या यह रही कि इंडी गठबंधन इस सरकार और संगठन को एक के बाद एक मुद्दों में उलझाता रहा और इन सबके जवाब में यह तक नहीं किया जा सका कि समूचे राष्ट्र के हित वाली अपनी उपलब्धियों को याद दिलाने की गरज से दोहराया जा सके।
वजह यह कि आज वाली भाजपा अपने पुराने स्वरूप और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शैली के अनुरुप अपने कार्यक्रमों को घर-घर तक विश्वास के साथ पहुंचाने में घनघोर तरीके से असफल हो गई।
इसके चलते हुआ यह कि देश में तेजी से विकसित हुआ इंफ्रास्ट्रक्चर, अनुच्छेद 370 और तीन तलाक की समाप्ति, राम मंदिर का निर्माण, महिलाओं और गरीब कल्याण के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश को पहली बार सुपर पॉवर बनाने जैसी महती उपलब्धियों के बावजूद आप खेत रहे।
सीधी-सी वजह यह कि जिनके ऊपर इन उपलब्धियों को आम जनता तक निरंतर रूप से पहुंचाने का दायित्व था, उन्हीं के सिर पर पांव रखकर आज की भाजपा ने उनके सोचने-समझने-करने की शक्ति को चकनाचूर कर दिया, नतीजा सामने है।
फिर भी सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसी स्थिति से बचने का विकल्प आज भी आज की भाजपा के पास मौजूद है। भाजपा के तमाम कांग्रेसीकरण के बावजूद इस पार्टी में अभी अपनी गलतियों से सबक सीखने की क्षमता बाकी है।
हालिया संपन्न आम चुनावों के नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी के लिए मामला जटिल प्रक्रिया और विकट चुनौती वाला हो चुका है। बात बिलकुल ऐसी है, जैसे कि अनाज के ढेर से घुन लगे हिस्सों को निकालकर अलग करना हो। यूं तो इसका एक तरीका यह भी होता है कि ऐसे पूरे अनाज को तीखी धूप में रख दिया जाए।
जैसा कि पहले भी कहा गया कि भाजपा के लिए स्थिति में सुधार की संभावना अब भी शेष है। यह पार्टी अब भी चाहे तो अपने लिए असह्य बन चुके सत्य के तापमान में जाकर घुन को खत्म करने का प्रयास करे। नरेंद्र मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि यह रही कि वह लगातार दो कार्यकाल तक पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चलाने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। तीसरे कार्यकाल के साथ ही वह इस मामले में जवाहरलाल नेहरू के कीर्तिमान के समीप आ गए हैं। लेकिन मोदी की नेतृत्व की असली परीक्षा अब आरंभ हुई है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार सफलता के साथ पांच साल तक चली तो सोनिया गांधी की अगुआई में यूपीए सरकार ने दस साल तक उल्लेखनीय रूप से शासन चलाया।
वाजपेयी अपनी सर्व-स्वीकार्य छवि के चलते सहयोगी दलों की गुड बुक में बने रहे और यूपीए के समय कांग्रेस राजनीति में इतनी बेअसर हो चुकी थी कि कांग्रेस तब गठबंधन वाले दलों को अपने पर हावी होने से रोकने में कामयाब नहीं हो पाई। खुद कांग्रेस के राजपरिवार ने प्रधानमंत्री को उनकी नौकरशाही छवि से बाहर नहीं आने दिया।
एक ईमानदार प्रधानमंत्री की सरकार घपलों घोटालों में बदनाम होती चली गई। इन दृष्टांतों की रोशनी में अब देखना होगा कि मोदी क्या करेंगे। गठबंधन में बनने वाली मोदी सरकार में भाजपा यूपीए की कांग्रेस की तुलना में ज्यादा मजबूत है। वर्ष 2014 से लेकर पूरे एक दशक तक मोदी ने अपने दम पर और अपने तरीके से सरकार चलाई।
एक तरह से समूचा भाजपा संगठन भी मोदी की परछाई बनकर ही रह गया। तो क्या इस शक्ति के अभिमान में मोदी भी वह गलतियां करते चले गए, जो कभी कांग्रेस के सियासी मिजाज की खास पहचान हुआ करती थीं और जिनके चलते मोदी की अकूत ताकत वाले दौर में यह दल अंतत: कमजोर होता चला गया?
