राकेश कायस्थ।
बुलडोजर से तबाह हुए आशियाने को हतप्रभ होकर देखते हुए इस बच्चे की आँखों में मैं अपना बचपन देख सकता हूँ। हम अवैध कब्जे वाले या झुग्गी वाले नहीं बल्कि छोटे शहर के इज्ज़तदार खाते-पीते लोग थे, लेकिन हमारी कहानी में भी एक बुलडोजर भी था।
मेरा पुश्तैनी घर राँची की उस सड़क पर था, जो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के घर से निकलकर सीधे हाईकोर्ट, एयरपोर्ट और विधानसभा तक जाती है। रीयल एस्टेट के हिसाब से वहाँ की ज़मीन आज शायद सबसे ज्यादा महंगी है।
ज़मीन तब भी महंगी थी, जब सड़क संकरी थी। हम बचपन से सुनते आये थे कि सरकार ने आजादी के कुछ समय बाद से ही सड़क को चौड़ा करने की योजना स्वीकृत कर रखी है। एक दिन ऐसा आएगा जब सड़क के सारे मकान टूट जाएंगे।
वो दिन आ गया। कोई सूचना नहीं, किसी को संभलने का मौका नहीं। दीवारों पर लाल निशान लगाये गये और मुनादी पिट गई कि लोग हफ्ते भर के भीतर अपने-अपने घर तोड़ लें, वर्ना बुलडोजर चलवाया जाएगा और खर्चा भी आपसे ही वसूला जाएगा।
ब्रिटिश आर्किटेक्चर से प्रभावित लाल दीवार और हरे फाटक वाला हमारा घर पूरे शहर में लाल मकान के नाम से मशहूर था। घर 1930 में बना था और उसे तोड़ने का फरमान साठ साल बाद 1990 में आया था।
मुआवजे के नाम पर सरकार ने चौदह हज़ार रुपये का एक चेक थमाया, जिसमें उतने बड़े मकान को तोड़ने का खर्च निकलना भी मुश्किल था।
तीन-चार पीढ़ियों से सरकारी नौकरी बजा रहे लोग इतने आलसी थे कि ना कोई फैसले के खिलाफ स्टे ऑर्डर लेने गया और ना ही किसी ने मुआवजे की रकम बढ़ाने की मांग की।
हज़ार मीटर पर बना घर देखते-देखते युद्ध में बर्बाद हुए किसी मलबे में बदल गया।
पीछे गज़ा पट्टी जैसी जो जगह बनी वहां हमने बड़ी मुश्किल से एक छोटा-सा आशियाना बनाया। मकान टूट चुका था, यादें बाकी थीं। लेकिन बुलडोजर का आना भी बाकी था।
विकास का प्रतीक बुलडोजर रांची की रिजलन डेवलपमेंट अथॉरिटी ने पहली बार खरीदा था। बुलडोजर यूं ही खड़ा था और स्थानीय अख़बार पूछते थे कि जब चलाना ही नहीं था तो इतनी महंगी चीज़ खरीदी क्यों?
