बिपेंद्र बिपिन।
साठ -सत्तर के दशक में बदलाव की आग दिखती थी, वो आग अब नहीं दिखती।
इस आग के खत्म होने का एक बड़ा कारण उदारवाद से उपजा उपभोक्तावाद रहा है। साथ ही विदेशी धन से सुधार और राहत के जिस रास्ते का विस्तार हुआ वह दूसरा बड़ा कारण रहा।
विदेशी धन ने बदलाव की आग पर पानी उड़ेल देने का काम किया।
अस्सी के दशक में सुधार का आकर्षण मन मोहने लगा और फिर इस सुधार के लिए विदेशी धन पाने की ललक बढ़ी।
विदेशी धन ने भारत के सामाजिक क्षेत्र में पांव फैलाना शुरू किया। सुधार और राहत का सब्जबाग दिखाया। और फिर सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बहुत बड़े समूह को झोलाटाइप कारपोरेटिया बना डाला।
ऐसी स्थिति में कई जुझारू संगठनों को विदेशी धन के सवाल पर टूट का सामना करना पड़ा। ऐसे संगठन के बहुत सारे लोग विदेशी धन की चमक से आकर्षित हुए।
वे लोग बदलाव के काम से अलग होकर सुधार और राहत के काम मे लग गए। इस तरह मूल संगठन कमजोर हुए।
वे लोग इस हकीकत को नजरअंदाज करते रहे कि सुधार खैरात है, जबकि बदलाव अधिकार। खैरात और सुधार क्रमशः अधिकार और बदलाव को बाधित करता है।
अनुभवों से जाहिर है कि सुधार का राहत जिस किसी व्यक्ति या समूह को मिला है वह यथास्थिति का पोषक बनकर रह गया है। इसतरह बदलाव के रास्ते में सुधार अड़ंगा है।
दूसरी ओर गौर करने वाली बात है कि विदेशी धन उपलब्ध कराने वाली एजेंसियां उन्हीं कार्यक्रमों के लिए पैसा देती हैं जो उनके हितों का पोषण करते हैं।
साथ ही जिन संगठनों को ये पैसा देती हैं उनपर नियंत्रण और निगरानी बढ़ाती है। यह नियंत्रण संगठनों को दाता एजेंसियों के एजेंडे के अनुसार काम करने को बाध्य करता है।
यही कारण है कि सुधार के नाम पर बदलाव का जो भ्रमजाल फैलाया जाता रहा वो अंततः मुंगेरी लाल का हसीन सपना साबित हुआ है।
ऐसे में बदलाव और सुधार-राहत के फर्क को समझना जरूरी है।
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