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बदलाव के सपाटे में कृषि प्रधान देश आगे निकल गया किसान पीछे छूट गया

खरी-खरी            Jun 08, 2017


डॉ. रजनीश जैन।
किसान के सब्र की प्रत्यंचा को सरकार ने तोड़ा है। उसे परिवर्तन का सबसे बड़ा विक्टिम बनाया गया है असहाय और निरीह मानकर। सोच यह कि उसके साथ कुछ भी करो किसान तो कुदरती तौर पर सहन करने ही बना है।

सरकार का पूरा जोर सिर्फ कृषि की उत्पादकता पर था। विपणन और भंडारण के मोर्चों पर कोई काम नहीं हुआ। केंद्र सरकार ने किसानों को ई कृषि मण्डियों के सपने दिखाए थे जहाँ वे बिना आढ़तियों के सीधे अपनी फसल बेच सकें। वे मंडियां आज तक गायब हैं। जहां फसल के सही मूल्य मिलते उन मंडियों तक सप्लाई पहुंचाने की परिवहन व्यवस्था नहीं थी और थी तो बहुत मंहगी थी।

किसान को सारे मोर्चों पर एक साथ चुनौती पेश कर दी गयी है। उसे बाजार के भरोसे छोड़कर उपभोक्ता बना दिया गया है। सब्सिडियाँ खत्म है। खाद बीज कीटनाशक बिजली डीजल केरोसिन कृषियंत्र कृषि मजदूर वाहन सब मंहगे और उन्हीं दरों पर जितने पर शहरियों को मिलते हैं। घर के लिए शक्कर, ईंधन और रसोई के साधन भी आम उपभोक्ता की कीमत पर मिल रहे हैं। सब कुछ चेक से, बैंकों से, एटीएम से, आन लाइन कंप्यूटर से, ये टैक्स वो टैक्स, नोटबंदी, ढोर डंगर बेच नहीं सकते, बच्चे के एडमीशन से अस्पताल के इलाज तक फीस के लंबे चौड़े भारी बिल, बिजली विभाग और बैंक की बिल वसूली, पटवारी और तहसील के लफड़े।

खेती के इतने सारे झंझटों को साथ लेकर किसान को अपने परिवार को संभालना पड़ रहा है। इसमें से आधी से ज्यादा दिक्कतें उसके लिए बीते तीन साल में आई हैं। मोदी सरकार के साइड इफेक्ट के रूप में। आप यकीन मानें जो सुविधाएं किसान के लिए गांव में चाहिए वे उस तक पहुंची नहीं और जो पहुँची हैं तो चार नई मुसीबतों के साथ। इलाज पहुंचा नहीं है, शौचालय का फरमान पहुंच गया है। स्कूल पहुंचा है तो किताब, ड्रेस,ट्यूशन, कोचिंग की लमसम फीसों के टैरिफ के साथ। टीवी पहुंचा है तो साबुन,शैंपू ,टूथपेस्ट जैसी पचास ठौ उपभोक्ता सामग्रियों के साथ।

यानि बाजार और तकनीक हर रोज एक नयी समस्या के साथ मुं उठाए खड़ी मिलती है पर समाधान नदारद है। किसान चकरा गया है, उसको सुकून की आदत थी अब उसी पर डाका पड़ा है। सब कुछ इतनी जल्दी में इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार को जल्दबाजी है। उसे देश बदलना है और देश दुर्भाग्य से कृषि प्रधान है। इस सपाटे में सरकार आगे निकल गई है किसान पीछे छूट गया है। संक्रमण काल के इस तनाव में हजारों किसानों ने अपनी जिंदगियां समाप्त कर लीं क्योंकि वे किसी की उम्मीदों पर खुद को खरा नहीं उतार पा रहे थे। बच्चे ,परिवार, समाज ,देश सबसे शर्मिंदा होकर उन्होंने खुदकुशियाँ की होंगी।

अब किसान सड़क पर है। सब कुछ भस्म कर देने पर आमादा। जिस तकनीक से आपने उसे गुलाम बनाया उसी तकनीक को ठप करके सरकार उस पर नियंत्रण करना चाहती है। सरकार कहती है उपद्रवी किसान नहीं हो सकता क्योंकि किसान कभी हिंसक नहीं हो सकता। सरकार किसान को भड़काने वाली राजनीति को तलाश रही है। विश्व में हुई क्रांतियों के इतिहास से अनभिज्ञ सरकार गोलियां दाग रही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 



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