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यूनिवर्सल बेसिक इंकम:फिनलैंड का आईडिया स्विटजरलैंड में रिजेक्ट होकर भारत में चल पड़ा है

खरी-खरी, बिजनस            Jan 08, 2017


रवीश कुमार।
अर्थशास्त्री सुरजीत एस भल्ला का 7 जनवरी के इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख छपा है। भल्ला ने यूनिवर्सल बेसिक इंकम को मास्टर स्ट्रोक बताया है। इन दिनों नोटबंदी के बाद आने वाले बजट के संदर्भ में कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री बेसिक इंकम की घोषणा कर सकते हैं। यूनिवर्सल बेसिक इंकम के तहत हर नागरिक को या आबादी के बड़े हिस्से को सरकार अपनी तरफ से महीने का वेतन जैसा देती है ताकि उस व्यक्ति का सामान्य जीवन स्तर चलता रहे। भारत सहित कई देशों में इस पर बहस हो रही है। लेख के पहले पैराग्राफ़ में भल्ला नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों के विचारों पर कटाक्ष करते हैं।

लेख के दूसरे और तीसरे पैराग्राफ में सार्वजनिक जनवितरण प्रणाली और मनरेगा जैसी ग़रीबी दूर करने की दो बड़ी सरकारी योजनाओं को दुनिया की भ्रष्टतम योजनाएं बताते हैं। यह भी कहते हैं कि भ्रष्टाचार का इनसे भी बड़ा बाप( डैडी) है, भारतीय आयकर प्रशासन। अपने विशालकाय लेख के दो पैराग्राफ में भल्ला बताते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा के ज़रिये 1,75,000 करोड़ का काला धन पैदा होता है। यह राशि जीडीपी का एक फीसदी है। भल्ला साहब यह नहीं बताया कि अब तक इन योजनाओं पर खर्च हुई राशि से पौने दो लाख करोड़ का काला धन पैदा हुआ है या हर साल पैदा होता है। अगर यह साफ हो जाए तो आगे के पैराग्राफ से कुछ सवालों के जवाब मिल सकते हैं।

हम सबने देखा है कि बार—बार पूछे जाने पर भी वित्त मंत्री और भारतीय रिज़र्व बैंक ने हमेशा यही कहा कि आधिकारिक रूप से बता पाना कठिन है कि भारत में कितना काला धन है। अगर ये दोनों भल्ला साहब के संपर्क में रहते तो उन्हें पता चल सकता था कि दो योजनाओं से ही पौन दो लाख करोड़ का काला धन पैदा हुआ है। भल्ला साहब ने इंकम टैक्स विभाग को करप्शन का डैडी तो बताया है लेकिन यह नहीं बताया कि उस विभाग से कितने लाख करोड़ की ब्लैक मनी पैदा होती है। तो क्या भल्ला साहब के पास पीडीएस और मनरेगा से पैदा होने वाले भ्रष्टाचार का ही इतना करेक्ट सोर्स है?

बहरहाल,उनके लेख के तीन पैराग्राफ समाप्त होते हैं। चौथे की शुरूआत में आधार, खाते में सीधा हस्तांतरण (direct benefit transfer DBT) और टेक्नॉलजी का गुणगान करते हैं। कहते हैं कि हाल के वर्षों में इनका विस्तार हुआ है, जिनकी तार्किक परिणति है यूनिवर्सल बेसिक इंकम। इसके तहत सरकार की तरफ से सभी वयस्कों को हर महीने निश्चित पैसा देने की गारंटी की बात चल रही है। भल्ला ने भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम का हवाला देते हुए कहा है कि सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए नया आर्थिक सर्वे कराएगी।यहां तक उनके लेख का चौथा पैराग्राफ ख़त्म हो जाता है।पांचवे पैराग्राफ में भल्ला नए आर्थिक सर्वे में अपनी तरह से कुछ सवाल शामिल करवाना चाहते हैं। क्या सभी को यूनिवर्सल इंकम मिलना चाहिए? क्या सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसी योजनाएं जारी रखनी चाहिए? क्या इन भ्रष्ट योजनाओं को समाप्त कर लोगों को अधिक पैसा नहीं दिया जाए?

