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मुनाफे की संस्कृति में ढलती क्रूर होती दुनिया

खरी-खरी            Mar 05, 2022


 

हेमंत कुमार झा।

मन रह रह कर एक वायरल वीडियो में दिखी उसी नन्हीं बच्ची के चेहरे पर चला जाता है जो जंग में शामिल होने जाते अपने पिता से लिपट कर बिलख रही थी।

क्या हुआ होगा उस बच्ची के पिता का? इस वक्त किसको किसकी खबर है? अभी तो लाशें गिनना, उनकी पहचान करना भी संभव नहीं।
    
फिर, मन यह सोच कर बैठ जाता है कि दोनों ओर के जो जवान मर रहे हैं वे भी तो बच्चों के पिता होंगे। जिस तरह वह पिता विदा होते वक्त अपनी बच्ची को सीने से लगा कर रो रहा था, उसी तरह हजारों पिता रोए होंगे।
 
क्या पता, कौन लौट पाएंगे, कौन इन कुटिल राजनीतिज्ञों के षड्यंत्रों से जन्मी मौत और विध्वंस की इस विभीषिका की भेंट चढ़ जाएंगे।
       
क्यों हो रहा है यह युद्ध?
 
अमेरिका और रूस ने तो यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी दी थी।
   
कभी यूक्रेन भी परमाणु शक्ति संपन्न देश था। महाशक्ति में शुमार देशों को यह बर्दाश्त नहीं था यूक्रेन या ऐसे अन्य देश परमाणु हथियार रखें। फुसला कर, समझा कर, धमका कर इनसे ऐसे हथियार ले लिए गए या उन्हें नष्ट करवा दिया गया।
   
यूक्रेन को भी कहा गया कि आपको परमाणु हथियार रखने की कोई जरूरत नहीं। हम हैं न।
   
अमेरिका और रूस ने मिल कर ऐसा कहा था। सुरक्षा की गारंटी भी थी।
   
छोटा सा देश, बिहार से भी आधी आबादी। महाशक्तियों की खींच तान में उलझ कर रह गया। भरोसा करने के सिवा कोई अन्य रास्ता नहीं था। कुछ हथियार रूस को दे दिए, कुछ नष्ट कर दिए।
    
अब मामला इतना आसान तो होता नहीं।
 
सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन की सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट जटिल है। वहां रूसी मूल के लोग भी हैं, अन्य कई मूलों के भी हैं।
 
रूसी मूल के लोगों को रूस के प्रति कमजोरी, रूस को उनके लिये। यूक्रेन में उपद्रव होते रहे। उकसाने के आरोप रूस पर भी लगते रहे।
     
चुनाव की राजनीति, सत्ता की राजनीति का अपना घृणित पक्ष भी होता ही है। अन्य लोगों की भावनाओं को भड़का कर उन्हें तुष्ट करने के लिये रूस समर्थक लोगों का कठोर दमन भी होता रहा। अलगाववाद अस्मिता मूलक विमर्शों का एक अनिवार्य साइड इफेक्ट है।
 
जाहिर है, यूक्रेन में कभी स्थायी शांति नहीं रही।
 
इधर, अमेरिका की जिद...कि हम नाटो का विस्तार करेंगे, उसमें कभी 'वारसा पैक्ट' में शामिल रहे देशों को भी शामिल करेंगे, रूस को चिढाएंगे। कई को शामिल किया भी।
     
कमजोर रूस चिढ़ने के अलावा कुछ और करने की स्थिति में था भी नहीं।
   
अमेरिका यहीं नहीं रुका। कभी सोवियत हिस्सा रहे देशों को भी नाटो में शामिल करने की योजना पर वह आगे बढ़ने लगा।
 
बात यूक्रेन को नाटो में शामिल करने तक पहुंच गई।
 
अपने देश में रूस समर्थक-रूस विरोधी शक्तियों के आपसी द्वंद्व से हलकान यूक्रेन कभी ठीक से सांस भी नहीं ले सका।
   
ऊपर से, अमेरिकी षड्यंत्र जिनकी थाह लेना आसान नहीं।
 
अमेरिका सहित पश्चिमी देशों की मंशा कि रूस की नाक पर नाटो के सैन्य अड्डे होंगे। फिर, रूस के तेल-गैस के अथाह भंडार को अपने मन माफिक समझौतों से काबू में करेंगे।
    
पुतिन दशकों से राज करते हुए रूस की सैन्य शक्ति बढाते रहे, बढाते रहे। पूर्व केजीबी एजेंट के तौर पर उन्हें षड्यंत्रों की अच्छी समझ तो थी ही।
   
उन्होंने यूक्रेन को धमकाया कि नाटो से कोई मतलब नहीं रखना है। अमेरिका ने यूक्रेन को समझाया कि नाटो में जुड़ने से उसके कितने फायदे हैं।
    
यूक्रेन स्थितियों को संभाल नहीं सका।
 
महाशक्तियों की 'गारंटी' पर अपने परमाणु हथियार तो वह कब का खत्म कर चुका था।

अब, अगर उस गारंटी के बदले धोखा मिले तो उसे कोई भी मजबूत शक्ति पीट सकती थी।
वही हुआ।
 
अमेरिका-रूस के द्वंद्व में यूक्रेन कहीं का नहीं रहा। दोनों ने सुरक्षा की गारंटी की ऐसी की तैसी कर दी।
   
आज उस बिलखती बच्ची का चेहरा आंखों में छाया है, मन से निकल ही नहीं पा रहा।
   
अभी खबरों में देखा, मिसाइलों के आक्रमण से शहरी भी मर रहे हैं, छोटे बच्चे भी मारे जा रहे हैं।
 
पता नहीं, वह बच्ची अभी कहाँ होगी, उसका पिता अभी कहाँ होगा। क्या पता, वे दोनों फिर कभी मिल पाएंगे या नहीं।
    
इस युद्ध के बाद रूस के हथियार व्यवसाय की भी चांदी होगी, अमेरिका के हथियार व्यवसाय का भी सोना होगा।
    
अब महाशक्तियों की 'सुरक्षा की गारंटी' के प्रति छोटे-मंझोले देशों का विश्वास घटेगा। जम कर हथियारों की खरीद करेंगे वे। दुनिया भर की हथियार कंपनियां झोला भर-भर कर मुनाफा कमाएंगी।
     
निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों, स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश घटेगा, हथियारों में निवेश बढ़ेगा।
    
रूस और अमेरिका दोनों हथियारों के बड़े सौदागर हैं। फ्रांस और ब्रिटेन भी। अपने भारत में भी हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र को हाथ आजमाने के खासे अवसर बढ़ रहे हैं।
   
सब मिल कर खूब कमाएंगे। उस बच्ची के आंसुओं, उसके पिता के आंसुओं के प्रति किसी कंपनी को कोई सम्वेदना नहीं होगी। जितने युद्ध, उतना मुनाफा।

मुनाफे की संस्कृति में ढलती दुनिया कितनी क्रूर होती गई है, आज फिर इसका एक रूप नजर के सामने है।

 

 



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