ममता यादव।
भारत और भारतीयों के लिये निश्चित ही गौरव का विषय है कि हमारे गणतंत्र ने आधी सदी से भी ज्यादा की उम्र तय कर ली है, यानी हमारा गणतंत्र इस वर्ष 70 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो 70 की अवस्था को एक परिपक्व और अनुभवों से भरी अवस्था के रूप में देखा जाता है। यदि भारत देश के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह विचार मंथन का विषय हो सकता है कि इन साढ़े छ: दशकों में गण कितना स्वतंत्र और तंत्र कितना परिपक्व हुआ है? हम इस बात पर तो गौरव कर सकते हैं कि सभी शासन प्रणालियों में से सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली को हमने चुना है और लगभग 10 वर्ष पूर्व तक हाशिये पर रहा गण यानि आम आदमी कुछ हद तक तो अपनी शक्ति जताने बताने में कामयाब हुआ है, किंतु अभी भी तस्वीर धुंधली ही है। आम आदमी खुद को आज भी समस्याओं से घिरा पाता है उसकी समस्यायें कम होने के बजाय बढ़ती हुई ही प्रतीत होती हैं। फिर किस 70 वें गणतंत्र की सफलता पर इतरा रहे हैं हम? पिछले 69 सालों में गण तो कहीं गौण हो गया और तंत्र तितर-बितर। सवाल यह नहीं है कि क्या ठीक नहीं है, सवाल यह है कि क्या सबकुछ ठीक है।
बावजूद इसके निराशा के बादल छंटने लगे हैं कुछ पुख्ता बदलावों के साथ। पिछले कुछ दशकों में विकास के कई सोपान तय करने के बाद भी आज हम जहां खड़े हैं,वहां सामाजिक ढांचे की आर्थिक घुटन व राजनीतिक रूप काफी घिनौना है। भारतीय गण में अपने तंत्र के प्रति एक चिढ़ एक उकताहट साफ दिखाई और सुनाई देती है। ये चिढ़ क्यों? ये उकताहट क्यों? आम आदमी का राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों से निरंतर मोहभंग हो रहा है, यही कारण है कि दिल्ली में आम आदमी की सरकार बन गई। इस बात पर भारतीय आम आदमी अब तक फख्र महसूस कर रहा है, लेकिन अरविंद केजरीवाल एक दिशाहीन नेता की तरह सामने आये और आम आदमी पार्टी की कलह जनता को हताश कर रही है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि राजनीतिक दलों का सिर फुटौवल का जो तमाशा जनता लोकसभाओं और विधानसभाओं में देखती थी, अब उसके ही नाम से बनाई उसकी पार्टी के कर्ता-धर्ता सड़कों पर यह तमाशा उसे फिलहाल दिखा रहे हैं। बावजूद इसके आम आदमी को इस पार्टी से उम्मीद है कि कुछ बड़ा बदलाव होगा। यह लोकतंत्र की परिपक्वता का ही प्रमाण है कि कुछ ही समय पूर्व बनी पार्टी ने राष्ट्रीय राजधानी में बैठी दिग्गज पार्टियों की न सिर्फ चूलें हिला दीं, बल्कि उन्हें अपनी सोच और नजरिया बदलने पर मजबूर कर दिया। उसने जता दिया कि आम आदमी को नजरअंदाज करना इतना आसान नहीं है। ये अलग बात है आप पार्टी के दिशाहीन नेतृत्वकर्ता के कारण जनता फिर उसी भंवर में जा फंसी कि किसे चुनें किसे नहीं? उसी दिशाहीनता के परिणामस्वरूप आज दिल्ली की जनता के सामने फिर चुनाव आ खड़े हुये हैंं।
आज इस पर चिंतन करना आवश्यक है कि उत्कृष्ट संविधान होने के बावजूद हम यहां तक पहुंचे कैसे? हमसे भूल कहां हुई? आज भी गण को तंत्र पर भरोसा क्यों नहीं हो पाया है? बावजूद इसके वह हर बार चुनावों में अपने वोट देकर सरकारें बनवाता है और फिर उन्हीं सरकारों के नुमाइंदों की काली करतूतें सामने आने पर पछताता है। आलम यह है कि विदेशी कंपनियों के शिकंजे में हम लगातार जकड़ते जा रहे हैं। हमारी औषधियों एवं अन्य अमूल्य वस्तुओं का पश्चिमी देश पेटेंट करा रहे हैं। शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो जहां विदेशी निवेश न घुसा हो। सरकारें व देश की प्रजा किंकर्तव्यविमूढ़ बनी खड़ी हैं। हम भूल जाते हैं कि एक विदेशी कंपनी ने हम पर दो सौ साल राज किया और सैकड़ों कंपनियां यहां दूसरे तरीकों से अपना राज कायम कर चुकी हैं। जागरुक नागरिकों में आज सभी राजनेताओं और राजनीतिक दलों के प्रति निराशा का भाव है। देश की सत्ता को संचालित करने वालों का यदि विश£ेषण किया जाये तो हम पाते हैं कि