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जातियों के उत्पात नींव को हिला देते हैं,देश के लिए भूलिए,आपकी जाति क्या है

खरी-खरी            Apr 11, 2018


राकेश दुबे।
10 अप्रैल गुजर गया। “सोशल मीडिया का भारत बंद” बिहार और उड़ीसा की छुटपुट घटना तक सिमट गया। 2 अप्रैल को ‘भारत बंद’ के नाम पर देश के 10 राज्यों को हिंसा की आग में झोंक दिया था गया। 2 अप्रैल के बंद ने सियासत की नई इबारत लिखने की कोशिश की है।अब बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम के साथ एक रंग भी खोज लिया गया है।

उत्तर प्रदेश में किसी और रंग में रंगी गई प्रतिमा को फिर से नीले रंग से रंगा जा रहा है। सरकार जैसी 10 अप्रैल को सतर्क रही वैसी 14 अप्रैल को भी सतर्क रहें तो बेहतर है। समाज शांत नहीं है, माहौल की तुलना वर्षों पूर्व तमिलनाडु के उस आन्दोलन से की जा सकती है, जिसने वहां से आज के 2 बड़े राजनीतिक दलों को हाशिये पर ला दिया और वे अब तक भी वहां हाशिये पर हैं।

न तो कांग्रेस वहां वापस हो सकी और न भाजपा कोई चमत्कार अब तक दिखा सकी है। देश का दुर्भाग्य है की जिस जाति भेद को समाप्त करना भारतीय प्रजातंत्र का लक्ष्य था। वही जाति समाज से ज्यादा सियासत का मुद्दा बन गई है और अब इसके कारण ही सत्ताओं के समीकरण संवरते हैं।

आज़ादी के पहले और उसके बीस बरस बाद तक देश को बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियाँ मिली, चुनाव आये गये। लेकिन ऐसा नहीं, हुआ जो इन दिनों हो रहा है। वे देश बनाना चाहते थे, अब देश को छोडिये पहले खुद,गुट, गिरोह फिर पार्टी बनाने की धुन है, यहाँ तक भी बर्दाश्त है। दुःख की बात यह है कि इस नई राजनीतिक शैली की शुरुआत ही प्रतिपक्षी दल की मुक्ति के लक्ष्य से हो रही है, फिर समाज में इसका प्रभाव न दिखे यह असम्भव है।

मुद्दे की बात कोई समझना नहीं चाहता और समझाना भी नहीं चाहता। 2007 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आदेश जारी किया था कि एससी-एसटी एक्ट के तहत बिना जांच किसी की गिरफ्तारी न हो। उन्होंने इस आदेश का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का भी प्रावधान किया था। प्रशासनिक स्तर पर भी आदेश जारी किए गए थे कि पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी से जांच कराए बिना कोई रिपोर्ट नहीं दर्ज की जाएगी। सबको याद है बहन जी तब सर्वेसर्वा थीं। अब 11 साल बाद सर्वोच्च अदालत इस प्रशासनिक आदेश को, किस अन्य मामले में फैसले में बदलती है, तो हिंसक आन्दोलन हो जाता है। सवाल है, क्यों ?

पिछले एक वर्ष में पीछे जाकर देखें तो गुजरात, राजस्थान और हरियाणा याद आते हैं, गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर अचानक राजनीति के केंद्र में आ गए। हार्दिक पटेल की गिरफ्तारी के बाद कई शहरों में हिंसा भड़क उठी और नौ लोगों को जान गंवानी पड़ गई।

राजस्थान हरियाणा में भी मुद्दे ऐसे बड़े नहीं थे कि हिंसा ही विकल्प हो, लेकिन हिंसा हुई और आज तक इसके पीछे के कारक “राजनीति” को किसी ने नहीं छोड़ा किसी ने भी समस्या निदान ,कोई विकल्प नहीं दिया। सबका साथ सबका विकास नारे तक ही सीमित रहा।

न ये न वो कोई भी सबको साथ न ला सका विकास तो दूर की कौड़ी है। यह बात शत प्रतिशत सही है की जाति को राजनीति में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कर्नाटक उदहारण है, ताश में तुरुप चाल की तरह कांग्रेस किसी एक जाति के वोट बैंक पर हाथ रखती है, तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को कहना पड़ता है “ मैं जैन नहीं वैष्णव हिन्दू हूँ।”

इतिहास गवाह है कि जातियों के उत्पात नींव को हिला देते हैं। हम उसके आधार को वोट बैंक बना रहे है गंभीर प्रश्न है। प्रश्न की जद में सब हैं, नेता नागरिक और देश भी। देश के लिए भूलिए, आपकी जाति क्या है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।

 


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