वह समय अभी अतीत की बहुत अधिक गहराई में नहीं समाया है, जब कांग्रेस पश्चिम बंगाल से लेकर दक्षिण और उत्तर भारत में सबसे बड़ी शक्ति हुआ करती थी। फिर यह हुआ कि इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के दौर में इन राज्यों के अपने ही क्षत्रपों को पार्टी ने कमजोर करना शुरू कर दिया। ताकि कोई भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की लकीर से बड़ा होना तो दूर, उसके बराबर तक भी न आ सके।
काफी हद तक यह प्रक्रिया सोनिया गांधी और राहुल गांधी के समय भी कायम रही। इसका परिणाम हुआ कि कांग्रेस एक-एक कर इन जगहों पर कमजोर होती चली गई। मोदी के बीते दस साल भी कुछ ऐसे ही रहे हैं।
कुछ उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। बीते विधानसभा चुनाव के बाद मध्यप्रदेश से शिवराज सिंह चौहान की विदाई और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के पर कतर दिए गए। यह सही है कि इस समय तक शिवराज साढ़े सोलह साल से अधिक तक मुख्यमंत्री रह चुके थे और राजस्थान में एक से अधिक बार इसी पद को सुशोभित कर चुकीं सिंधिया कई वजह से पार्टी की नजरों में खटकने लगी थीं।
फिर भी पुरानी भाजपा के हिसाब से ठीक यही होता कि चौहान और सिंधिया से जुड़े निर्णय उन्हें विश्वास में लेकर किए जाते। ऐसा नहीं हुआ। उल्टे राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में तो सट्टा खोलने के अंदाज में जिस तरह मुख्यमंत्री पद की पर्ची खोली गई, उसने केंद्रीय सत्त्ता को लेकर मोदी की भाजपा के उन्माद का परिचय ही दिया था। अब राजस्थान में भाजपा की संभावनाओं को तगड़ा झटका लग चुका है और मध्यप्रदेश में ऐसा इसलिए नहीं हो पाया कि शिवराज अपनी तासीर के अनुरूप हालात के हिसाब से ढलते चले गए तथा डॉ. मोहन यादव सहित विष्णु दत्त शर्मा को मोदी लहर सहित शिवराज काल की जमीन पर तैयार अनुकूल परिस्थितियों के बीच अपने प्रयासों में भरपूर सफलता मिल गई।
लेकिन हर जगह मामला शिवराज जैसा नहीं है। महाराष्ट्र में किसी समय के कद्दावर मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस आज उप मुख्यमंत्री होकर रह गए है। वही महाराष्ट्र, जहां भाजपा के साथ चल रही एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार अपने मुख्य प्रतिद्वंदी शिवसेना (उद्धव गुट) के आगे इस चुनाव में औंधे मुंह गिर पड़ी है।
अब जब आज की भाजपा में क्षत्रपों की ऐसी दुर्गति की गई तो फिर आम कार्यकर्ता इससे भला कैसे अछूता रह सकता था? पार्टी में कहीं न कहीं यह संदेश किसी अंडर करंट के झटके की तरह प्रसारित हो चुका है कि कार्यकर्ता केवल और केवल दिल्ली दरबार के लिए दिल से समर्पित रहे।
यह उस दल के लिए विचित्र स्थिति है, जिसके अधिसंख्य कार्यकर्ता उसकी रीढ़ की हड्डी जैसा महत्व रखते हैं। जो अब तक किसी व्यक्ति की बजाय पार्टी और संघ की विचारधारा के अनुयायी रहे हैं। रही-सही कसर संगठन महामंत्री जैसी मजबूत व्यवस्था को मजबूर बनाकर पूरी कर दी गई।
आज हालत यह है कि संघ भी अब अपने प्रचारकों को भाजपा में भेजने से कतरा रहा है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान में लंबे समय से संघ ने भाजपा के लिए अपने प्रचारकों को संगठन मंत्री के दायित्व के लिए नहीं भेजा है।
कारण यह है कि अब संघ से जाने वाले भाजपा के प्रचारक भी सत्ता से शक्तिशाली हुई भाजपा में गंदी राजनीति के शिकार हो रहे हंै। ऐसे कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। इन सब विसंगतियों को सुधारना आज भाजपा की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है।