मतदाता को भ्रष्टाचारियों, सम्प्रदायवादियों व असामाजिक तत्वों के साथ संलग्र कीचड़ में सने हुये लोगों में से किसी एक को चुनना है। जो श्रेष्ठ है वह आगे आ नहीं पाता और जो दुराचारी हंै वे पूर्ण स्वतंत्र हंै। बावजूद इसके पिछले कुछ सालों में तस्वीर बदली है। राष्ट्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक के अपराधियों को सजायें सुनाई गईं और उन पर अमल भी हुआ। कुछ बड़े जनआंदोलनों ने देश की सरकारों को हिलाया है और उन्हें सोचने पर विवश किया है कि अब सब कुछ चलता है का ढर्रा नहीं चलेगा। अब यदि गण के अनुकूल शासन व्यवस्था देने में वे नाकाम साबित होती हैं तो उन्हें परिणाम भुगतने के लिये भी तैयार रहना होगा। अभी तक उसके सामने विकल्प नहीं था, किंतु आम आदमी पार्टी के सामने आने के बाद उसने अपना विकल्प तलाश लिया है। इस लिहाज से देखा जाये तो आप जैसी पार्टियों को भी सतर्क रहकर काम करने और जनता को उचित शासन व्यवस्था मुहैया कराने पर गंभीरता से विचार करना होगा। मोटे तौर पर देखा जाये तो पिछले कुछ सालों में गण ने अपनी ताकत दिखाई है, उसने जता दिया है कि देश वर्षों से चली आ रही पारंपरिक पार्टियों के भरोसे नहीं है। देश को चलाने के लिये अब तंत्र में बैठे स्वयंभू सत्ताधारियों को जनता के हिसाब से चलना ही होगा।
हालांकि दो राय इसमें भी नहीं है कि जो मामले राष्ट्रीय स्तर पर उठे उनमें त्वरित और कठोर फैसले दिये गये, लेकिन आम आदमी का न्याय के लिये संघर्ष अभी-भी जस का तस है। देश की वर्तमान स्थिति में राजनीतिक या संवैधानिक व्यवस्था का नहीं अपितु राष्ट्रीय चरित्र का संकट पैदा हो गया है। बदली हुई परिस्थितियों, संदर्भों में लोग यह भी कहने लगे हैं कि भारत में तानाशाही तंत्र स्थापित हो जाना चाहिये, लेकिन तानाशाही के खतरे भी आम लोगों की कल्पना से परे हैं, क्योंकि सामान्यतया तानाशाह चुने या बनाये नहीं जाते, वे या तो परंपरा द्वारा थोपे जाते हैं या सत्ता को छीनकर सत्ताधारी बनते हैं अत: वे स्वेच्छाचारी, पूर्वाग्रही, व कठोर होते हैं। फिर भी यदि हम एक सकारात्मक कल्पना के तहत एक सर्वथा योग्य, संतुलित सुलझे हुये और प्रभावशाली व्यक्तित्व को सत्ता सौंप भी दें तो भी खतरे तो यथावत ही रहेंगे। जाहिर है, सत्ता का किसी एक के हाथों में केंद्रीकरण खतरनाक ही होगा, अत: लोकतंत्र में सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा गुण यही है कि इसमें प्रत्येक नागरिक को निर्णय की शक्ति प्राप्त होती है, लेकिन यही इस प्रणाली का सबसे बड़ा अवगुण भी है, क्योंकि इसमें बुद्धिमान, मूर्ख, सज्जन, दुर्जन सबको समान रूप से मताधिकार मिलता है। किंतु यह दोष इस शासन प्रणाली की अनिवार्यता भी है, क्योंकि ऐसा कोई सर्वमान्य पैमाना नहीं बनाया जा सकता, जिसके आधार पर अलग-अलग तय किया जा सके। अत: हमें अपने विवेक और ज्ञान से न्यूनतम दोषों वाली प्रणाली को चुनकर संतोष करना पड़ेगा।
मनुष्य के मौलिक अधिकार, व्यक्ति की गरिमा और अन्याय के खिलाफ संगठित होने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने का अधिकार गणतंत्र में सुरक्षित है और आज के माहौल में कोई भी प्रजा हो, इतनी जागरुक हो गई है कि उसे इनसे वंचित रहना गवारा नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पर्याय बना सोशल मीडिया आज जनता का सबसे बड़ा हथियार है। अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिये आम आदमी स्वतंत्र है और सरकारें व राजनीतिक दल इनसे इतने घबराये हुये हैं कि इन पर कुछ हद तक अंकुश लगाने की चर्चायें भी करने लगे हैं। बावजूद इसके वे खुद भी इनसे अपना मोहभंग नहीं करवा पा रहे। देश की दोनों शीर्ष पार्टियों ने लोकसभा चुनावों में जनता में पैठ बनाने के लिये न सिर्फ एढ़ी चोटी का जोर लगाया, बल्कि अरबों रुपया भी बहायो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रांडेड छवि भी इसी कैंपेनिंग की देन है। मोदी को विकास पुरूष के रूप में कुछ इस तरह पेश किया गया कि गुजरात दंगों के दाग अब उनके दामन से लगभग गायब हैं और नानावटी आयोग और सुप्रीम कोर्ट से क्लीनचिट मिलने के बाद अब वे खुद को ज्यादा साफ-सुथरी छवि के साथ पेश करने में कामयाब हुये हैं। इस लिहाज से देखा जाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जनता जागरुक होने के साथ-साथ मुखर भी हुई है।
