हेमंत कुमार झा।
हम भले ही पढ़ने से इन्कार करें लेकिन वक्त की दीवार पर डरावनी इबारतें लिखी जा चुकी हैं। हम दोष दे सकते हैं वक्त के दौर को, लेकिन किसी को दोष देने से हमारे ऊपर मंडरा रहे खतरे कम नहीं हो सकते।
जैसे, बीएसएनएल और एमटीएनएल के बाबू लोगों को मान लेना चाहिये कि उनके वेतन की निरंतरता तो संकट में है ही,उनकी नौकरियां भी खतरे में हैं।
सरकारी बैंकों के कर्मियों को मान लेना चाहिये कि उनके लिये बेहद कठिन दिन आने वाले हैं। काम के घण्टों और वाजिब वेतन को लेकर उनके अधिकारों का हनन तो अब गिनने योग्य समस्या भी नहीं रही, अधिकांश बैंकों का अस्तित्व भी संकट में पड़ने वाला है।
सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को अंदाजा लगा लेना चाहिये कि आने वाले समय में सरकार को और समाज को उनकी कोई जरूरत नहीं रहने वाली है।
गरीबी झेलते हुए किसी तरह स्कूली शिक्षा की डगर तय करने वाले अधिकतर बच्चों को यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिये कि उनके लिये ऊंची और उच्च तकनीकी शिक्षा में कोई जगह है।
सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शिक्षकों को इसके लिये तैयार रहना चाहिये कि उनके वेतन की राशि की व्यवस्था में उनके संस्थानों का दम फूलने का दौर आने ही वाला है।
ओएनजीसी जैसी नवरत्न कंपनियों के कर्मियों को अपने संस्थान को अकाल मृत्यु से बचाने के लिये महामृत्युंजय का जप करवाने की व्यवस्था के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिये।
सरकारी नौकरियों की प्रत्याशा में अपने स्वर्णिम समय को कम्पीटीशन की तैयारी में झोंक रहे युवकों को समझ लेना चाहिये कि नीतिगत रूप से अधिकांश वैकेंसीज पर कुंडली मार कर सरकार बैठी रहेगी और अवसर मिलते ही अधिक से अधिक पदों को ही समाप्त करेगी।
छोटे दर्जे की निजी नौकरियां करने वाले उम्मीद छोड़ दें कि उनकी सेवा शर्त्तों और सेवा सुरक्षा में कोई मानवीय सुधार की गुंजाइश बाकी रह गई है। उन्हें गुलामों की जिंदगी की आदत डाल लेनी होगी और मान लेना होगा कि उनके लिये कोई नहीं सोच रहा...न सरकार...न समाज।
नहीं, ऐसी आशंकाएं इसलिये सामने नहीं आई हैं कि नरेंद्र मोदी को दोबारा जनादेश मिला है। कोई और भी प्रधानमंत्री बनता तो कमोबेश इन्हीं मंजरों से देश को दो-चार होना होता।
जिस रास्ते हम चले थे, हमें एक दिन यहां पहुंचना ही था।
यही रास्ता सही था, इसे साबित करने में सारी कायनात लग गई थी। जिसने भी इन रास्तों को लेकर संदेह व्यक्त किया उनकी आपत्तियों को स्यापा घोषित कर दिया गया। राजनीतिक नेताओं को ऐसे आर्थिक सलाहकारों से घेर दिया गया कि वे अपनी मौलिक चेतना से परे जा कर अर्थनीति के अमानवीय बनते जाने के विवश द्रष्टा बन कर रह गए।
आर्थिक हालात और वक्त की नजाकत देखते हुए नरसिंह राव ने आर्थिक उदारवाद की जिन नीतियों का अनुसरण किया उसके अपने तार्किक आधार थे, लेकिन यह राजनीति का नैतिक विचलन था या रास्ते की प्राकृतिक विसंगति, जिनमें कुछ दूर चलने के बाद ही नीति नियमन के सूत्र राजनेताओं के हाथों से छिटक कर किन्हीं अदृश्य हाथों में पहुंच गए। उनके हाथों में, जिन्हें वोट तो नहीं लेना था लेकिन राजनीति को संचालित करने की शक्ति उनमें ही निहित होती जा रही थी।