यह तब ही हो सकेगा, जब इस दल के पांच सितारा संस्कृति में रचे-बसे कर्णधार 'चना-चबैना और दरी बिछाने' जैसे कड़े परिश्रम की धूप में तप कर एक बार फिर अपने भीतर घर कर चुकी घुन को खत्म करने का साहस दिखा सकें।
अतीत की धूल में अपनी भूल तलाशे -
आम चुनाव के नतीजों के संदर्भ में नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा वाली भारतीय जनता पार्टी की भीषण गलतियों को एक और उदाहरण से सहूलियत के साथ समझा जा सकता है। अयोध्या लोकसभा सीट से पार्टी ने स्वनाम धन्य लल्लू सिंह को टिकट दिया।
जिस भाजपा को हम जानते हैं, उसके लिए यह उल्लेखनीय रूप से प्रसिद्ध है कि यह दल सदैव इलेक्शन मोड में रहता है। उसके कर्ताधर्ता बराबर इस बात पर नजर रखते हैं कि उसके किस नेता में चुनाव जीतने के लिहाज से पर्याप्त क्षमता है। निश्चित ही इस निर्णय में कई बार चूक भी हो जाती है, लेकिन लल्लू सिंह का मामला चूक नहीं, बल्कि घनघोर लापरवाही का प्रतीक था। न जाने चयनकर्ता क्यों इस बात से आंख मूंद कर बैठे रहे कि सिंह का इस क्षेत्र में जबरदस्त विरोध है। वह आम लोगों से संपर्क और संवाद सहित आचार-व्यवहार के लिहाज से भाजपा तो दूर, मतदाता के क्राइटेरिया पर भी खरे नहीं उतरते हैं।
शायद पार्टी को यह 'अंधविश्वास' हो गया कि उसकी सरकार के कार्यकाल में अयोध्या में राम मंदिर बना है, इसलिए इस सीट से चाहे जिसे भी उतार दो, वह आम जनता की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरा ही उतरेगा।
इसके चलते यह हुआ कि राम मंदिर की भाजपा की लहलहाती सियासी फसल के बाद भी लल्लू खेत रहे और किसी समय अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाली समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार ने यहां से जीत हासिल कर ली।
ऐसा ही भाजपा ने अनेक स्तर पर किया। बात अयोध्या की हो रही है, तो यह भी सामयिक है कि मोदी सहित शाह और नड्डा ने इस चुनाव में हिंदुत्व की लहर को अपने अनुकूल मानने की भूल भी कर ली। यह काठ की हांडी को बार-बार चढ़ाने जैसा बचकाना प्रयोग रहा। मुस्लिम मतदाताओं ने लगभग सदैव से ही धर्म को लेकर गजब का एका दिखाया है।
पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के बीते विधानसभा चुनाव में इस वर्ग ने भाजपा को हराने के लिए जो सामूहिक ताकत दिखाई, वह किसी से छिपी नहीं है। भाजपा इस बात को चुनाव के अंत तक समझने के बाद अपने लिए नई चुनौती मान कर आगे बढ़ी, लेकिन तब तक प्रतिकूल हालात इस दल से चार कदम आगे बढ़ चुके थे।
विपक्षी दल बेरोजगारी, महंगाई और आरक्षण जैसे मसले पर भाजपा के हिंदू वोट बैंक में भी सेंध लगाने में कामयाब हो गए। यह सब इतनी ठोस तैयारी और सावधानी के साथ किया गया कि चुनाव के अंतिम चरण में मोदी का 'मुस्लिम आरक्षण' को लेकर आक्रामक रुख भी शेष वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सका।
भाजपा में संगठन के स्तर पर कई प्रक्रियात्मक बदलाव भी इस दौरान हुए। उम्मीदवारों के चयन में भी स्थानीय स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक के वरिष्ठ नेताओं तक को भरोसे में लेने की पंरम्परा इन दस सालों में खत्म सी हो गई है।