मीनवाइल यानी इस बीच भल्ला साहब अब छठे पैराग्राफ की ओर कूच करते हैं और अपनी तरफ से यूनिवर्सल बेसिक इंकम का खाका खींच देते हैं। एक टेबल बना देते हैं। कहते हैं कि पिछले पांच साल में ग़रीब की मज़दूरी में 58 फीसदी और अर्ध कौशल (semi skilled) मज़दूरों की मज़दूरी में 69 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मुझे टेबल तो समझ नहीं आया लेकिन आप इस कैटगरी के मज़दूरों को जानते हैं तो प्लीज़ पता कीजिए कि क्या वाकई में उनकी मज़दूरी पिछले पांच साल में 58 से 69 फीसदी बढ़ी है।इस ठंड में पता करने निकले तो यह भी पूछ लीजिएगा कि सरकार ने जो न्यूनतम मज़दूरी तय की है,क्या वो मिल रही है।

वैसे गूगल करने से इंडियन एक्सप्रेस की पिछले साल अगस्त की खबर मिलती है जिसके अनुसार सरकार ने ग़ैर कृषि मज़दूरों के लिए न्यूनतम दिहाड़ी 256 से बढ़ाकर 350 रुपये करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। जबकि संघ से लेकर वामपंथ से जुड़े दस मज़दूर संघों ने न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाकर 692 रुपये करने की मांग की थी। मज़दूर संगठनों की मांग है कि महीने के हिसाब से न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये होने चाहिए। मज़दूरों की यह मांग पूरी नहीं हुई लेकिन सातवें वेतन आयोग में सरकार ने कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन 18000 रुपया ही तय किया है। क्यों न बेसिक यूनिवर्सल स्कीम के तहत इसके लिए पात्र वयस्क नागरिकों को 18000 रुपया महीना दिया जाए? ये सवाल भल्ला जी ने नहीं,मैं पूछ रहा हूं।

फिर से भल्ला साहब के लेख की तरफ लौटता हूँ। सातवें पैराग्राफ के अंत में भल्ला एक ऐसी घोषणा करते हैं,जिसे इंडियन एक्सप्रेस को पहले पन्ने पर छापना चाहिए था। वे इस अख़बार के योगदान संपादक हैं। भल्ला कहते हैं कि मज़दूरी का डेटा देखने से लगता है कि ग़रीब और अर्ध कौशल मज़दूरों की मज़दूरी की जो वृद्धि दर है उसे हम औसतन 58 फीसदी मान लें और उपभोक्ता मूल्य में वृद्धि का आंकड़ा देखें तो पाते हैं कि 2011-12 से लेकर 2016-17 के बीच 40 फीसदी ही बढ़ोत्तरी होती है।bइनके अनुसार पिछले पाँच सालों में चीज़ों के दाम कम बढ़े,मज़दूरी ज़्यादा बढ़ गई।ये चमत्कार कब हो गया?

भल्ला कहते हैं कि इन उपभोक्ता चीज़ों के दाम की तुलना में मज़दरी की अधिक वृद्धि को देखते हुए लगता है कि 2016-17 में तेंदुलकर कमेटी के ग़रीबी स्तर के मानकों के अनुसार भारत में 9 फीसदी से ज़्यादा ग़रीब नहीं है। वाव! ये कब हो गया? 91 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा से ऊपर कब आ गई? प्रधानमंत्री तो कहते हैं कि सत्तर साल में ग़रीबी दूर नहीं हुई। इस लेख में यूनिवर्सल बेसिक इंकम के बारे में मोदी सरकार की पहल को मास्टर स्ट्रोक बताने वाले भल्ला कह रहे हैं कि 9 फीसदी से अधिक ग़रीबी नहीं है। इंग्लिश में ब्रावो!

इस तरह उनके लंबे लेख का सातवां पैरा समाप्त होता है और आठवें का आग़ाज़। भल्ला यूनिवर्सल बेसिक इंकम में निम्न मध्यम वर्ग को भी शामिल करना चाहते हैं। नौवें पैराग्राफ में कहते हैं कि सरकार को ग़रीबी की दर शून्य पर लाने के लिए एक साल में सिर्फ एक लाख करोड़ रुपये की ज़रूरत है,जो जीडीपी का 0.7 फीसदी है। इस वक्त सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा पर ही 1,75,000 करोड़ खर्च करती है। काश ऊपर के तीसरे पैराग्राफ में भल्ला साहब बता देते कि इन दो योजनाओं से हर साल 1,75,000 करोड़ की ब्लैक मनी पैदा होती है या अब तक कुल इतनी रक़म ब्लैक मनी बनी है।

इससे पाठक को भ्रम नहीं होता कि इन योजनाओं में सौ फीसदी घोटाला है। मोदी सरकार कहती है कि भ्रष्टाचार बंद है। क्या भल्ला ने अपने हिसाब में ढाई साल के शून्य करप्शन या कम करप्शन का भी हिसाब लगाया है? ऐसे तो सरकार की इमेज ही ख़राब हो जाएगी कि मोदी जी के रहते सिर्फ दो योजनाओं में पौने दो लाख करोड़ की ब्लैक मनी पैदा हो रही है। इतनी अंधेरगर्दी तो नहीं है कि भल्ला साहब के हिन्दुस्तान में किसी को अनाज नहीं मिलता,किसी को मनरेगा के तहत काम और पैसा नहीं मिलता है। सब ब्लैक मनी बन जाता है!

