ध्रुव शुक्ल।
सवाल अब यह नहीं है कि चुनाव में अराजकता फैलाने वाले गुण्डे किस राजनीतिक दल के हैं।
क्योंकि हरेक दल एक-दूसरे पर यह आरोप लगाता है कि ये गुण्डे तो तुम्हारे दल के थे यानी उसके दल के नहीं थे।
इससे यही प्रमाणित होता है कि प्रत्येक दल में गुण्डे बड़ी मात्रा में दाखिल कर लिए गये हैं और उनका वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।
सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि किसी भी राजनीतिक दल का गुण्डों के बिना काम क्यों नहीं चलता?
इसका उत्तर कोई राजनीतिक दल तो कभी नहीं देगा पर जो दिख रहा है उससे यह बार-बार प्रमाणित होता है कि ये गुण्डे राजनीतिक दलों से मोटी रकमें लेकर गांवों और शहरों की झुग्गी बस्तियों में असहाय और अभावग्रस्त आबादी पर नाजायज दबाव डालकर वोट डलवाने का काम करते हैं।
इन गुण्डों के छाप-तिलक और पहनावे को देखकर आसानी से जाना जा सकता है कि इनकी मतान्ध कट्टरता और क्रूरता का स्रोत किस-किस राजनीतिक दल में हैं।
ये गुण्डे उस खाये-पिये और अपने आपसे ऊबे मध्यवर्ग को भी भयभीत किये रहते हैं जो मतदान के दिन घरों से नहीं निकलता या फिर मतदान केन्द्र से दूर पिकनिक पर चला जाता है और गुण्डे ट्रेक्टर ट्रालियों में बेसहारा वोटरों को गांव-गांव से ढोकर मतदान केन्द्र तक लाते हैं और वोट डलवाकर फिर उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं।
निर्लज्ज नेताओं की आमसभाओं में भीड़ इकट्ठी करने का काम गांव-गली के गुण्डे ही करते देखे जाते हैं और उन्हें पार्टी फण्ड से इसका मेहनताना भी मिलता है।
जब उनका दल चुनाव में जीत जाता है तो वे सड़कों पर नाचते हैं, पटाखे फोड़ते हैं, गुलाल उड़ाते हैं। मिठाई बांटते हैं।
गुण्डों के चेहरों पर उनकी यह खुशी कितनी साफ झलकती दीखती है कि देखो हमने ग़रीबी में जीवन बसर करती जनता को अपने दल के पक्ष में एक बार फिर हराकर राज्य हड़प लिया है। अब हम भी कहीं अतिक्रमण करके काबिज़ हो सकेंगे।
सरकारें जनता के दुख दूर करने के नाम पर बदलती हैं पर वे अपने विरोधी दल के गुण्डों के अतिक्रमण हटाने में ही पांच साल गुजार देती हैं।
गुण्डे नहीं, गुण्डों के सरदार नेता बनते हैं और सबसे बड़े दल से सौदेबाजी करके मंत्रीपद पाते हैं।
फिर अपने गुण्डादल को अगामी चुनाव के लिए और ताक़तवर बनाते चले जाते हैं। आज़ादी के बाद कितने बरस बीत गये, हम अब तक चुनाव और दलबदल का ही तमाशा देख रहे हैं। इस तमाशे से देश का असहाय जीवन नहीं बदलता और हृदयहीन नेता भी दल बदल-बदलकर नहीं बदलते।
लोकतंत्र के नाम पर चल रही इस फिल्म का प्रिंट इतना घिस गया है कि सीसीटीवी पर गुण्डों के चेहरे पहचानना कठिन होता जा रहा है।
वे अपने सरदार का मुखौटा लगाकर अपना चेहरा छिपा लेते हैं।
साधो! सब दल एक समान।
जन जागें तो बचे लोकतंत्र का मान।
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