तभी तो कवि हृदय अटल जी के प्रधानमंत्रित्व में नौकरियों से पेंशन खत्म करने का क्रूर फैसला ले लिया गया और बतौर वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा इस अमानवीय निर्णय के पक्ष में किसी सिखाए तोते की तरह सिर्फ एक ही तर्क देते रहे, "देश पेंशन का आर्थिक भार वहन करने में सक्षम नहीं।"
फिर मनमोहन सिंह आए। उन्होंने उदारीकरण के अंतर्विरोधों और देश की वास्तविकता के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश की। लेकिन, मेमनों के झुंड में आप शेर को दयालु बने रहने की नसीहत नहीं दे सकते, और अगर देते हैं तो उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
खाद्य सुरक्षा, कमजोर वर्गों के लिये स्कालरशिप आदि के अतिरिक्त वे कुछ और सार्थक नहीं कर सके। कर भी नहीं सकते थे। वे नई शताब्दी के भारत में नवउदारवाद के मौन अग्रदूत थे। कमजोर सरकार चलाने के बावजूद वे अर्थतंत्र को लेकर अपनी नीतियों के साथ आगे बढ़ते रहे...अपनी प्रशंसा और निंदा के प्रति समभाव के साथ। जितना हो सकता था, अदृश्य शक्तियों ने उनकी सत्ता का नीतिगत दोहन किया।
मनमोहन सिंह की सीमाएं थी जो सामने आनी ही थी। एक सीमा के बाद वे चुक गए और नेपथ्य में चले गए।
अब आया ऐसा नेता, जिसके लिये अदृश्य शक्तियां बरसों से राह बना रही थीं। यह साहसी था, रिस्क लेने की क्षमता से लैस था, जिसके साथ दुनिया का सबसे बड़ा संगठन था, जो सच को झूठ और झूठ को सच बना कर जनता को भ्रमित करने में माहिर था, जनसमूह से कम्युनिकेट करने में जिसका सानी नहीं था ऊर्जा और आत्मविश्वास से भरपूर एक सशक्त व्यक्तित्व नरेंद्र दामोदर दास मोदी।
अदृश्य शक्तियों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया और सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
वे शिखर पर पहुंचे। उन्हें पहुंचना ही था। देश की नियति देश के नए नेता की भाग्य रेखाओं के साथ एकाकार हो गई।
नया दौर, नए तरह के कोलाहल, नई कार्यसंस्कृति, लेकिन उद्देश्य वही पुराना सरकारी संस्थानों की कब्र पर निजी अट्टालिकाओं का निर्माण...मनुष्यता की छाती पर चढ़ कर बाजार का नग्न नृत्य ।
तर्कों का स्पेस खत्म होने लगा, विचारों की जगह विचारशून्यता ने ली।
"मोदी मोदी मोदी मोदी"...का प्रायोजित जयघोष और इस शोर में गुम होती प्रतिरोध की आवाजें। वैचारिकता हास्यास्पद मानी जाने लगी और हर विरोधी स्वर अप्रासंगिकताओं का अरण्यरोदन करार दिया जाने लगा।
नए निजाम में नया देश बनाने का आह्वान खास कर युवाओं को बहुत आकर्षक लगा। नेहरू और राजीव गांधी के बाद मोदी ऐसे तीसरे प्रधानमंत्री बने जो युवाओं के दिलों में राज करने लगे। उन गरीब, ग्रामीण युवाओं के दिलों में भी...जिनको देने के लिये मोदी के पास हताशा के सिवा कुछ और नहीं था।
