इंदिरा ने संविधान में संशोधन करके सेक्युलर शब्द जोड़ा था, मोदी उसे मिटाने के क़रीब हैं

खरी-खरी            Mar 14, 2017


राजेश प्रियदर्शी।
आडवाणी-वाजपेयी के ज़माने में भाजपा अपने विरोधियों को 'छद्म धर्मनिरपेक्ष' कहती थी। अब उन्हें 'शेख़ुलर' और 'सिकुलर' कहा जाने लगा है। हिंदू वोटरों की नज़रों में विरोधियों को गिराने का मिशन पूरा हो गया है। भारत जैसे छितराये हुए लोकतंत्र में सभी नागरिकों का भरोसा बनाए रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता एक ज़रूरी विचार। फिलहाल ये विचार बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति के नीचे दबा कराह रहा है।

ऐसा नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले दूध के धुले थे। उनके कारनामों का कच्चा चिट्ठा जनता के सामने है। लेकिन वह लोकतंत्र कैसा होगा, जिस पर करोड़ों लोग विश्वास नहीं कर पाएँगे क्योंकि सत्ताधारी दल का धर्म, राजधर्म बनता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में अंतर है, ठीक वैसे ही जैसे हिंदू धर्म और हिंदू धर्म की राजनीति में है।

सेक्युलर राजनीति मोटे तौर पर मुसलमान वोटरों को रिझाने के लिए जालीदार टोपी पहनने तक सीमित रही क्योंकि उनके बिना सत्ता का गणित पूरा नहीं हो रहा था। इसके अलावा, अलग-अलग रंग की राजनीति करने वाले लोग जिनकी आपस में नहीं बनती, भाजपा को रोकने के लिए जब-जब एकजुट हुए तो उन्होंने ख़ुद को सेक्युलर कहा, जैसे कि भाजपा के साथ लंबे समय तक सरकार चलाने के बाद बिहार के पिछले चुनाव में नीतीश सेक्युलर हो गए थे।

अब मोदी के जादू और अमित शाह की चुनावी इंजीनियरिंग ने यूपी को ऐसी हालत में पहुँचा दिया है कि वहाँ मुसलमानों के वोट बेमानी होते दिख रहे हैं, जब हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होगा तो मुसलमान कुछ भी करके नतीजों पर असर नहीं डाल सकेंगे। भाजपा ने आक्रामकता दिखाते हुए एक भी मुसलमान को टिकट न देने का फ़ैसला किया जबकि पहले इक्का-दुक्का टिकट दिए जाते थे। लेकिन मोदी की इस भाजपा को अब हिंदू भाजपा कहलाने में कोई सियासी नुक़सान। नहीं बल्कि फ़ायदा दिख रहा है।

भाजपा ने 2012 में यूपी विधानसभा चुनाव में एक मुसलमान उम्मीदवार को टिकट दिया था। इस बार उस रस्मअदायगी की ज़रूरत भी नहीं समझी गई। संविधान में चाहे कुछ भी लिखा हो, स्कूली किताबों में कुछ और लिखा ही जा रहा है। लोग बीमारों को कंधों पर लादकर बीसियों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं, वहीं झारखंड में सरकार गायों के लिए एंबुलेंस सर्विस चला रही है। बीफ़ रखने के आरोप में अख़लाक को बुरी तरह पीटा गया था, बाद में उनकी मौत हो गई थी। बिरयानी में बीफ़ खोजने के काम पर पुलिस लगाने के समर्थक क्यों चाहेंगे कि देश की सरकार सेक्युलर हो। लेकिन ऐसे लोगों का मुक़ाबला 'सेक्युलर अखिलेश' कैसे करेंगे जिनकी पुलिस अख़लाक की हत्या के बाद उनके घर के फ्रिज की तलाशी ले रही थी?

बहरहाल, केसरिया होली मनाने वाले अपनी सफलता पर झूम रहे हैं। वे इस बात पर उत्साहित हैं कि उत्तर प्रदेश की सत्ता-संरचना में और लोकसभा में सत्ताधारी पार्टी के भीतर चार करोड़ से अधिक मुसलमानों की कोई नुमाइंदगी नहीं है। ऐसे हालात बेआवाज़ हो चुके मुसलमानों को उसी तरफ़ धकेलेंगे जो मौजूदा पटकथा को आगे बढ़ाने में काम आएगी। लेकिन वह राष्ट्रहित में क़तई नहीं होगा। ये सच बहुत सारे लोगों को परेशान नहीं कर रहा। लेकिन यह बात हर उस व्यक्ति के लिए चिंता का कारण है जो भारतीय संविधान और लोकतंत्र में विश्वास रखता है। इसमें मोदी की कोई ग़लती नहीं है, यह हिंदू राष्ट्र बनाने की कल्पना को साकार करने की तरफ़ एक बड़ा क़दम है, यह पार्टी की सफलता है जिस पर उसका ख़ुश होना सहज है।

जिन लोगों को भाजपा की धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति पसंद नहीं है, चाहे वामपंथी, समाजवादी हों या कांग्रेसी, उन्हें अब तय करना है कि जनता के सामने वे क्या मुँह लेकर जाएँगे? हिंदू ध्रुवीकरण के दौर में सेक्युलर बनकर नहीं जी सकते, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुँह खोल नहीं सकते क्योंकि किसी का दामन साफ़ नहीं है, 'विकास पुरुष' सामने खड़ा है तो विकास की क्या बात करें। नए जातिवादी समीकरण की कोशिश की जा सकती है लेकिन भाजपा उस खेल में भी अब उन्नीस नहीं है।

इस समय मोदी तक़रीबन इंदिरा गांधी की तरह ताक़तवर हो गए हैं, इंदिरा गांधी और मोदी में एक बुनियादी अंतर है। इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन करके 'सेक्युलर' शब्द जोड़ा था, मोदी अब उस शब्द को मिटाने के क़रीब पहुँच गए हैं।

विपक्ष कहाँ है?

बीबीसी से साभार



इस खबर को शेयर करें


Comments