अथॉरिटी के सर्वेसर्वा एक तेज-तर्रार माने-जाने वाला आईएएस अफसर हुआ करते थे। उन्होंने एक दिन सुबह-सुबह अचानक पूरे शहर को बुलडोजर दिखाने का फैसला किया।
शहर के उस छोर से शोर उठा और इस छोर तक यानी हमारे घर तक पहुंचा। पता चला कि चीफ एडमिनिस्ट्रेटर साहब का कहना है कि सड़क पर कहीं कोई आधा टूटा घर दिखा तो उसे बुलडोजर चलाकर बराबर कर दिया जाएगा।
ज्यादातर लोगों ने अंदर के सारे हिस्से तोड़ दिये थे, अंदर कंस्ट्रक्शन चल रहा था, इसलिए पर्देदारी के लिए बाहर वाली दीवार या तो छोड़ रखी थी या उसे तोड़कर ईंटों का घेरा बना रखा था।
बुलडोजर दीवारें गिरता, टूटते मकानों के मलबे रौंदता आगे बढ़ रहा था और उसके साथ-साथ सैकड़ों उन्मादी तमाशाबीनों का जत्था भी चल रहा था।
शहर के एक संपन्न इलाके के सैकड़ों परिवारों की स्थिति अपने पुश्तैनी घरों में शरणार्थी या गैर-कानूनी कब्ज़ा करने वालों जैसी हो चुकी थी।
अथॉरिटी के चीफ इंजीनियर पापा के कज़न थे। जब मकान टूटने शुरू हुए थे, तब दो-तीन बार आकर हाल-चाल पूछ चुके थे और ताकीद कर चुके थे कि कोई समस्या खड़ी हो तो कर्मचारियों से कहियेगा कि ये सहाय जी के भाई का मकान है।
सड़क पर शोर बढ़ा तो माँ ने याद दिलाया-- बाहर जाकर बोलिये ना कि सहाय जी के भाई का घर है।
मुँह में पान दबाये लेटकर किताब पढ़ने पिताजी ने जवाब दिया-- सहाय जी-फहाय जी का नाम लेने की क्या ज़रूरत है। जितना सरकार बोली थी, उतना तोड़ दिये हैं। मलबा साफ है, नया मकान कम से कम चार फुट अंदर है, आराम से बैठो।
थोड़ी देर बाद ऐसी गड़गड़ाहट हुई जैसे कहीं बम फटा हो। पचपन लंबी चाहरदीवारी के आखिरी हिस्से का चुंबन लेते हुए बुलडोजर विजयी भाव से आगे निकल गया। दीवार का करीब दस फुट का हिंस्सा जमीदोंज़ हो चुका था। पीछे रखे सैकड़ों गमले शहीद हो चुके थे।
अम्मा की तुलसी जी और बृहस्पतिवार व्रत वाले केलाजी मलबे में दब चुके थे। मैंने अपने खरगोशों के लिए जो घर बनाया था, वह भी सैकड़ों ईंटों में दफन हो चुका था।
पिताजी बाहर निकले तो पता चला कि बुलडोजर भी नया है और ड्राइवर भी नया है। गलती से मिस्टेक हो गया। ऐसा मिस्टेक कई और घरों में हुआ था। पिताजी को संतोष था कि वे अकेले नहीं हैं।
मोहल्ला वासी हमदर्दी से कह रहे थे-- "बहुत सीधे हैं, इनको बताना चाहिए था कि सहाय के भाई का घर है।"
आज वाला बुलडोजर बदला लेने, औकात बताने और बर्बादी का जश्न मनाने वालों का दिल जीतने सड़क पर उतरा था। मेरे बचपन वाला वह बुलडोजर पवित्र और पापरहित था। शहर के लोगों को यकीन दिलाने निकला था कि विकास होकर रहेगा।
कहानी का क्षेपक यह है कि हमारे घर को मिट्टी में मिलाकर जो सड़क चौड़ी हुई उसपर अगले पच्चीस साल तक कोई पक्की नाली नहीं बनी। 2012 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राँची की यात्रा पर आये बजबजाती नाली छिपाने के लिए 80 फुट चौड़ी सड़क को मिट्टी से पाट दिया गया।
आज का तमाशा देखकर मन में अनगिनत ख्याल आ रहे हैं। मगर यह समय संवेदनाओं के सामूहिक बलात्कार का है। शब्द अपने अर्थ खो चुके हैं। कहने को कुछ नहीं है। निदा फाजली की ये लाइनें याद आ रही हैं...
चाहे गीता बांचिये या पढ़िये कुरआन
जितनी बीते आप पर उतना ही सच जान
ये अच्छा है लेकिन उतना प्रासंगिक नहीं है। ज्यादा बड़ा सच वो है जो धूमिल कह गये हैं
"लोहे का स्वाद लोहार से नहीं बल्कि उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है"
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