हेमंत कुमार झा।
जिन अधिकारों के लिये सड़कों पर उतरना जरूरी है उन्हें आप कोर्ट में लड़ कर हासिल नहीं कर सकते। कोर्ट नीतियां बनाने के लिये बाध्य नहीं कर सकते, जबकि शिक्षकों की लड़ाई नीतियों के विरुद्ध है।
खुली आँखों से देखा जा सकता है कि सरकारें शिक्षकों के पद की गरिमा और उनके आर्थिक अधिकारों में कटौती करने के लिये कितनी नीतिगत और तकनीकी कलाबाजियां करती रही हैं। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है।
जब 20-25 हजार में पढ़ाने के लिये लोग उपलब्ध हैं ही तो उन्हें 50-60 हजार देने की क्या जरूरत? इसके लिये करना सिर्फ यह है कि नियुक्ति की प्रक्रिया ही ऐसी बना दी जाए कि शिक्षकों को नियमित मानने में कोर्ट को भी कठिनाई हो।
1990 के दशक में उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही दो लक्ष्य निर्धारित किये गए...पहला, सबको कम से कम इतनी शिक्षा दे दी जाए ताकि कंपनियों/फैक्ट्रियों को कुशल और अर्द्धकुशल मजदूर मिलने में कठिनाई न हो। दूसरा...इस स्तर तक की शिक्षा का सार्वजनीकरण तो होना ही चाहिये जिससे सारे लोग दीवार पर लिखी इबारतों को पढ़ सकें।
दीवार पर लिखी इबारतें...यानी विज्ञापनों की इबारतें।
इन्हीं लक्ष्यों के साथ प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनीकरण के लिये 90 के दशक में भारत के विभिन्न राज्यों में कई परियोजनाएं शुरू की गई जिनके लिये विश्व बैंक सरीखी संस्थाओं ने सस्ती दरों पर कर्ज देना शुरू किया।
यहीं से शिक्षकों के पद का अवमूल्यन और उनके आर्थिक अधिकारों में कटौती की शुरुआत होने लगी। आनन-फानन में पारा टीचर, बाल मित्र, शिक्षा मित्र, बाल दीदी आदि अजीबोगरीब पदनामों के साथ शिक्षकों की बहाली संविदा टाइप से होने लगी। बेरोजगारी से त्रस्त लोगों ने सोचा कि अभी नौकरी ले लेते हैं, बाद में लड़ कर अधिकार भी ले लेंगे।
बिहार के नियोजित शिक्षक भी उसी परंपरा की कड़ी हैं। उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी लचर और इतनी जटिल बना दी गई कि नियमित होने की लड़ाई लड़ने में वे कानूनी तौर पर कमजोर साबित हों।
समाज के प्रभावशाली तबके ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा कर निजी संस्थानों की शरण ली और शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया, उनकी योग्यता, उनके शोषण आदि से इस तबके को कोई मतलब नहीं रह गया।
परशेप्शन्स बनते गए कि नियुक्ति प्रक्रिया में झोल के कारण सरकारी स्कूलों में अयोग्य शिक्षकों की भरमार हो गई है। डिग्री दिखाओ, नौकरी पाओ टाइप की नीतियों ने नियुक्ति की प्रक्रिया को मजाक बना दिया और नकारात्मक परशेप्शन्स को बल दिया।
भद पिटने के बाद टीईटी परीक्षा के बाद नियुक्ति तो हुई लेकिन फिर...इसमें भी बड़े पैमाने पर जाली डिग्री, जाली टीईटी सर्टिफिकेट आदि के मामले छा गए।
व्यवस्था इस मायने में सफल रही कि उसने शिक्षकों के प्रति समाज की नजरों में अनेक तरह के संदेह पैदा कर दिए। कामचोर, अयोग्य, फर्जी आदि आदि शब्द न सिर्फ लोगों की जुबान पर, बल्कि अखबारों की खबरों में भी शामिल हो गए।
नतीजा, शिक्षकों ने सम्मान खोया, पद की गरिमा खोई, आर्थिक अधिकार खोए...और बदतर यह...कि समाज की सहानुभूति खोई।
व्यवस्था...या कहें, सरकारें...यही तो चाहती थीं।
बिहार, यूपी, झारखंड, एमपी, राजस्थान आदि में शिक्षकों की इस शोषित जमात का संघर्ष दशकों से जारी है। अलग-अलग समय में, अलग-अलग राज्यों में संघर्ष के रूप अलग-अलग हैं, लेकिन उद्देध्य एक ही है...वजूद बचाने का संघर्ष, अधिकार हासिल करने का संघर्ष।
एक ऐसे दौर में, जब प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के शिक्षकों के अस्तित्व के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, उनके संगठन कमजोर होते जा रहे हैं।
संगठनों के कमजोर होने ने शिक्षकों का जितना अहित किया है उसे समझने को लोग आज भी तैयार नहीं।
अगर शिक्षकों का कुछ प्रतिशत अयोग्य है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार की है कि उसने अयोग्य को विद्यालय में घुसने कैसे दिया। अगर बहुत सारे लोग फर्जी डिग्री पर बहाल हैं तो यह भी सरकार की जिम्मेदारी है कि फर्जी लोग शिक्षक बन ही कैसे गए? बन गए तो फिर वर्षों से ऐसे फर्जी लोग शिक्षक बने हुए कैसे हैं?
यह शिक्षा विभाग के अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि फर्जी डिग्री पर फर्जी शिक्षक स्कूलों में नियुक्त हैं और गरीबों के बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हैं। उन अधिकारियों को दंडित करना चाहिये जो सिर्फ बयान तो देते हैं लेकिन पता नहीं, किन अज्ञात कारणों से फर्जी शिक्षकों को चिह्नित करने में आपराधिक लापरवाही और अनदेखी कर रहे हैं।
यह रहस्य है कि आखिर वर्षों से फर्जी लोगों को चिह्नित करने की प्रक्रिया चल रही है और हासिल यही है कि आज भी गांव-गांव में न जाने कितने फर्जी लोग योग्य लोगों का हक मार कर स्कूलों पर काबिज हैं।
इसकी जिम्मेदारी तय करनी होगी।
कोई अयोग्य है, कोई फर्जी है...तो इसकी जिम्मेदारी आम शिक्षकों की नहीं।
उन शिक्षकों का क्या दोष जो सर्वथा योग्य हैं, जिन्होंने टीईटी परीक्षा पास कर अपनी योग्यता प्रमाणित की है, जिनकी डिग्रियां वैध हैं। आखिर, ऐसे शिक्षकों से कोई सरकार कैसे उचित से बेहद कम वेतनमान पर काम ले सकती है? और कब तक?
यह नीतियों का संघर्ष है, विधान सभाओं में लड़ना होगा, संसद में लड़ना होगा, सड़कों पर लड़ना होगा। लड़ना ही होगा।
आप एकायामी लड़ाई नहीं लड़ सकते। आपको बहुआयामी संघर्ष करना होगा क्योंकि आपकी लड़ाई महज किसी नीतीश कुमार या किसी नरेंद्र मोदी से नहीं, उस नवउदारवादी व्यवस्था से है जो गरीब बच्चों की विशाल संख्या को पढ़ाने वाले शिक्षकों को शिक्षक तो क्या, मनुष्य तक मानने को तैयार नहीं है।
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