ममता मल्हार।
किसी ने पूछा कल जोर देकर आप लिख नहीं रही हो, हमने पूछा क्या? वे बोले राम, प्राण-प्रतिष्ठा, शंकराचार्य ब्लॉ-ब्लॉ हमने कहा राम पर लिखने की हमारी न तो हैसियत है न औकात क्योंकि रामचरित मानस सैकड़ों बार पढ़ने के बाद भी मैं राम के रामत्व को समझने की बस कोशिश कर पा रही हूं, अनुभव कर रही हूं और जीवन में कैसे उतार पाऊं इसके प्रयास हर पल करती रहती हूं।
राम-कृष्ण हमारे ऐसे आराध्य हैं कि जिनके विस्तार की कोई सीमा नहीं। तो कम से इस समय तो अपन राम पर नहीं लिखेंगे। क्योंकि राम को हम जीने का प्रयास करते हैं। राम के साथ हम सीताराम, जय सियाराम ही कहेंगे, बिना सीता के राम अधूरे हनुमत करें न काज अधूरे।
अब आई प्राण-प्रतिष्ठा की बात तो भाई मैं शास्त्र ज्ञाता नहीं हूं पर कलयुगी शास्त्र ज्ञान जो सोशल मीडिया पर चल रहा है मैं बस उसे ही पढ़ रही हूं और देख रही हूं कि बड़े-बड़े पंडित यहां मोल्ड हो गए, महाज्ञानी बन गए तो अपनी प्राण-प्रतिष्ठा पर भी टिप्पणी करने की हैसियत नहीं।
अब शंकरचार्यजी बचे तो शैव-वैष्णव सम्प्रदाय के शंकराचार्यों पर हम जैसे कलयुगी बुद्धि के अजीर्ण में टिप्पणी करें तो पाप ही कमाएंगे। मैं आजकल बस पढ़ रही हूं जान रही हूं। शंकराचार्य पर टिप्पणी मतलब सूरज के सामने दिया जलाना है। बाकी राममंदिर बन रहा है खुशी की बात है।
रामजी के यहां से हम जैसे कलयुगी इंसानों के लिए पीले चावल आ गए यह परम सौभाग्य की बात है। हमने तो बचपन से देखा था कि किसी भी बड़े काम के पहले देवताओं पुरखों को आमंत्रित किया जाता है। अब ये भी हुआ तो यह भी सही।
हमसे कहा गया कि राममंदिर का चित्र दरवाजे पर लगा लीजिये। हमने देखा उस पर श्रीराम का भी चित्र है मैं किसी भी देवी-देवता को दरवाजे पर नहीं लगाती क्योंकि हम उनको अपना द्वारपाल बनाने की हैसियत नहीं रखते तो ससम्मान मन्दिर रामजी के चित्र के पास अपनी काम की टेबल पर पीले चावल के साथ रख दिया।
दुनिया कुंए में गिरने जाती है तो हम नहीं जाएंगे, हमारा अपना दिमाग है। बाकी राजनीति कल भी हो रही थी आज भी हो रही है। कल भी जनता बस मुंह चलाती थी आज भी सोशल मीडिया पर कॉपी पेस्ट या पार्टिगत विचारधारा के वशीभूत होकर अपशब्द लिखे जा रहे हैं। यह तो मेरे मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को भी मंजूर नहीं होगा।
जिन्होंने परशुराम के क्रोध को भी मृदु मुस्कान के साथ अपने ऊपर ले लिया वे श्रीराम किसी भी धर्माचार्य पर अशोभनीय टिप्पणी अपशब्द तो बिल्कुल नहीं सुनते।
अधूरे दोहे और चौपाइयां लिखना गलत होता है, यह बहुत सारे लोग कर रहे हैं। दोहे की पहली पँक्ति के साथ रामा और दूसरी पँक्ति के साथ सियारामा लगाया जाता है। बाकी जिसकी जैसी श्रध्दा!
शब्द सोच-समझकर ही खर्च करने चाहिए, ब्रम्हांड में गूंजते-घूमते खुद तक ही आ पहुंचते हैं। बाकी समय की बलिहारी है। समय, प्रकृति और उस परमसत्ता जिसके भी अस्तित्व को मानते हों या न मानते हों उनसे डर जरूर रहना चाहिए।
राम से बड़ा कोई नहीं है कोई भी नहीं, मनमानी जब तक चल रही है तो यह भी मानकर चलिये आपका समय अच्छा है क्योंकि न्यायदण्ड और कर्मफल से तो स्वयं श्रीराम और श्रीकृष्ण भी नहीं बच पाए थे, वे चाहते तो बच सकते थे क्योंकि भगवान थे पर मनुष्यों को सन्देश देने उन्होंने कर्मफल भोगा।
जय सियाराम! जय श्री सीताराम!
जय श्री राधेकृष्णा।
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