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लोग क़रारों के ख़ुद को अच्छे लगने वाले अर्थ करके ख़ुद को धोखा देते हैं

खरी-खरी            Mar 18, 2022


सुशोभित

महात्मा गाँधी से मैंने बहुत अच्छी बातें सीखी हैं। उनमें से एक यह है कि अगर सत्य के प्रयोगों के क्रम में हमारे विचार निरंतर बदलते रहें तो एक ही विषय पर प्रकट किए गए दो विचारों में से बाद वाले विचार को अधिक प्रमाणभूत माना जाए। यानी हमें अपने विचारों का निरंतर परिशोधन करते रहना चाहिए, देश-काल-परिस्थिति के अनुसार उनमें उचित-अनुचित का भेद करके बदलाव लाना चाहिए।

यह प्रविधि हमारे विवेक को जगाए रखती है। अलबत्ता इसमें सुविधा की क्षति है, क्योंकि सुविधा तो यही कहती है कि हम अपनी एक राय क़ायम कर लें और उसी पर आजीवन बने रहें, ताकि बार-बार के संशोधन की झंझट से मुक्ति मिले। आप पाएँगे कि बहुतों ने इसी रीति को अंगीकार कर लिया है। उन्होंने अपने-अपने पक्ष चुन लिए हैं और उसी के अनुरूप बात करते हैं।

बीते दस वर्षों के सार्वजनिक लेखन में मेरे स्वयं के विचार अनेक बार बदले हैं। अनेक बार उनमें मैंने संशोधन किया है। मनुष्य का जाग्रत-विवेक इसी में है कि वह परिप्रेक्ष्य को समझकर अपनी बात कहे, हर बात में एक राग ही नहीं अलापते रहे। मिसाल के तौर पर, अगर द कश्मीर फ़ाइल्स नामक फ़िल्म आज से दस या पंद्रह साल पहले बनाई जाती तो मैं उसका भरपूर स्वागत करता।

मुझे वह दौर अच्छी तरह याद है, जब मुख्यधारा के सार्वजनिक विमर्श पर लेफ्ट, लिबरल और सेकुलर दृष्टिकोण का प्राधान्य था और एक अजीब तरह के मुस्लिम-तुष्टीकरण के आलोक में चीज़ों को प्रस्तुत किया जाता था। वह एक घुटन भरा माहौल था। वैसे में उस जैसी फ़िल्म न्याय का आलोक बनकर आती, अलबत्ता निष्पक्ष सत्य तो वह तब भी नहीं कहलाती, क्योंकि उसके न्याय में प्रतिकार है, पूर्ण-सत्य का आलोकन नहीं है।

किंतु आज? आज परिस्थितियाँ पूरी तरह से बदल चुकी हैं। सोशल मीडिया ने मुख्यधारा के विमर्शों को हाशिये पर धकेल दिया है और बहुसंख्यकों की आवाज़ इंटरनेट के ट्रेंड्स और रुझानों को प्रभावित करने लगी है। मीडिया, न्यायपालिका और चुनावी-लोकतंत्र जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के स्वरूप में भी उस सत्ता से बदलाव आया है।

हमें याद रखना चाहिए कि हिंदुत्व और सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद की विचारधारा स्वत:स्फूर्त और मौलिक विचारधारा नहीं है, बल्कि छद्म सेकुलरिज़्म की तीखी प्रतिक्रिया में उभरी एक आक्रोशपूर्ण अभिव्यक्ति है। उसमें न्याय इतना नहीं है जितना कि प्रतिकार है और उसका स्वर रचनात्मक नहीं विध्वंसात्मक है। यह आपको ग़ुस्से से भरती है, लेकिन आपकी मानवीयता को नहीं पुकारती।
आज से दस वर्ष पूर्व तक यह विचार-सरणी त्याज्य या उपेक्षणीय थी, किंतु भारतीय जनता पार्टी के बहुमत से सत्तासीन होने के बाद अब वह मुख्यधारा बन चुकी है।

आज चहुँओर धुर-राष्ट्रवाद की गूँज है। धार्मिक प्रतीकों और पहचानों को बिना किसी लज्जा और संकोच के प्रदर्शित किया जाने लगा है। नेहरूवादी मॉडल का लक्ष्य यह था कि भारतीयों में आधुनिक और वैज्ञानिक विश्वदृष्टि विकसित हो, वे शिक्षित बनें और मानवता में विश्वास रखें, साथ ही धर्म और जाति की विभेदकारी, प्रतिक्रियावादी, पिछड़ी हुई दृष्टि को त्याग दें। कालान्तर में राष्ट्रवादी मॉडल- जिसके मूल में एक ही रोष है कि जब 'वो' अपने धर्म का पालन करने में शर्म नहीं करते तो 'हम' क्यों करें?- ने इन मूल्यों को ताक पर रख दिया है।