वे उनके लिये थे ही नहीं, वे उनके लिये आए ही नहीं थे। उनके लिये कौशल विकास कार्यक्रमों जैसी फ्लॉप योजनाओं के अलावा उनकी सरकार की नीतियों में कुछ खास नहीं था। जिन युवाओं के लिये मोदी आए थे...उनके पैकेज हैरतअंगेज खबरों की शक्ल में अखबारों की सुर्खियां बनने लगे, उनकी ऊंची उड़ान आसमान की हदों को नापने लगी। लेकिन...ऐसे युवा अपार जनसमुद्र में मुट्ठी भर ही थे।
मोदी आए भी तो मुट्ठी भर लोगों के लिये ही थे। उन कुछ खास समूहों के लिये, जिनकी मुट्ठियों में करोड़ों निर्धन लोगों के सपने कुचल कर दम तोड़ने को अभिशप्त हैं।
उन्होंने नारा दिया..."मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस।"
विशाल निर्धन समुदाय के लिये यह नीतिगत हादसा था जिन्हें जीवन के अनेक स्तरों पर सरकार के संरक्षण और प्रोत्साहन की जरूरत है।
इस नारे के सैद्धांतिक निहितार्थ चाहे जो हों, व्यावहारिक निहितार्थ विनाशकारी साबित होने लगे।
नरेंद्र मोदी ने बस इतना किया कि सरकारी उपक्रमों, सरकारी शिक्षा संस्थानों को अपनी मौत मरने के ज्यादा करीब ला दिया। वे इसी लिये सत्ता में आए ही थे या कहें इसी लिये उनको सत्ता में लाया ही गया था।
नेता चुने जाने या इस तरह के किसी प्रतीक अवसर पर दिए गए उनके भाषणों पर मत जाइए। इसका महत्व इतना ही है जितना किसी कोर्ट में गवाह का यह कहना कि मैं जो कहूंगा सच कहूंगा ।
महत्व उसका है जो अपनी जापान यात्रा में नरेंद्र मोदी ने अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के सम्मेलन में कहा था..."मैं भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था में बदल दूंगा।"
यह उस देश के प्रधानमंत्री के मुंह से निकले वैश्विक कारपोरेट शक्तियों के शब्द थे, जो यूरोप महादेश से भी बड़ा बाजार है, जहां अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं जिनका दोहन किया जाना बाकी है, जिसके सस्ते श्रम पर पूरी दुनिया की आर्थिक ताकतों की नजर है।
दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था यानी बीएसएनएल जैसी संस्थाओं के वजूद का ही कोई औचित्य नहीं, जहां पब्लिक सेक्टर के बैंकों के बने रहने का कोई मतलब नहीं...यानी रेलवे सहित परिवहन के तमाम साधनों का अवश्यम्भावी निजीकरण, यानी शिक्षा और चिकित्सा के तंत्र पर मुनाफा की संस्कृति का एकांत आधिपत्य, यानी पूरी व्यवस्था को अपने दायरे में समेट कर बाजार का मुक्त अट्टहास।
भारत को ऐसे नेता की जरूरत थी जो मुक्त आर्थिकी की विसंगतियों और बाजार के अतिक्रमण के दुष्प्रभावों से विशाल निर्धन जनसमुदाय की रक्षा कर सके। नरेंद्र मोदी इसके विपरीत हैं। वे मुक्त आर्थिकी के अग्रदूत हैं, जिनके पास निर्धन जनता के लिये सिर्फ सपने हैं और अमीरों के लिये नीतियां।
मध्यम वर्ग उनके लिये वही हैसियत रखता है जो उनके प्रथम कार्यकाल के प्रथम बजट को पेश करने के बाद उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पूरी साफगोई से कहा था "मध्यम वर्ग अपनी चिंता स्वयं करे।"