बहरहाल, ऐसे में यदि किसी वैकल्पिक शासन तंत्र की योजना बनाई जाती है तो उसमें वे तत्व होना अनिवार्य हंै, जो कि शासन तंत्र को गणतंत्र का दर्जा दिलाने के लिये पर्याप्त हों। यदि वैकल्पिक शासनतंत्र की योजना बनी भी तो वह तभी सफल होगी, जब वह घोषित-अघोषित रूप से लोकतंत्र का मॉडल हो। गणतंत्र के विद्यमान स्वरूप को संशोधित करने पर जरूर विचार किया जाना चाहिये, लेकिन वास्तविक परिवर्तन भी तभी संभव है, जब वह घोषित-अघोषित रूप से लोकतंत्र का मॉडल हो। कुल मिलाकर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को किसी भी प्रकार अनेदखा और उपेक्षित नहीं किया जा सकता। गणतंत्र के विद्यमान स्वरूप को संशोधित करने पर जरूर विचार किया जाना चाहिये। तंत्र(शासन की संरचना) को दोषमुक्त बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये, लेकिन वास्तविक परिवर्तन तभी संभव है, जब जन-जन जागरुक और परिपक्व हो। वर्तमान समय में यह जागरुकता और परिपक्वता हिंदुस्तान की अवाम खासतौर से युवा वर्ग में बहुत मजबूती के साथ दिखाई देती है। युवा वर्ग की इसी जागरुकता और परिपक्वता की ताकत का परिणाम है कि सारे राजनीतिक दलों को नई पीढ़ी के अनुसार सोचने और चलने पर मजबूर होना पड़ रहा है। वे दिन अब लद गये जब राजनीतिक दल युवाओं का अपने हिसाब से उपयोग करते थे। अब उन्हें दिग्भ्रिमित करना इतना आसान नहीं है। जागरुक जनता कमजोर तंत्र को भी सफल बना सकती है। जागरुक जन के न होने से कोई भी तंत्र ठीक प्रकार से संचालित नहीं हो सकता।
अत: तंत्र के बजाय आज गण अथवा जन पर पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है, जिसे राजनीतिक दल भी भलीभंति समझ रहे हैं। तभी यह देश वास्तव में गणतंत्र या लोकतंत्र के लायक बन पायेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो- अवाम के वास्ते, अवाम के हस्ते,अवाम का राज कैसा हो। इसी तलाश में खोजी गई थी जम्हूरियत कभी।। जिसके कायल तो हम सदियों से हैं, लेकिन। ये वो नफीस चीज है, जिसके लायक होना अभी बाकी है।। आज बुद्धिजीवी और राजनेता जनता को यह स्वीकार कराते नहीं थकते कि भारतीय गणतंत्र परिपक्व हो गया है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि वे स्वयं भी अपनी यह बात विश्वास से नहीं कह पाते। लेकिन हकीकत यही है कि पिछले कुछ सालों में भारतीय गणतंत्र मजबूत हुआ है और अब तंत्र विवश होने लगा है गण के अनुसार शासन व्यवस्था चलाने के लिये। बदलाव की जो बयार केजरीवाल ने बहाई थी उससे जनता को निराशा और नौटंकी के अंधड़ ही मिले हैं। अब राजनीतिक दलों को चाहिये कि आपसी झगड़ों के बजाय जनता के अनुसार जनता के हित के लिये काम करें न कि दिग्भ्रमित होकर उसकी उम्मीदों पर पानी फेरें।
यदि ऐसा होता है तो परंपरागत दल फिर इस देश पर हावी होंगे और आम आदमी का आम आदमी पर से भी भरोसा उठ जायेगा। चाहे मोदी हों,केजरीवाल हों बेदी हों इस जमात में कुछ समय पहले तक राहुल गांधी का भी नाम था अब वे परिदृश्य से गायब से लगते हैं इन सबको पसंद करने वाला एक वर्ग है और उस वर्ग के साथ-साथ पूरे देश की नजरें अब इन पर हैं, एक बड़े बदलाव की उम्मीद के साथ। इस बदलाव की बयार का ही नतीजा है कि आज हम कह रहे हैं कि भारतीय गणतंत्र सुधार, मजबूती और परिपक्वता की ओर है। उम्मीद की जानी चाहिये कि अगले गणतंत्र पर हम यह कह सकें कि अब हमारा विशाल गणतंत्र सर्वश्रेष्ठ संविधान के साथ-साथ विश्व का सर्वश्रेष्ठ विशाल गणतंत्र है।
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