कीर्ति राणा।
मध्यप्रदेश और राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे कुशाभाऊ ठाकरे वाली भाजपा में जरूर कार्यकर्ता ही शक्ति का मूलाधार रहते थे लेकिन जब से संभाग प्रभारियों और संगठन मंत्रियों को चमचमाती गाड़ियों के साथ कुर्ते-पाजामे सिलवाने से लेकर हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराने का चस्का जिलों के घाघ नेताओं ने लगाया है।लगभग सभी जिलों में पार्टी, नेता आधारित गुटों में बंटती गई है।
नतीजा यह कि पार्टी के हर बड़े आयोजन में निष्ठावान कार्यकर्ताओं को धकियाते हुए हर शहर और जिले में उन्हीं कुछ गिने-चुने कार्यकर्ताओं के चेहरे भोपाल तक पहचाने जाने लगे हैं जो विधायक-सांसद-महापौर-पूर्व सांसद प्राधिकरण या अन्य निगम अध्यक्ष की मंडली में शामिल रहते हैं।
सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों-कार्यकर्ताओं के लिए हर नियुक्त में प्राथमिकता से भी उन जिलों के भाजपा कार्यकर्ता तय नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करें।
कार्यकर्ताओं के बलबूते पर लगातार तीन बार सरकार बनी लेकिन चौथी बार धनबल से ही सत्ता मिल जाने का ही असर रहा है कि देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं को भी यह महसूस होता रहा है कि पार्टी को अब पहले की तरह उनकी जरूरत नहीं है।
सीएम से बैठकों में पार्टी के बड़े नेता तो कह सकते हैं कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते लेकिन इन देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं से सीधे बात करने का तो वक्त न को मुख्यमंत्री के पास है न ही पार्टी अध्यक्ष के पास है।
पार्टी अध्यक्ष को संगठन चलाने के अनुभव की कमी जैसे कारणों को इतना अधिक प्रचारित किया गया है कि शायद ही कोई महीना रहा हो जब उन्हें बदले जाने की बातें नहीं चली हों-ऐसी चर्चाओं का एक कारण यह भी रहा है कि सरकार स्तर पर सारी खामियां स्वत: ही नजरअंदाज हो गईं।
सरकार की हर घोषणा इन 18 वर्षों में इवेंट आधारित होते जाने का ही नतीजा है कि कुशाभाऊ ठाकरे के रहते जो युवा कार्यकर्ता थे वो आधी उम्र के बाद अब बसों में लाई जाने वाली भीड़ लायक भी नहीं रह गए हैं।अन्य संसाधनों सहित भीड़ जुटाने का टारगेट जिलों के अधिकारियों द्वारा पूरा कर देने से राष्ट्रीय नेताओं की नजर में संगठन क्षमता के मामले में स्थानीय पदाधिकारियों के नंबर बैठे-ठाले नंबर बढ़ जाते हैं।
सत्तर पार के लिए कोई काम नहीं की लागू अघोषित नीति से पार्टी को मजबूत बनाए रखने वाली जड़ें सड़ने लगी हैं। इसकी चिंता अब इसलिए नहीं है कि शहर से लेकर जिला इकाइयों तक में 35 से ऊपर के लोगों को योग्यतम माना जाने लगा है जिन्होंने न तो कांग्रेस सरकार में आंदोलन किए न ही लाठियों-अश्रु गैस का सामना किया।
जिन्होंने शिवराज सरकार के इन अठारह सालों में हरा-हरा ही देखा वो क्या जानें कि मप्र में पार्टी किन लोगों के कारण सत्ता में रहने का रिकार्ड बनाती रही है।
संगठन में जब 35-40 के युवाओं पर भरोसा किया जाएगा तो ये युवा अध्यक्ष तपे-तपाए वरिष्ठ अनुभवी नेताओं को सम्मान क्यों देंगे। अब जब चुनाव सिर पर हैं और पार्टी का चरमराता ढांचा असंतोष-अपनान-उपेक्षा के थपेड़ों से निरंतर कमजोर होता जा रहा है तब दिल्ली से चुनाव संचालन करने आए नेताओं को भी पुराने नेताओं की उपयोगिता और बीते वर्षों में हुई उनकी निरंतर अवहेलना के कारण समझ आ रहे हैं।
इन नेताओं के निर्देश पर ही अब हर जिले में विधानसभावार पुराने कार्यकर्ताओं से मेलमुलाकात, उन्हें पार्टी में जोड़ने का अभियान चलाया जा रहा है।
मार्गदर्शक मंडल के नेताओं की हालत देखकर इस पुरानी पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को भी समझ आ चुका है कि ये मानमनौवल चुनाव तक ही है।
दिल्ली से मप्र भेजे नेताओं ने कार्यकर्ताओं को पॉवर सेंटर और खुद को तार, स्विच बताकर पार्टी वर्कर को मोहित करने की कोशिश जरूर की है लेकिन इस आदर्श वाक्य के बाद से कार्यकर्ताओं को भी अभी तक ऐसा नहीं लगा है कि वाकई वो पॉवर सेंटर हैं।
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