प्रकाश भटनागगर।
मध्यप्रदेश में पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव अब बगैर ओबीसी आरक्षण के ही होंगे। राज्य सरकार को करारा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है।
हो सकता है कि यह स्थिति बदल जाए, क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस फैसले के विरुद्ध रिव्यु पिटीशन दायर करने की बात कही है।
इस तरह भले ही इन चुनावों को कराए जाने का रास्ता साफ़ हो गया हो, लेकिन शिवराज सरकार की राह में अब कई कांटे बिछ गए हैं।
अपनी चौथी पारी में उपचुनाव और कोरोना से निपटने के बाद प्रदेश की सरकार ने को लेकर अब तक पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार पर जमकर हमले किये हैं।
कदम-कदम पर और समय-समय पर सरकार ने कहा कि ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दिलाए बगैर यह चुनाव होने नहीं दिए जाएंगे।
यह भी कहा कि कांग्रेस की सरकार के समय इस आरक्षण को लेकर सजगता बरतने की बजाय घोर लापरवाह आचरण किया गया।
लेकिन, अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ही साफ कहा है कि प्रदेश शासन द्वारा इस आरक्षण को लेकर आधी-अधूरी रिपोर्ट पेश की गयी है, तो यह टिप्पणी शिवराज सरकार से OBC वर्ग को नाराज करने का एक बड़ा जरिया बन सकती है।
कांग्रेस इसका अपने पक्ष में राजनीतिक लाभ लेने से नहीं चूकेगी, यह तय है।
ओबीसी आरक्षण को लेकर शिवराज सिंह की कोशिशों पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन यह शॉक उन्हें अपनों की वजह से लगा है, इस बात में भी कोई शक नहीं है।
चौहान ने तो बड़ा निर्णय लेते हुए तीन परीक्षाओं के अतिरिक्त राज्य की सभी सरकार भर्तियों तथा परीक्षाओं में ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दे दिया था।
तो फिर ऐसा कैसे हो गया कि महीनों की कवायद के बाद भी सरकार की तरफ से वह मुकम्मल रिपोर्ट पेश नहीं की जा सकी, जो सुप्रीम कोर्ट को इस बात के लिए आश्वस्त कर सकती कि राज्य में नगरीय निकाय तथा पंचायत चुनाव के लिए ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए?
जिस आरक्षण की खातिर देश के सॉलिसिटर जनरल तक ने कोर्ट में मध्य प्रदेश सरकार की पैरवी की, उसी आरक्षण को लेकर ऐसी अपूर्ण तैयारी की बात आसानी से हजम नहीं हो सकती।
संभवतः शिवराज का अपने उन मंत्रियों और अफसरों पर विश्वास गलत साबित हुआ, जो इस आरक्षण को लेकर निरंतर सरकार को यह यकीन दिला रहे थे कि ‘सारी तैयारियां हो चुकी हैं।’
जिन मंत्रियों ने विधानसभा और उसके बाहर इस विषय में विपक्ष को पानी पी-पीकर कोसा और अपनी सरकार को OBC वर्ग का मसीहा बताया, अब उन से भी यह पूछा जाना चाहिए कि इस दिशा में वास्तविक और विश्वसनीय काम होने में भला इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी?
जो मंत्री इस आरक्षण के हक में फांसी पर भी चढ़ जाने की गर्जना कर रहे थे, उनसे क्या इस तुच्छ बलिदान की उम्मीद की जा सकती है कि वह कम से कम ओबीसी वर्ग से इस गलती के लिए माफी ही मांग लेंगे?
मूंगफली चबाने की प्रक्रिया में अक्सर एक बात होती है, दनादन लिए जा रहे दानों के स्वाद के बीच यकायक एक सड़ा दाना भी मुंह में आ जाता है।
वह कुछ यूं स्वाद खराब करता है कि फिर उसके पहले की सभी मूंगफलियों के स्वाद का आनंद जाता रहता है।
पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव की आहट के साथ ही शिवराज सरकार इस आरक्षण को लेकर कांग्रेस की निंदा करने का स्वाद उठा रही थी।
सरकार ने कहा कि कमलनाथ के समय ओबीसी आरक्षण को लेकर कोर्ट में पुख्ता तरीके से बात नहीं रखी गयी।
फिर यह दावा भी किया गया कि नाथ की सरकार ने विधानसभा सहित अदालत में राज्य की OBC आबादी को लेकर जो झूठे आंकड़े पेश किये, उनके चलते 27 फीसदी आरक्षण पर कोर्ट ने रोक लगा दी।
भाजपा ने पुख्ता रणनीति के साथ कांग्रेस के कानूनविद सांसद विवेक तन्खा (Vivek Tankha) को भी इस बात के लिए घेरा कि उनके द्वारा इस विषयक मुक़दमे में नाहक ही महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण (Maratha Reservation of Maharashtra) का जिक्र करने से मामला फिर उलझ गया है।
लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जो सड़ी मूंगफली सरकार के मुंह में आयी है, उसने शासन के इस सन्दर्भ वाले अब तक के सारे स्वाद को खराब कर दिया है।
शिवराज इस मामले में अपने स्तर पर जो गौरव वाले काम कर सकते थे, वह उन्होंने कर दिए, बाकी गुड़-गोबर तो उन्होंने किया है, जिन पर इस दिशा में समुचित और प्रभावी कार्यवाही का शिवराज ने भरोसा किया था।
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