वीरेंद्र शर्मा।
आमतौर पर तबादलों को सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया और सेवा काल का अनिवार्य अंग कहा जाता है। लेकिन जब किसी पुलिस अधिकारी को सत्ताधारी पार्टी के नेता पुत्र के खिलाफ मामला दर्ज करने पर हटा दिया जाए तो फिर सरकार की नीति और नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना लाजमी है।
बमुश्किल डेढ़ महीने पहले मुरैना जिले की कमान संभालने वाले एसपी रियाज इकबाल के तबादले ने कानून का राज स्थापित करने की सरकार की घोषित नीति की मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
रियाज का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने आगरा मुंबई टोल नाके पर सत्ताधारी विधायक के पुत्र द्वारा की गई गुंडागर्दी के खिलाफ वही किया जो कानून सम्मत था।
कानूनी कार्रवाई के लिए ठोस सबूत वह सीसीटीवी फुटेज थे जो विधायक पुत्र की करतूतों की कहानी बयां कर रहे थे। लेकिन मंत्री न बन पाने के गम से अब तक न उबर पाये विधायक जी को पुत्र के खिलाफ एफ आई आर दर्ज होना इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने एसपी की जिला बदरी को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।
सरकार के लिए अपने ही विधायक को लोकसभा चुनाव के पहले नाराज करना संभव न था सो रियाज की विदाई हो गई।
हालांकि सरकार चाहती तो पूरे मामले की जांच कर सकती थी और अगर एसपी ने कुछ गलत किया तो उन्हें जिले से हटाने के साथ साथ उनके खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई की जा सकती थी ताकि भविष्य में किसी के साथ अन्याय न हो सके। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जाहिर है कि अब जो भी अधिकारी आएगा इस बात को भलीभांति समझेगा कि कानून व्यवस्था स्थापित करने से ज्यादा जरूरी सत्ताधारी पार्टी के राजनेताओं के हितों का पोषण है। न्याय हर किसी के लिए है, यह महज कागजी बात है, इसे चीन्ह चीन्ह कर देना ही कुर्सी की सलामती की गारंटी है।
लेखक सहारा—समय मप्र छग के ब्यूरोचीफ हैं। आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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