भला हो प्रधानमंत्री का,जिनके नोटबंदी के कारण मैं बिजनेस के अख़बारों को अंडरलाइन करके पढ़ने लगा हूं। हिन्दी के न्यूज़ रूम में ढंग का आर्थिक पत्रकार भी नहीं होता। मुझसे समझने में ग़लती हो सकती है इसलिए आप पाठकों से भी निवेदन करता हूं कि इंडियन एक्सप्रेस का लेख ज़रूर पढ़ें। बहरहाल, कमिंग बैट टू पैरा नाइन यानी नौवें पैराग्राफ की ओर लौटते हुए मुझे यह लगा कि इतना सिम्पल हिसाब अगर प्रधानमंत्री ख़ुद कर लेते तो न तो वित्त मंत्रालय की ज़रूरत पड़ती,न नीति आयोग और न ही तमाम तरह के मुख्य से लेकर प्रमुख आर्थिक सलाहकारों की। हो सकता है प्रधानमंत्री इन्हीं सबसे कई हज़ार करोड़ बचा लें और भारत से ग़रीबी को चलता कर दें।

दसवें पैराग्राफ में अर्थशास्त्री सुरजीत एस भल्ला कहते हैं कि नोटबंदी के कारण सरकार की आयकर वसूली एक से डेढ़ लाख करोड़ बढ़ सकती है। हिसाब आने से पहले ही अनुमान के आधार पर योजनाओं के लिए तर्क जुट रहे हैं? क्या वित्त मंत्री ने ऐसा कहा है कि सवा लाख करोड़ अतिरिक्त टैक्स आएगा? भल्ला कहते हैं कि सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा बंद कर दे तो उसके पास तीन लाख करोड़ आ जायेंगे। इसके दम पर सरकार निचले तबके के पचास फीसदी को बेसिक इंकम दे सकती है। नीचले तबके का यह पचास फीसदी उनके हिसाब से साढ़े छब्बीस करोड़ है। भारत की आबादी एक अरब बीस करोड़ से ज़्यादा है। यहां तक आते आते दसवां पैराग्राफ समाप्त होता है। ग्यारवें पैराग्राफ में भल्ला साहब कहते हैं कि सरकार साढ़े छब्बीस करोड़ लोगों को तीन लाख रुपया ट्रांसफर कर सकती है। इससे बजट पर कोई भार नहीं पड़ेगा। इस योजना के तहत सरकार हर आदमी को एक हज़ार रुपया महीना देगी।

महीने का एक हज़ार। न्यूतम मज़दूरी से भी कम। 15 लाख तो भूल ही जाइये। यह राशि ज़ीरे में नमक के बराबर है। सरकार एक हज़ार देकर अपनी कई ज़िम्मेदारियों से नाता तोड़ लेगी। उसकी वकालत करने के लिए भल्ला जैसे अर्थशास्त्री तो मिल जायेंगे लेकिन ग़रीबों और मज़दूरों की आवाज़ उठाने के लिए कोई पत्रकार भी नहीं बचेगा जिनसे मीडिया ने पहले ही किनारा कर लिया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जो सस्ता अनाज मिलता है, क्या बाज़ार दर पर वो मिलेगा,ग़रीब और साधारण आबादी के पोषण स्तर का क्या होगा, जिसके लिए भी सरकार कई सारी स्वास्थ्य योजनाएं चलाती है। फिर सरकार किस लिए अनाज ख़रीदेगी ? फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या होगा? मनरेगा से काम नहीं मिलेगा तो एक हज़ार से कोई क्या कर लेगा। ये क्या मास्टर स्ट्रोक है।

यूनिवर्सल बेसिक इंकम पर अंतिम राय मत बनाइये। जितने लेख छप रहे हैं,अंडरलाइन करके पढ़िये तो पता चलेगा कि कहां क्या खेल हो रहा है। महीने का पांच हज़ार मिले,दस हज़ार मिले तो समझ आता है लेकिन एक हज़ार रुपये से क्या हो जाएगा? मैं नहीं कहता कि मनरेगा या पीडीए दुनिया के अंतिम विचार हैं लेकिन फिनलैंड से आया यह आइडिया पहले स्वीटरज़लैंड में रिजेक्ट हो चुका है और भारत में चल पड़ा है। अभी तो कैशलेस इकोनोमी को ग़रीबी दूर करने का मंत्र बताया जा रहा था, अब इसमें यूनीवर्सल बेसिक इंकम को भी ठेला जा रहा है। जो भी है आर्थिक मसलों,आकंड़ों को पढ़िये, राजनीति की बेहतर समझ वहीं से पैदा होती है।

कस्बा से साभार।



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