राघवेंद्र सिंह।
मध्यप्रदेश के सियासी सीन में जबरदस्त उथल-पुथल मची हुई है। साढ़े तेरह बरस की भाजपा सरकार और उसका संगठन अब तक के सर्वाधिक दबाव में है। किसान आंदोलन में सात की मृत्यु के बाद एक बार फिर साफ हुआ कि भाजपा सरकार और संगठन की करनी कथनी में अंतर का खामियाजा सबको भुगतना पड़ रहा है। नौकरशाही की नाफरमानियों के साथ पहले ही शिवराज सरकार पर आरोपों के हंटर भीतर बाहर बरस ही रहे थे। ऐसे में किसान आंदोलन ने उस पर मानों प्रमाणीकरण की मोहर लगा दी है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को संकट का अंदाजा हो गया है इसलिये वे रूस यात्रा रद्द कर मोर्चे पर हैं, डेमेज कंट्रोल के लिये। उनसे नाराज मंत्रियों का समूह और कमजोर संगठन ने असंतुष्टों ने पार्टी आलाकमान के सामने मोर्चा खोल दिया है। शिवराज बड़े खिलाड़ी हो गये हैं। अब तक वे डंपर कांड से लेकर व्यापमं घोटाले तक से निपट सुलझते इस मुकाम तक आ गये हैैं। मगर इसमें जोड़ तोड़ से ज्यादा उनके भाग्य और उनके किसान, भांजे भांजियों की दुआओं के अलावा कमजोर कांग्रेस भी संकटों से बचाती रही है। अब 2018 में चुनाव हैं सो कांग्रेस ने भी अजगरी मुद्रा से निकल सक्रिय होना शुरू कर दिया है। लोग कांग्रेस नेताओं की गतिविधियों पर भी टकटकी लगाये हुये हैैं। गाहे बगाहे कांग्रेस नेताओं के भाजपा कनेक्शन भी सुर्खियों में रहे हैं।
बहरहाल अभी तो भाजपा और शिवराज सरकार अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। किसान आंदोलन तो सरकार के कमजोर तंत्र, इच्छा शक्ति की कमी और सड़ गल रहे संगठन को बेनकाब कर रहा है। गप्पों और जुमलों में धंसी भाजपा की सियासत उसेे भारी पड़ रही है। हालत यह है कि श्रेष्ठ संगठन वाले प्रदेश में किसी को पता नहीं चला कि किसान आंक्रोश में है। यह तब हुआ जब दावा किया था कि 10 हजार समयदानी भाजपाई प्रदेश में घूम रहे हैं। इस कमजोरी के चलते मध्यप्रदेश फेस्ट फेल हो गया। किसान आंदोलन से भाजपा व शिव सरकार की छवि को जो धक्का लगा उसे ठीक नहीं किया जा रहा है।
प्रदेश नेताओं के किसानों के बीच दौरे अव्यवस्थित हैं, कुछ रद्द भी हो गये हैं। कहा जा रहा है किसानों व भाजपा कार्यकर्ताओं की रूचि नहीं है, गंभीर है ये सब। भाजपा को इन संकेतों को चिट्ठी तार से ऊपर उठकर ई मेल और लाइव वाट्सअप सूचना माननी चाहिये। सबसे गंभीर बात यह है कि प्रदेश भाजपा के प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे का कहीं पता नहीं है। ऐसा लगता है उन्होंने अघोषित रूप से प्रभार का जिम्मा छोड़ दिया है।
संगठन महामंत्री सुहास भगत पहले से ही भाजपा नेताओं व बहुत हद तक खुद ही कार्य शैली परेशान हैं। लगता है राजनीति उन्हें रास नहीं आ रही है। वरना पार्टी के डूबने के संकेत मिलने पर ही जहजा का केप्टन सक्रिय नहीं है। अब शायद जहाज के साथ कप्तान के डूबने की परंपरा नहीं होने से सब सियासत और सत्ता का आनंद ले रहे हैं। इन स्थितियों के बीच संगठन में बदलाव होने की खबरें भी तेजी से हवा में तैर रही हैं।