समृद्धि की ललक और उपभोक्तावाद से उपजे लालच ने मध्य वर्ग को वैचारिक रूप से इतना पतित बना दिया है कि वह खुदगर्ज तो हो सकता है, जो वह हो चुका है, लेकिन अपनी चिन्ता करने में समर्थ नहीं हो सकता।
क्योंकि अगर वह अपनी चिन्ता करने की सही वैचारिक राह पकड़ सका तो वंचित तबके से बढ़ी उसकी दूरी घटेगी, अति संपन्न तबके की नकल की उसकी ललक कम होगी नव औपनिवेशिक शक्तियों की कलई उतरेगी। ऐसी स्थिति व्यवस्था के लिये चुनौतियां प्रस्तुत कर सकती है। इसलिये, व्यवस्था ऐसी किसी भी संभावना की भ्रूण हत्या करने को सदैव उद्यत रहती है।
व्यवस्था की इस निरंतरता को बनाए रखने में, उसे सुदृढ़ करने में मोदी जैसे नेता अत्यंत उपयोगी साबित होते हैं। तभी तो इस आम चुनाव में उनको दोबारा शीर्ष पर लाने के लिये इतना खर्च किया गया है जो आम लोगों की कल्पनाओं से भी परे है।
बहरहाल, जनादेश के मद्देनजर जो व्यवस्था सत्ता शीर्ष पर काबिज हुई है वह भले ही भाषणों में मायाजाल रचती रहे, सत्य यही है कि पेंशन की मांग करते सड़कों पर नारे लगाते कर्मचारियों को अपनी मांद में लौट जाना चाहिये। इस राजनीतिक-आर्थिक संस्कृति में उन्हें कोई और सरकार भी ओल्ड पेंशन नहीं ही देती, लेकिन मोदी जी के आने से ऐसी कोई भी संभावना शून्य हो गई है।
स्थायी शिक्षकों का सम्मान और वेतन मांगने वाले पारा/नियोजित अब निश्चिंत हो सकते हैं कि वे चाहे जितना चीखें, अनशन धरना करें, उन्हें यह नहीं मिलेगा, क्योंकि मोदी जी की आर्थिक नीतियां इसकी इजाजत बिल्कुल नहीं देती।
नीति आयोग कसमसा रहा है, कई बार कह चुका है कि एलिमेंटरी एडुकेशन के पूरे तंत्र को प्राइवेटाइज़ किये जाने की जरूरत है। बीते दो साल में ही देश में ढाई हजार सरकारी स्कूल बंद किये जा चुके हैं। बिहार, हरियाणा, राजस्थान, एमपी आदि में चार हजार और स्कूलों को बंद करने का निर्णय हो चुका है।
अभी कुछ दिन पूर्व नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया मोदी जी को "आक्रामक निजीकरण" की राह पर बेधड़क चलने की सलाह दे चुके हैं। वहीं आक्रामक निजीकरण, जिसे ब्रिटेन में कभी 'थैचरवाद' कहा गया था और जो अब ब्रिटेन में ही वैचारिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। लेकिन...यह भारत है जहां आम चुनाव में आर्थिक नीतियां कोई मुद्दा ही नहीं बनती। यहां सरकारों को बिना जनप्रतिरोध के आसानी से जनविरोधी आर्थिक नीतियों को लागू करने की सुविधा है।
भारत में जिन नीतियों के आक्रामक क्रियान्वयन की सलाह दी जा रही है उन्हें अब ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस जैसे धनी देशों में भी वैचारिक चुनौती दी जा रही है। यहां तो अजीब सा अंतर्विरोध है कि जिनके लिये व्यवस्था कसाई साबित हो रही है ऐसे बकरे उसी व्यवस्था की जयजयकार में लगे हैं।
प्रतिरोध का कहीं कोई प्रभावी स्वर नहीं, जो स्वर हैं उनकी नोटिस भी नहीं ली जा रही। भारत की राजनीति भारत की निर्धन और मेहनतकश जनता के लिये बृहत्तर संदर्भों में बांझ हो चुकी है।
लेखक पाटलीपुत्र युनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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