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एक नई जाति- वोटों के ठेकेदार

खरी-खरी            Oct 23, 2018


राकेश दुबे।
जाति आधारित राजनीतिक दलों की बात छोड़ दें, अपने को राष्ट्रीय दल कहने वाले दल भी जातिवाद और परिवारवाद से ग्रस्त हैं। जिन पांच राज्यों में चुनाव के टिकट बड़े राजनीतिक दलों द्वारा बांटे जा रहे हैं वहां भी उम्मीदवार की जीत की संभावना में ये समीकरण जोर मार रहे हैं।

इस बात पर ध्यान दिया जा रहा है कि जिस सीट के लिए उम्मीदवार का चयन किया जाना है, वहां जातीय संतुलन कैसा है? इसका ठेका किसे दिया जा सकता है।

विभिन्न जातियों के संगठनों के प्रतिनिधि इन दलों के महाप्रभुओं से मिलकर मांग कर रहे हैं कि उनकी जाति के लोगों को ज्यादा से ज्यादा टिकटें दी जाएं।

देश में जातीय विभाजन की दरारें और गहरी होती जा रही हैं। मुख्य कारण राजनीतिक दलों का जातिवाद के सामने घुटने टेक देना है। यह बीमारी देश के बड़े हिन्दू समाज में सबसे ज्यादा है। राजनीतिक दल इसे हर प्रकार की हवा देते हैं।

मोटे तौर पर हिन्दू समाज प्रमुख रूप से दो भागों में विभाजित है। ये दो भाग हैं सवर्ण और दलित। इसने सरकारी कर्मचारियों को भी इस आधार पर बाँट रखा है। अजाक्स और सपाक्स। दोनों के उम्मीदवार मैदान में है। बड़े राजनीतिक दल वोटों के बंटवारे के कारण इन्हें तरजीह दे रहे हैं।

वैसे भी आजादी के बाद किसी राजनीतिक दल ने इसके खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलाई सब अपने वोट बैंक बनाने और बचाने में लगे रहे। विशुद्ध जाति आधारित संगठनों में न केवल इजाफा हुआ बल्कि ऐसे प्रयासों को हवा भी मिली। जिससे दिन-प्रतिदिन जातीय विभाजन बढ़ता गया।

इस विभाजन का सबसे अधिक खामियाजा सारे भारत को उठाना पड़ा है और भविष्य में यह विषय कितना गंभीर होगा किसी प्रकार का अनुमान लगाना मुश्किल है। वर्ग भेद और जाति भेद समाप्त करने की बात करने वाले सन्गठन तो हाशिये के भी बाहर चले गये हैं।

अब तो वोट के ठेकेदार उभर रहे हैं। ये ठेकेदार अपनी जाति- समूह के वोटों की संख्या के आधार पर उम्मीदवार के टिकट की पैरवी, भारी मतदान तक के ठेके ले रहे हैं। बड़े राजनीतिक दलों के इनकी सेवा लेने से कोई गुरेज़ नहीं है।

चुनाव के पहले इन्हें धन संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। चुनाव के बाद जाति आधारित मंत्री, फिर इसी आधार पर सरकारी ठेके और सामुदायिक कार्यों को जाति आधारित करने के प्रयासों का इतिहास सबके सामने है।

इसके चलते वो सब भी होता है, जो अपराध की श्रेणी में आता है अगर टिकट बंटने के इस आधार पर रोक लगती है तो वो बहुत कुछ थम सकता है, जो सभ्य समाज में अप्रिय माना जाता है।

 


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