इससे आपको तात्कालिक संतोष तो मिल जावेगा कि हमने जैसे को तैसा कर दिया, करारा जवाब दिया, ईंट के बदले पत्थर मार दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में आप उन जैसे ही बनते चले जावेंगे, जिनसे आप घृणा करते थे। क्या सच में ही आज भारत के लोग अपने बच्चों को उग्र राष्ट्रवादी मॉडल में ढालना चाहते हैं या वे उन्हें नेहरूवादी मॉडल के तहत सुसभ्य विश्व-नागरिक बनाना चाहते हैं? यह प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है और सभी को स्वयं से पूछना चाहिए।

मैं कश्मीर फ़ाइल्स के निर्देशक का एक इंटरव्यू हाल ही में देख रहा था। जब उनसे पूछा गया कि आपने फ़िल्म में अधूरा सच क्यों दिखलाया, इतिहास में कुछ प्रसंगों को चुनकर ही क्यों प्रस्तुत किया, आपने फ़िल्म में मुसलमानों को हुई क्षति क्यों नहीं दिखलाई और किसी भी नेक मुसलमान को क्यों नहीं दिखाया, साथ ही घटनाओं के मूल कारणों और उत्प्रेरकों की गम्भीर विवेचना क्यों नहीं की आदि इत्यादि तो निर्देशक ने जवाब दिया- "क्योंकि अतीत के निर्देशकों ने भी तो ऐसा ही किया था!

आपने उनसे यह क्यों नहीं पूछा?" तो बात स्पष्ट हो गई। अतीत के निर्देशकों ने अन्यायपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया था तो हमने उस अन्याय का बदला ले लिया। उन्होंने एक पहलू को दिखाया तो हमने भी एक ही पहलू को दिखाया। तब प्रश्न उठता है कि अतीत के निर्देशकों को जब इतने वर्षों से एकपक्षीय और असत्यपूर्ण कहकर लताड़ा जा रहा था तो वैसा ही करके आप न्यायपूर्ण कैसे हो गए? क्योंकि अगर फ़िल्म स्वयं को सत्य और न्याय का उद्घाटन करने वाली बतलाती है तो वह यह नहीं कह सकती कि हमने खण्डित सत्य को इसलिए प्रस्तुत किया, ताकि अतीत से प्रतिशोध ले सकें।

यह तो हुई फ़िल्मकार की बात, क्या ही आश्चर्य है कि इस खण्डित सत्य- जिसका मूल मक़सद बहुसंख्य समुदाय के आक्रोश को उभारकर उसका दोहन करना है- के प्रचार में भारतीय राज्यसत्ता इस तरह जुट गई, जैसे कि इससे पहले कभी कोई सरकार किसी फ़िल्म के प्रचार में नहीं जुटी थी। लज्जा और संकोच और औचित्य को ताक पर रख दिया गया।

प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्रीगण फ़िल्म को देखने की अपील करने लगे। जैसे कि इस परिघटना पर इससे पहले कोई फ़िल्म नहीं बनाई गई थी, कोई किताब नहीं लिखी गई थी, कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई थी, केवल पहली बार ही इस विषय को छुआ गया है? या जैसे कि यह घटना तीस साल पहले नहीं बीते कल में हुई है? या जैसे देश में इसके सिवा और मानव-त्रासदियाँ नहीं हुईं?

केंद्र सरकार ने इससे यह तो सिद्ध कर दिया कि वह बहुसंख्यक सवर्णों की राजनीति करती है और देश के दूसरे वर्गों के सुख-दु:ख उसकी चिंता के दायरे में नहीं हैं, क्योंकि इससे पहले उसने कब इस तरह से किसी दलित, अल्पसंख्यक या आदिवासी के दु:खों को रेखांकित करने वाली फ़िल्म को प्रचारित किया था?

इतना ही नहीं, जिस सत्ता के मुखियाओं पर अतीत में हुए दंगों में पक्षपात के आरोप लगे हैं और जिन आरोपों को दबा-छुपा दिया गया है, वे आज सत्य और न्याय की बात करते हैं। यह तो दु:साहस की अति है।

किन्तु वे जानते हैं कि उन्होंने जनमत के सोचने की क्षमता को क्षीण कर दिया है, उसमें अंधा आक्रोश भर दिया है, अपने-पराये के भेद को उभार दिया है और उनके मतदाता इसके लिए उनकी सराहना ही करेंगे, उनसे प्रश्न नहीं पूछेंगे। उन्हें अपने बंधक-मतदाताओं के सिवा किसी और की चिंता है भी नहीं।

