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8 नवंबर को तय था 30 दिसंबर का हश्र

खरी-खरी            Dec 31, 2016


सुरोजीत मजूमदार।
प्रधानमंत्री ने 50 दिन या 30 दिसंबर की बात की थी इसलिए आज इसके नफा-नुकसान के आकलन की रस्म अदायगी हो रही है। लेकिन आज जो तथ्य सामने हैं वह आठ नवंबर की शाम के पहले से ही तय थे। सरकार को यह बहुत अच्छी तरह से पता था कि जिस 86 फीसद मुद्रा को चलन से बाहर किया जा रहा है महज 50 दिन में उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। पचास दिन की मियाद खत्म होने के दिन तक इसमें से चालीस से पैंतालिस फीसद तक की मुद्रा की भी वापसी नहीं हो पाई है। दूसरी यह बात भी आठ नवंबर से ही तय थी कि नोटबंदी के इस कदम से कालेधन पर कोई बहुत बड़ा हमला नहीं होने वाला है।

अब तक पूरा पैसा बैंकों में आ चुका है। दावा किया जा रहा था कि सारा पैसा बैंकों में आने के बाद सरकार यह जान पाएगी कि यह पैसा किसका है। वैसे तो नोटबंदी के पहले भी सरकार के पास यह जानकारी थी कि एक सौ सात लाख करोड़ बैंकों में जमा थे और 17 लाख करोड़ की जनता के पास नकदी थी। इसका मतलब यह हुआ कि बैंक खातों के जमा में बहुत ज्यादा का इजाफा नहीं हो पाया। और जो थोड़ा-बहुत इजाफा हुआ है वह करोड़ों खातों में बंटा हुआ है। और करोड़ों खातों में से इसे खंगालना फिलहाल नामुमकिन सा है।

अब तो यह सबको दिख रहा है कि इस नोटबंदी से कालेधन पर कोई असर नहीं पड़ा है। लेकिन लोगों और अर्थव्यवस्था की जो मुश्किल तस्वीर पिछले पचास दिनों से दिख रही है वह अभी लंबे समय तक दिखनी है। अभी नकदी का संकट झेलना होगा। पूरी नकदी वापस आ जाने के बाद भी व्यापार और अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आ जाएंगे। एक बार पटरी से उतरी अर्थव्यस्था को संभालना बहुत आसान नहीं होता। अर्थव्यवस्था में लेन-देन, खरीदना-बेचना लगातार चलता रहता है। यानी मुद्रा गतिमान अवस्था में होती है। कोई किसान खेती करता है तो बीज खरीदता है, अगली बार के लिए फसल की बुआई करता है और फिर अपने उत्पादन को बाजार में बेचता है। नकदी को चालू अवस्था में रखना होता है। लेकिन पैसे को रोक दिया जाए, खरीदने-बेचने का काम बंद हो जाए तो फिर किसी व्यक्ति तक पैसा कैसे पहुंचेगा? कहीं कोई खर्च करता है तो किसी को पैसा मिलता है। खर्च कम हुआ तो पैसा मिलना कम हुआ।

बहरहाल, आठ दिसंबर के बाद ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई कि जो पैसा हाथ में था उसका इस्तेमाल ही गैरकानूनी बना दिया गया। और आज 50 दिन के बाद भी यही स्थिति है कि लोगों के पास जितना बैकअप पैसा था आज उसका आधा भी नहीं है। ज्यादातर लोग जिनकी आय कम है, मजदूरी से मिली आय पर आधारित हैं उनके हाथ में नकदी नहीं है। और अब आप बात कर रहे हैं डिजिटल होने की।

प्रधानमंत्री के आठ नवंबर के भाषण में नकदीरहित लेनदेन प्रचारित करने का कोई मकसद नहीं था। यह तो जनता और अर्थव्यवस्था की बदहाली की तस्वीरें सामने लाने के बाद लाया गया। क्या आपने आठ नवंबर के पहले नकदीरहित व्यवस्था के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया था? सिर्फ डिजिटल में जाने से हालात नहीं बदलते। हमारे देश में अभी भी करोड़ों लोग बैंक खातों का इस्तेमाल करने की स्थिति में नहीं हैं। अगर आप पांच रुपए की चाय पी रहे और बीस रुपए का नाश्ता कर रहे हैं तो उसका भुगतान डिजिटल में करना कहीं से भी व्यवहारपरक नहीं है। और डिजिटल भुगतान का अतिरिक्त शुल्क भी जनता को ही वहन करना होगा।

आप किसी चीज को खरीद रहे हैं और कोई बेच रहा है। अगर आपने शुल्क नहीं दिया तो बेचने वाले को देना होगा, और उसने नहीं दिया तो आपको। यह अधिभार लगना ही है क्योंकि इस सेवा के इस्तेमाल में खर्च होता है जिसे सरकार वहन नहीं करती है। और जिस सेवा का वहन बाजार करेगा वह नि:शुल्क हो ही नहीं सकता। तो यह खर्च क्रेता या विक्रेता के रूप में जनता को ही देना होगा। इसलिए छोटी रकम की लेनदेन के लिए नकदी ही सबसे सुविधाजनक जरिया है।

आज लोग रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया की स्वायत्तता की बात उठा रहे हैं। मैं यहां स्वायत्तता नहीं जिम्मेदारी का सवाल उठाता हूं। आरबीआइ एक संवैधानिक संस्था है, जिसे अपनी सार्वजनिक भूमिका को जिम्मेदारी से निभाना चाहिए। लेकिन यह केंद्रीय बैंक सरकार के एजंडे का हथियार बन गया है। इस डिजिटल युग में आरबीआइ की भी वेबसाइट है। कौन सा कानून उसे जनता को यह जानकारी देने से रोकता है कि कितना पैसा आया, कितने की निकासी हुई। वह अपनी सामान्य जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर रहा।

पचास दिन पहले सरकार ने जो फैसला लिया था वह इसके अंजाम से अनजान नहीं थी। सरकार को इस बात की पूरी समझ थी, नुकसान के भी पूरे आंकड़े थे। फायदा कम और नुकसान ज्यादा की आम सहमति तो विवादों से परे थी।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं।
जनसत्ता से साभार



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