'मोदी के मन में मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के मन में मोदी' जैसे नारे क्षेत्र के ताकतवार नेताओं को एक तरह से नीचा दिखाने की कोशिशों से ज्यादा क्या थे। मध्यप्रदेश के मन में शिवराज थे, मोहन यादव हो सकते हैं, वीडी शर्मा हो सकते हैं या मध्यप्रदेश को कोई और भी नेता हो सकता है। मोदी को तो आप देश के मन में ही रहने देते।
राज्यों के स्तर पर अगर वहां की जनता के मन में उस राज्य का कोई नेता नहीं है तो मान लीजिए भाजपा का कांग्रेसीकरण हो चुका है। केन्द्रीय नेतृत्व ही अगर राज्यों के फैसले लेने लगा है तो क्या यह कांगे्रेस के आलाकमान कल्चर का भाजपा में प्रवेश नहीं है। केन्द्रीय नेतृत्व ने राज्यों में जाकर वाराही एनालेटिक्स और एसोसिएशन आफ ब्रिलियंट माइंड जैसी एजेंसियों के नौसिखिए युवाओं की टोली के सर्वे के आधार पर राज्यों में उम्मीदवारों के चयन को पैमाना बना लिया। इसमें भाजपा के संगठन और जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं और नेताओं की राय को हाशिए पर ढकेल दिया।
संघ और संघ के अनुषांगिक संगठनों से जुडे लोगों की राय का भी कोई महत्व नहीं रहा। भाजपा में मंडल से लेकर जिले से उम्मीदवारों के नामों का पैनल पहले राज्य में जाता था। उसके बाद प्रदेश चुनाव समिति में चर्चा के बाद केन्द्रीय चुनाव समिति में जाकर राज्य के शीर्ष नेताओं से चर्चा के बाद उम्मीदवार तय होते थे।
ये सारी प्रक्रिया पिछले दस सालों में भाजपा में तिरोहित हो गर्इं। ऊपर से बीच चुनाव में जेपी नड्डा कह गए कि भाजपा को अब संघ की मदद की दरकार नहीं है। जाहिर है दो चरणों के बचे हुए चुनाव में इसका साफ असर दिखा। सोशल मीडिया के योद्धाओं के भरोसे बैठी भाजपा जमीन पर लड़ने वालों की उपेक्षा पर उतर आई।
नड्डा के बयान से संदेश यह गया कि भाजपा ने खुद को संघ से स्वतंत्र मान लिया। यह तो ऐसा हुआ कि बेटा बाप से कहे कि अब मैं स्वतंत्र हूं, कायदे से होता यह है कि बाप बेटे को यह संदेश दे सकता है कि अब तुम स्वतंत्र हो। यहां नड्डा ने उलटी गंगा बहा दी।
अब जो परिदृश्य है, उसमें मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री हैं। लेकिन वर्ष 2014 और 2019 के मुकाबले आज की तस्वीर पर विवशता की धूल साफ देखी जा सकती है। नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू भले ही चार जून से पहले मोदी के आगे कुछ 'कम' नजर आते रहे हों, लेकिन आज इन नेताओं का जो कद है, वह उन्हें काफी हद तक प्रधानमंत्री पद के लिए रिमोट कंट्रोल थामने वाली स्थिति में ले आया है।
ऐसे में मोदी की नेतृत्व क्षमता की असली परीक्षा अब शुरू हो रही है। उन्हें यह साबित करना होगा कि 56 इंच के सीने को अपनी ताकत दिखाने के लिए अब भी 'आयातित धड़कन' वाली विवशता की आवश्यकता नहीं है।
क्या ऐसा हो पाएगा? आज की भाजपा ने भूल तो बहुत कर लीं, अब उसके लिए समय है कि वह अतीत की धूल का अवलोकन करे। उसमें छपे अपने पांव के निशान को गौर से देखे।
सही तरीके से पड़ताल करे कि कैसे उन निशानों में वह रेखाएं नहीं दिख रही हैं, जो अब तक के सफल सफर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सीख और आदर्शों की जीवंत इबारत से युक्त थीं।
कमल को धूल का फूल बनाने के बाद उसका खोया गौरव लौटाने का रास्ता संघ के गलियारों से होकर ही गुजरता है। सवाल यही कि आज की भाजपा क्या इस बारे में कुछ सोचना चाहेगी?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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