कुछ काईयां नेता इसे संगठन कम सरकार को प्रभावित करने वाला अधिक मान रहे हैं। भाजपा हाईकमान के पास जो खबरें जा रही है उससे वह चिंतित है। सरकार के भीतर का असंतोष चरम पर है। नाराज मंत्री अपना दुखड़ा लाइव सुना रहे हैं। बेलगाम मंत्री और नौकरशाही पहले से ही मुख्यमंत्री के गले की हड्डी बनी हुई है। सीएम शिवराज सिंह चौहान की पूंजी है उनकी गरीब गुरबों में मसीहा की। किसान पुत्र और काया की। किसान आंदोलन ने उससे ज्यादा धक्का पहुंचाया है।
बातें हो रही है सुधार की। लेकिन नौकर शाही और सरकार की चाल ढाल में बदलाव नहीं है। सरकार में घबराहट अलबत्ता है मगर कभी संकट मोचकों में शुमार रहे कैलाश विजयवर्गीय, भी दोस्त नहीं रहे। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तौमर नाराज भले ही न हो मगर खुश भी नहीं है। सरकार की छवि विश्वास कंट में है। बातों और वादों पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहा है। हालात अच्छे नहीं हैं और कोई पाजिटिव संकेत भी नहीं.... दिल थाम कर देखिये आगे होता है क्या....?
भाजपा फाइटर है और मुश्किलों से उबरना जानती है। मगर कई सांप काटने का इलाज करने वाला सांप के काटने से ही खतरे में पड़ता है। जब वे आस्तीन में हो तो मुश्किलों और भी विकट होती है। फिलहाल तो डंपर, व्यापमं जैसे कांडों से उबरने वाले शिवराज सिंह किसान आंदोलन से कैसे निपटते हैैं। अभी तो विरोधी खुश हैं और उनके ख्याल उत्सव की तैयारियों के हैं।
एक देशी कहावत है तेल जले बाती जले, नाम दीया को होये, लल्ला खेले काहू को और नाम पिया का होए....मध्यप्रदेश की सियासत में ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है। किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्का की टीम ने किसान आंदोलन शुरू किया। हिंसा हुई और गोलीबारी में सात किसानों की मौत हो गई। मामला देशव्यापी हुआ हो गर्म लोहे पर चोट करने के लिये कांग्रेस नेता सत्याग्रह के साथ नर्मदा परिक्रमा की तैयारियों में जुट गये।
अगले बरस विधानसभा चुनाव की मियाद नहीं होती तो कांग्रेस का खेमा अभी बैरक में आराम फरमा रही होती। क्योंकि 13 साल की भाजपा सरकार में जनता के लिये संघर्ष करने के अवसर तो आये मगर कांग्रेस रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़ी। अब चूंकि किसानों ने आंदोलन कर शहादत दे दी है तो कांग्रेस इस संघर्ष को अपने नाम करने की तैयारी में है। सत्याग्रह व परिक्रमा के जरिये ज्योतिरादित्या सिंधिया, दिग्विजय सिंह अभी अपनी वलदीयत लिखाने की होड़ में आगे है।
जबकि कांग्रेस व उनके नेताओं का किसानों के दुख संघर्ष का सीधा सरोकार नहीं रहा है। क्योंकि उसने आंदोलन किया नही वह तो केवल समर्थन देने की बात कर रही है। भविष्य में कांग्रेस किस करवट बैठेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। अभी पुरूषार्थ के नाम पर किसानों की तेल-बाती जल रही है कांग्रेस इसे अपने नाम करने की जुगत में है। आंदोलन का लल्ला कांग्रेस के भी हो जाये बशर्ते कांग्रेस में एका हो...
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