इसीलिए मैंने कहा कि यही फ़िल्म आज से दस या पंद्रह वर्ष पूर्व आती तो मैं इसका स्वागत करता, किंतु आज जिस तरह की बहुसंख्यकवादी राजनीति देश में चल रही है, उसमें इस तरह की एकतरफ़ा भावनाओं को भड़काना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है और इसके दूरगामी नुक़सान देश के सामाजिक ताने-बाने को होंगे। यह राजनीति के लिए देश को तोड़ने और बाँटने की कोशिशें हैं, तात्कालिक लाभ के लिए आग लगाने के प्रयास हैं।

मैंने अपने दृष्टिकोण को संशोधित किया है, क्योंकि एक बुद्धिजीवी होने के नाते यह मेरी ज़िम्मेदारी है। मैं लम्बे समय से इस्लाम में निहित कट्‌टरता का आलोचक रहा हूँ और बुर्क़ा-हिजाब को स्त्रीविरोधी, शरीयत को मानव-विरोधी और ईदुज्जुहा जैसे वीभत्स पर्व को पशुओं के जीवन के अधिकार के विरुद्ध एक कुत्सित पाप मानता रहा हूँ।

किंतु अपने हर लेख के अंत में मैंने इस्लाम में सुधार की अपील की है, प्रतिशोध या प्रतिहिंसा की भावनाओं को नहीं पुकारा है। दूसरे, इस्लाम की आलोचना मैंने हिंदू-दृष्टि से नहीं की है, और प्रकारान्तर से हिंदू सवर्णवाद, मनुवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भी निरंतरता से आलोचना मैं करता रहा हूँ। जिन मित्रों ने अपने-अपने पक्ष और पाले चुन लिए हैं, उन्हें यह भ्रम में डालता है कि आख़िर मेरी विचारधारा है क्या? किंतु मेरे स्तर पर इसमें कोई भेद नहीं है।

याद रहे कि फ़िल्म एक कलात्मक अभिव्यक्ति होती है और कला का उद्देश्य हमें मानवीय और उदात्त बनाना है। कश्मीर फ़ाइल्स के निर्देशक ने अपनी फ़िल्म की तुलना शिंडलर्स लिस्ट से की है, किंतु वे भूल गए कि शिंडलर्स लिस्ट एक महान मानवीय कृति है, जिसमें एक जर्मन राष्ट्रवादी और नात्सी पार्टी का सदस्य यहूदियों के प्राण बचाता है।

कश्मीर फ़ाइल्स में अगर मुसलमानों को हिंदुओं की प्राणरक्षा के प्रयास करते प्रदर्शित किया गया होता- जो कि मनगढ़ंत नहीं है वास्तविकता है क्योंकि घाटी में सभी मुस्लिम परिवार पंडितों के ख़ून के प्यासे नहीं थे- तब वह शिंडलर्स लिस्ट जैसा मानवीय दस्तावेज़ बन पाती।

अभी तो वह अतीत में हुए अन्यायों का दोहन करने वाली अभिव्यक्ति है, जिससे आने वाले कल के लिए एक कंस्ट्रक्टिव विज़न उभरकर सामने नहीं आ पाता है। और जब भारतीय जनता पार्टी जैसा दल किसी परिघटना को प्रचारित करता है तो आपको मान लेना चाहिए कि इसमें राजनीति कितनी है और मनुष्यता कितनी।

यह दल बिना किसी राजनीतिक लाभ के कोई काम नहीं करने वाला। वास्तव में, भारतीय जनता पार्टी की इस फ़िल्म में रुचि देखकर ही आमजन को सचेत हो जाना चाहिए कि कहीं उन्हें किसी आक्रामक असत्य में तो नहीं धकेला जा रहा है?

सबसे अंत में महात्मा गाँधी से मिली अनेक अच्छी सीखों में से एक और, जिसके साथ मैं अपने इस लेख का समापन करता हूँ :

“सभी लोग क़रारों के ख़ुद को अच्छे लगने वाले अर्थ करके ख़ुद को धोखा देते हैं। किसी शब्द का अपने अनुकूल पड़ने वाला अर्थ करने को न्यायशास्त्र में द्वि-अर्थी मध्यपद कहा गया है। सुवर्ण न्याय तो यह है कि विपक्ष ने हमारी बात का जो अर्थ माना हो, वही सच माना जाए; हमारे मन में जो हो वह खोटा अथवा अधूरा है। दूसरा सुवर्ण न्याय यह है कि जहां दो अर्थ हो सकते हैं, वहां दुर्बल पक्ष जो अर्थ करे, वही सच मानना चाहिए। इन दो सुवर्ण मार्गों का त्याग होने से ही अधर्म चलता है।” [ “सत्य के प्रयोग”, पृष्ठ 54-55, नवजीवन प्रकाशन मंदिर ]

वीरेंद्र भाटिया की वॉल से

 



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