राकेश दुबे।
राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा वोट बटोरने के लिए और चुनाव के दौरान किये गये वादों को निभाने के नाम पर जो प्रकिया को अपना रहे हैं, उससे देश के एक बड़े वर्ग में नाराजी बढ़ रही है।
सुविधा के नाम पर जो दिया जा रहा है,उससे “खैरात” शब्द और उसका अर्थ भी शर्मसार हो रहा है।
जैसे मुफ्त बिजली ,पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, राशन तो कई राज्य मुफ्त में दे रहे हैं, और जिन 9 राज्यों में चुनाव होना है वहां इन सुविधाओं के मंसूबे बांधे जा रहे हैं।
पंजाब में बसों में मुफ्त यात्रा करने की नई छूट दी गई है उसमें महिलाएं, दसवीं तक पढ़ने वाले बच्चे, पुलिस व जेलकर्मी, वर्तमान व पूर्व विधायक, स्वतंत्रता सेनानी का जिक्र है।
आखिर इस तरह की सुविधाओं का भुगतान कौन करेगा?
राज्य में एक के बाद एक आई सरकारें इन सुविधाओं में वृद्धि करती आई हैं, जिससे सारे राज्य कर्जदार बन गये हैं।
विकास कार्यों का बुनियादी ढांचा और सेवा कागजों पर सिमटी है या भ्रष्टाचार से सराबोर।
अब तक लगभग सभी चुनाव खैरात व मुफ्त की चीजों का वादा करके लड़े गये और लड़े जा रहे हैं।
दलों के बीच आगे रहने की होड़ लगी है, इस दशा के लिए सरकारें जिम्मेवार हैं क्योंकि भ्रष्टाचार, उपेक्षा, अपने संस्थानों के पूर्ण निरादर, व्यवस्था और आपराधिक न्याय व्यवस्था के कारण नव-उद्यमियों और लोगों की काम करने की ललक खत्म हुई।
सरकारों ने माफिया-राजनेता गठजोड़ बनने दिया। आज हमारे पास बेहतर जिंदगी चाहने वाला मतदाता है, लेकिन उसको मुफ्त के राशन और कभी-कभार फ्री यात्रा से गुजारा करने को कहा जा रहा है।
वास्तव में यह छद्म-समाजवाद है, जहां राजनेताओं के लिए खेल की शुरुआत और अंत किसी भी कीमत पर सत्ता पाने तक ही है, इससे राज्य के विकास की दीर्घकालीन योजनाएं पूरी तरह नदारद हैं।
ज्यादातर मतदाता मध्यम वर्ग से हैं, अर्थात नौकरी-पेशे वाला मध्य वर्ग। देश में जो स्त्री-पुरुष जो सुबह काम पर निकलते हैं, चाहे वे कर्मचारी हो या लघु और सूक्ष्म व्यवसायी, व्यापारी या फिर किसान।
अगर सरकारी खैरात पाने वालों में नहीं है, तो उन्हें अपनी आय पर कर के साथ ही उपभोग, जमीन-जायदाद, लगभग तमाम सेवाओं और उत्पादों पर भी टैक्स भरना होता है।
भारत ने कोविड दुष्काल के पूरे समय अपने कर्मियों और लघु एवं छोटे व्यवसायियों के लिए कुछ नहीं किया।
फिर भी नई अर्थव्यवस्था के केंद्र में यह मध्य वर्ग ही है। वही मध्य वर्ग जो सरकारी मशीनरी में कलपुर्जों सरीखे उद्योग, सरकारी और मूल सेवाएं, रक्षा और कानून क्षेत्र को चला रहा है।
न तो यह सिर्फ दूर से नज़ारा लेने वाला परम-अमीर है और न ही गरीबी-ग्रस्त वह वर्ग ही है, जिसे राशन से लेकर अस्पताल, स्कूल तक में मुफ्त सुविधा मिली है। इस मध्य वर्ग को राष्ट्र की एवज पर निचोड़ा जा रहा है।
आज समाज को उच्च मुद्रास्फीति, घटती आमदनी, नए-नए करों के अलावा नोटबंदी, दुष्काल और सरकार –पूंजीपति गठ्बन्धन ने पहले ही तोड़ रखा है।
मध्य वर्ग का सिकुड़ना, लगातार बढ़ते गरीबों का पोषण के बदले किया जा रहा है, इससे समाज में ध्रुवीकरण और आर्थिक असमानता ही बढ़ेगी, जो घातक संकेत हैं।
देश में 60 से 70 का दशक सामान्य कानून-व्यवस्था था। उस वक्त मजदूर यूनियन आंदोलन बहुत मजबूत था- अध्यापक, औद्योगिक मजदूर और किसान सभा, छात्रों, रेलवे कर्मचारियों की यूनियनें थी।
लगभग तमाम क्षेत्रों में यूनियनों की गतिविधियां चलती थीं। सभी राजनीतिक दलों की अपनी अलग अग्रणी यूनियन थीं। कांग्रेस व वामपंथी यूनियनें ज्यादा ताकतवर थीं, संघ और जनसंघ ने भी पैठ बनानी शुरू की थी।
यूनियनों का मुख्य ध्येय सरकार व उद्योगपति पर दबाव बनाकर अपने लोगों लिए बेहतर हालात बनाना था।
हालांकि उनकी निष्ठा राजनीतिक दलों के प्रति थी, जिनके ध्येयों की वे समर्थक थीं। 80 के दशक के बाद हुई घटनाओं ने भारतीय राजनीति और समाज की आधार परतों को हिला दिया।
चरमवाद ,ऑपरेशन ब्लू स्टार, कश्मीर घाटी में पंडितों की हत्या और उनका पलायन, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, मुम्बई, गुजरात में नरसंहार,संसद पर हमला, कुछ भी शेष नहीं रहा।
इन तमाम और अनेकानेक घटनाओं ने सुप्त शक्तियों को जगा डाला, जिन्होंने जल्द उभरकर अफरा-तफरी और दिशाहीन नेतृत्व का पूरा फायदा उठाया। राजनीति की भाषा बदली और धर्म चर्चा एवं लामबंदी का साधन बना।
इसका तोड़ राजनेताओं को समझ आया कि गरीबों की इस दुर्गति का उपाय किये जाएँ। यह काम रातों-रात नहीं हो सकता इसलिए आसान उपाय ढूंढ़ लिए गए।
इसके लिए महज करना यह है कि गरीब और कमजोर वर्ग को निशाना बनाकर, दरियादिली दिखाते हुए खैरातों की झड़ी लगा दो।
राजनीतिक दलों ने वादे किये मुफ्त की साइकिल, फोन, गैस, महिलाओं के खाते में छोटी रकम, साड़ी सब मुफ्त में मुहैया कराया।
इससे गरीबी की समस्या का तुरत-फुरत हल हो गया। सरकार ने अपना फर्ज निभा दिया, लाभ अपने राजनीतिक ढांचे और कार्यकर्ता तक पहुंचाया गया।
शीर्ष राष्ट्रों की सूची में आने के लिए अर्थव्यवस्था को गति देने वाले मध्य वर्ग को सुदृढ़ करना जरूरी है।
मारग्रेट थैचर ने कहा था : ‘समाजवाद के साथ दिक्कत यह है कि जो पैसा आपसे पास है वह दूसरों का है और आखिर में यह भी नहीं रहता’।
मध्यम वर्ग के शोषण के सहारे खड़ी इन खैराती योजनाओं पर पुनर्विचार जरूरी है।
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